Book Title: Bhashya Trayam
Author(s): Devendrasuri
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 53
________________ दुद्ध दही चउरंगुल, दव गुड घय तिल्ल एग भत्तुवरिं; पिंडगुल मक्खणाणं, अद्दामलयं च संसहूं ॥ ३६ ॥ भोजन के ऊपर दूध और दहि चार अंगुल (चढा हुआ हो) वहाँ त क संसृष्ट और नरम गुड, नरम घी और तेल एक अंगुल ऊपर चढा हो वहाँ तक संसृष्ट, और ठोस गुड तथा मक्खन पीलु या शीणवृक्ष के महोर के समान कणखंड वाला हो वहाँ तक संसृष्ट (हो तो नीवि में चल सकते हैं, अधिक संसृष्ट होने पर नहीं चल सकते हैं ।) ॥३६॥ दव्वहया विगई विगइ-गय पुणो तेण तं हयं दव्वं; उद्धरिए तत्तंमि य, उक्किट्ठ दव्वं इमं चन्ने ॥ ३७ ॥ अन्य द्रव्यों से हनायी हुई विगई विकृतिगत-अर्थात् नीवियाता कहलाती है। और इस कारण से वह हना हुआ द्रव्य कहलाता है । तथा पकवान उद्धरने के बाद उद्धृत घी (बचा हुआ घी) विगेरे से उसमें जो द्रव्य बनाने में आता है उसे भी नीवियाता कहा जाता है । और इस नीवियाता को अन्य आचार्य 'उत्कृष्ट द्रव्य' ऐसा नाम देते हैं ॥३७॥ तिलसक्कलि वरसोलाई, रायणंबाई दक्खवाणाई; डोली तिल्लाई इअ, सरसुत्तम दव्व लेवकडा ॥ ३८ ॥ तिलपापडी वरसोला आदि, रायण और आम(केरी) विगेरे, द्राक्षपान विगेरे डोलिया और (अविगई) तेल विगेरे, सरसोत्तम द्रव्य और लेपकृत द्रव्य है । ॥३८॥ ५२ भाष्यत्रयम्

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