Book Title: Bhagvati Sutra Part 03
Author(s): Ghevarchand Banthiya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 435
________________ १४९८ भगवती सूत्र-श. ८ उ. ९ शरीर बंध कोई पृथ्वीकायिक जीव मरकर पृथ्वीकायिक जीवों के सिवाय दूसरे जीवों में उत्पन्न हो जाय और वहाँ से मरकर पुनः पृथ्वीकाय में उत्पन्न हो, तो उसके सर्व-बन्ध का अन्तर जघन्य तीन समय कम दो क्षुल्लक भव है । उत्कृष्ट काल की अपेक्षा अनन्त कालअनन्त उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी है अर्थात् अनन्त काल के समयों में उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल के समयों का अपहार किया जाय अर्थात् भाग दिया जाय, तो अनन्त उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल होता है । क्षेत्र की अपेक्षा अनन्त लोक है अर्थात् अनन्त काल के समयों में लोकाकाश के प्रदेशों द्वारा अपहार किया जाय तो अनन्त लोक होते हैं। बनस्पतिकाय की कास्थिति अनन्त काल की है, इस अपेक्षा सर्वबन्ध का उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है । यह अनन्त काल असंख्य पुद्गल-परावर्तन प्रमाण है । दस कोटा-कोटि अद्धा पत्योपमों का एक सागरोपम होता है । दस कोटाकोटि सागरोपमों का एक अवसर्पिणी काल होता है और इतने ही समय का एक उत्सर्पिणी काल होता है । ऐसी अनन्त अवसर्पिणी और उत्सपिणी. का एक पुद्गलपरावर्तन होता है । असंख्य समयों की एक आवलिका होती है, उस आवलिका के असंख्यात समयों का जो असंख्यातवां भाग है, उसमें जितने समय होते हैं. उतने पुद्गल-परावर्तन यहां लिय गये हैं। इनकी संख्या भी असंख्य हो जाती है । क्योंकि असंख्य के भी असंख्य भेद हैं । इसी प्रकार आगे सर्व-बन्ध और देशबन्ध का अन्तर स्वयं घटित कर लेना चाहिये। औदारिक-शरीर के बन्धकों के अल्प-बहुत्व में सब मे थोड़े सर्व-बन्धक जीव हैं, क्योंकि वे उत्पत्ति के समय ही पाये जाते हैं । उनसे अबन्धक. जीव विशेषाधिक हैं । क्योंकि विग्रह-गति में और सिद्ध-गति में जीव अबन्धक होते हैं । वे सर्व-बन्धकों की अपेक्षा विशेषाधिक हैं। उनसे देशबंधक असंख्यात गुणा हैं. क्योंकि देशबन्ध का काल असंख्यात गुणा है । वैक्रिय शरीर प्रयोग बंध ४१ प्रश्न उब्वियसरीरप्पओग-बंधे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? ४१ उत्तर-गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-एगिदिय चेउविय Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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