Book Title: Bhagvati Sutra Part 03
Author(s): Ghevarchand Banthiya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 434
________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. ९ शरीर बन्ध १४९७ तेतीम सागरोपम होता है। औदारिक-शरीर के देशबन्ध का अन्तर जघन्य एक समय है, क्योंकि देशबन्धक मर कर अविग्रह गति से उत्पन्न हो गया, तो वहां वह प्रथम समय में तो सर्वबन्धक रहता है और द्वितीयादि समयों में देशबन्धक हो जाता है । इस प्रकार देशबन्धक का देशबन्धक के साथ अन्तर एक समय का है । उत्कृष्ट तीन समय अधिक तेतीस सागरोपम का है । क्योंकि देश बन्धक मर कर तेतीस सागरोपम की स्थिति में नरयिक या देवों में उत्पन्न हो गया। वहाँ से च्यवकर तीन समय की विग्रह गति से आंदारिक-शरीरधारी जीवों में उत्पन्न हो गया। इस प्रकार विग्रह गति में दो समय तक अनाहारक रहा और तीसरे समय में सर्वबन्धक हुआ और फिर देशबन्धक हो गया । इस प्रकार यह देशबन्धक का उत्कृष्ट अन्तर घटित होता है। औदारिक-शरीर बन्ध का यह सामान्य अन्तर कहा गया है। आगे तीन सूत्रों में एकेंद्रिय आदि का कथन करते हुए औदारिक-शरीर-बन्ध का अन्तर विशेष रूप से बतलाया गया है । उपरोक्त रीति मे उन सब का अन्तर घटित कर लेना चाहिये । इसके आगे प्रकारान्तर से औदारिक-शरीर बन्ध का अन्तर बतलाया गया है । कोई एकेंद्रिय जीव, तीन ममय की विग्रह-गति द्वारा उत्पन्न हुआ, तो विग्रह-गति में दो समय अनाहारक रहता है और तीसरे समय में सर्वबन्धक रहता है। फिर तीन समय कम क्षुल्लक भव प्रमाण आयुष्य पूर्ण करके.एकेन्द्रिय के सिवाय बंइन्द्रिय आदि जाति में उत्पन्न हो जाय, और वहाँ भी क्षुल्लक भव की स्थिति को पूर्ण करके अविग्रह गति द्वारा एकेंद्रिय जाति में उत्पन्न हो, तो वहां प्रथम समय में सर्व-बंधक रहता है । इस प्रकार सर्व-बंध का जघन्य अन्तर तीन समय कम दो क्षुल्लक भव होता है । कोई पृथ्वीकायिक जीव, अविग्रह गति द्वारा उत्पन्न हो, तो वहां वह प्रथम समय में सर्व बन्धक होता है। वहां बाईस हजार वर्ष की स्थिति को पूर्ण करके मरकर त्रसकायिक जीवों में उत्पन्न हो जाय। वहां भी संख्यात वर्षाधिक दो हजार सागरोपम की उत्कृष्ट कायस्थिति को पूर्ण कर के फिर एकेंद्रिय जीवों में उत्पन्न हो तो वहां प्रथम समय में वह सर्व-बंधक होता है । इस प्रकार सर्व-बन्ध का उत्कृष्ट अन्तर संख्यात वर्षाधिक दो हजार सागरोपम होता है। यहां यदि सर्व-बन्ध के एक समय कम एकेंद्रिय जीव की उत्कृष्ट भव-स्थिति को सकाय की कायस्थिति में प्रक्षिप्त कर दिया जाय, तो भी संख्यात वर्ष ही होते हैं । क्योंकि संख्यात के भी संख्यात भेद होते हैं । देश-बन्ध का अन्तरं जघन्य एक समय अधिक क्षुल्लक भव है और उत्कृष्ट संख्यात वर्षाधिक दो हजार सागरोपम है । For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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