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स्थानमें संध्या समय में यथासंभव पाणहार का याने चउविहार का पच्चक्खाण होता है | ॥८॥
तह मज्ज पच्चक्खाणेसु न पिहु सूरुग्ग-याई वोसिरई; करणविही उ न भन्नई, जहावसीयाई बिअछंदे ॥ ९ ॥
तथा मध्यम के प्रत्याख्यानों में सूरे उग्गए तथा वोसिरइ इन पदों का भिन्न उच्चार नही करना । जिस प्रकार दूसरे वंदनक में आवसिआए पद का उच्चार दूसरी बार नही किया जाता है, वैसे ही (सूरे उग्गए और वोसिरइ पद भी) बारबार नही बोलना ये करणविधि (प्रत्याख्यान उच्चारने का विधि) ही ऐसा है | ॥९॥
तह तिविह पच्चक्खाणे, भन्नंति अ पाणगस्स आगारा; दुविहाहारे अचित्त भोईणो तह य फासुजले ॥ १० ॥
तथा तिविहार के प्रत्याख्यान में (अर्थात् तिविहार उपवास एकाशन विगेरेमें:) पाणस्स के आगार (आलापक) उच्चरने में आते हैं । तथा एकाशनादि दुविहार वाले हो, तो उसमें भी करनेवाले उचित भोजन को पाणस्स के आगार करना, तथा एकाशनादि प्रत्याख्यान रहित श्रावक यदि उष्ण जल पीने का नियमवाला हो तो उसे भी पाणस्स के आगार करना । (तात्पर्य उष्ण जल पीने के नियम में सर्वत्र पाणस्स के आगार बोलना ) ॥१०॥
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भाष्यत्रयम्