Book Title: Bhagvati Sutra Part 07
Author(s): Ghevarchand Banthiya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 15
________________ ( 14 ) नहीं करना । इस मूलपाठ से स्पष्ट हो गया कि भगवती के पाठ का भी यही अर्थ है । इसके अतिरिक्त व्यवहार सूत्र के भाष्य पीठिका गा. ७७ में भी लिखा है कि " माणसिओ पुण विणओ, दुविहो उ समासओ मुणीयव्यो । अकुसल मणोनिरोहो, कुसलमणउदीरणं चैव ॥" टीका--" मानसिकः पुनविनयः समायतः संक्षेपेण द्विविधो द्विप्रकारो मुणितव्यो ज्ञातव्यः, तदेव द्वैविध्यमुपदर्शयति, अकुशलस्य आर्त्तध्यानाद्युपगतस्थ मनसो निरोधः अकुशलमनोनिरोधः, कुशलस्य धर्मध्यानाद्युत्थितस्य मनस उदीरणं ।" इससे भी अप्रशस्त मन का निरोध अर्थ ही प्रमाणित होता है । यही बात अप्रशस्त वचन और काय-विनय के विषय में भी जाननी चाहिए । (२) भगवती सूत्र इस पाठ के समान स्थानांग सूत्र स्था. ७ में भी पाठ है और इनमें सात भेद ही किये हैं, किन्तु उववाह सूत्र में विशेष भेद हैं। यथा- १ सावद्यकारी २ सक्रिय ३ कर्कश ४ कटु ५ निष्ठुर ६ परुष (स्नेह रहित ) ७ आस्रवकारी ८ छेद कर ९ भेद कर १० परितापकारी ११ उपद्रवकारी और १२ भूतोप घातक । लोकोपचार विनय विनय का सातवी भेंद 'लोकोपचार विनय' है। यह लोकोपचार विनय भी विवाद का कारण बन गया है । लोकोपचार का क्षेत्र विशाल है। गृहस्थ भी लोकोपचार का पालन करते हैं । किन्तु आभ्यंतर तप के भेद में यहं भेद गृहस्थ-निरपेक्ष है। इसका सम्बन्ध संयतों के साथ है । इसके पूर्व के छह भेद तो प्रायः स्वतः से सम्बन्धित थे, परंतु यह सातवाँ भेद विशेषतः अन्य साधुओं से सम्बन्ध रखता है । इसलिए इसका नाम 'लोकोपचार विनय' दिया है । इसके अभ्यासवर्तक आदि भेद ही अपना सम्बन्ध बता रहे हैं। अतएव लोकोपचार विनय का सम्बन्ध साधुओं का गृहस्थों के साथ जोड़ना अनुचित है । साधुं द्वारा गृहस्थ की विनय तो प्रायश्चित्त का कारण है। एक सर्वविरत निर्दोष संयमी का असंयत अविरत गृहस्थ वर्ग के साथ सम्बन्ध नहीं हो सकता । जनता की इच्छानुसार श्रमण चले - "परछंदानुवत्तिय" यह कैसे हो सकता है ? 'व्यवहार सूत्र के भाष्य की गाथा ८५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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