Book Title: Bhagvati Sutra Part 07
Author(s): Ghevarchand Banthiya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 16
________________ (15) में स्पष्ट किया है कि-"लोगोवयार विणओ, इय एसो वणितो सपक्खम्मि।" ... टीका-" इति एव मुक्तेन प्रकारेण एष लोकोपचार विनयः स्वपक्षे सुविहित लक्षणे वणितः।" स्पष्ट हुआ कि लोकोपचार विनय, लौकिक मनुष्यों के साथ नहीं है। इस लोकोपचार-विनय का सातवां भेद है-'सर्वत्र अप्रतिलोमता।' इसका अर्थ भी यों किया जाने लगा है कि 'समस्त जनता के अनुकूल रहना,' 'लोगों की अनुकूलता के अनुसार प्रवृत्ति करना।' किंतु इस प्रकार का अर्थ भी असत्य है। व्यवहार सूत्र के भाष्य की पीठिका गाथा ८४ में · सर्वत्र अप्रतिलोमता' का अर्थ बताते हुए लिखा है कि- . . "समायारीपरूवणणिद्देसे चेव बहुविहे गुरुओ। एमेयत्ति तहत्तिय सम्वत्यणुलोमया एसा ॥८४ ॥" टीका--"गुरोः समाचारी प्ररूपणे किमक्तं भवति, इच्छामिच्छादिरूपायो तस्यां समाचार्या गुरुणा प्ररूप्यमाणायां एवमेतत् यथा भगवतो वदंति नान्यथेति प्रतिपत्तिस्तथा बहुविधे बहुप्रकारे निवेशे तत्कर्तव्यता ज्ञापनलक्षणे गुरोप्रेरणा क्रियमाणे या तथेति वचनतः कर्तव्यतया च प्रतिप्रति रेषा सर्वापि सर्वानुलोमता नाम विनय ।" .. ____ इच्छामिच्छाकारादि समाचारी सिद्धांतानुकूल प्ररूपणा गुरु आदि के निर्देशानुसार आज्ञा-पालक होना भगवदाज्ञा से अन्यथा वर्तन नहीं करना इत्यादि अनेक प्रकार से कर्तव्य का पालन करना, गुरु के अनुकूल वर्तना आदि सर्वानुलोमता = सर्वत्र अप्रतिलोमता है। . तात्पर्य यही कि 'लोकोपचार विनय' और उसका भेद 'सर्वत्र अप्रतिलोमता' का सम्बन्ध भी गुर्वादि साधुओं से सम्बन्धित है और इसीसे यह वैयावृत्य तप के समान आभ्यन्तर तप हो सकता है। जो गृहस्थ, साधु का सहचारी नहीं, सांभोगिक नहीं और आभ्यन्तर भी नहीं, बाह्य है । उसके विनय को आभ्यन्तर तप में माना ही कैसे जा सकता है ? धर्मध्यान के भेद-प्रभेद धर्म-साधना का सही स्वरूप जैन तत्त्वज्ञान में परिपूर्ण भरा है। किन्तु धार्मिकजनों में पूरी जानकारी नहीं हो, या अन्य भावना का असर हो, तो धर्म-भावना में भी विकृति Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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