Book Title: Ashtapad Maha Tirth 01 Page 336 to 421
Author(s): Rajnikant Shah, Kumarpal Desai
Publisher: USA Jain Center America NY

View full book text
Previous | Next

Page 19
________________ Shri Ashtapad Maha Tirth होती है उसी तरह सिर आदि अंगों में भी आभुषणों से कृत्रिम शोभा ही आई हुई है- ऐसा मैं मानता हूँ।' ऐसा विचार करके विरक्त और प्रशान्त हृदयवाले भरत ने सिर पर मुकुट, दोनों कानों में से कुण्डल, गले पर से कण्ठला (कण्ठाभरण), छाती पर से हार, दोनों भुजाओं पर से बाजुबन्द, दोनों हाथों में से वीरवलय (कड़ा) और अंगुलियों में से अंगूठियाँ भार समझ कर निकाल डालीं। फागुन महीने में पत्ते, फूल और फल से रहित पेड़ की तरह अलंकारों से रहित अपने शरीर को देखकर वह मन में इस तरह विचार करने लगे कि 'आभूषण रूपी विभिन्न वर्गों के लेप से चित्रित यह शरीर रूपी दीवार असार होने से अनित्यतारूपी जल से भीगने पर गिर पड़ती है। रोगरूपी हवा के बहने से झड़ जानेवाले पके पत्ते के जैसे इस शरीर पर का प्राणियों का मोह अहो ! कितना दुस्त्यज (बड़ी कठिनाई से जिसका त्याग किया जा सके ऐसा) है ?' इस शरीर में साररूप चमड़ी के ऊपर प्राणी रात-दिन चन्दन-रस को लेप करते हैं फिर भी वह अपना मैलापन नहीं छोड़ती। जिसके लिये दुष्कर्म से प्रेरित लोग पाप करते हैं वह देह तो कमलिनी के पत्ते पर रहे हुए बिन्दु की तरह चंचल है। दुर्गन्धी और शृंगार रस से मलिन ऐसे संसार रूपी गन्दे पानी के परनाले में, जानते हुए भी लोग गड्ढ़ों में मैला चूंथनेवाले सूअर की तरह डुबकियाँ लगाते रहते हैं। मैंने भी साठ हजार वर्ष तक इस धरातल पर घूमघूमकर इस शरीर के लिये न करने जैसे काम किये हैं। मुझे तो धिक्कार है। बाहुबली वीर धन्य है तथा दूसरे भी भाई धन्य हैं जिन्होंने इस असार संसार का त्याग कर के मुक्ति प्राप्त की है। जहाँ पर विशाल राज्य भी चलायमान हो, यौवन विनश्वर हो और लक्ष्मी चंचल हो वहाँ पर स्थिरता कैसे हो सकती है ? संसाररूपी कुएं में गिरे हुए प्राणियों को माता, पिता, स्त्री, भाई, पुत्र तथा धन-कोई भी रक्षा करने में समर्थ नहीं है। हे तात ! हे जगद्रक्षक ! जैसे तुमने अपने दूसरे पुत्रों को बचाया है वैसे ही मुझे बचाओ। अथवा इस तरह उलाहना देने से क्या फायदा ? खराब पुत्र होने के कारण उन्होंने मुझे याद नहीं किया होगा । धन, शरीर, घर और अन्तःपुर-इनमें से मैं कोई नहीं हूँ। 'समता और आनन्द के अमृत-जल में डुबकी लगानेवाला मैं अकेला ही हूँ।' इस प्रकार चिन्तन करके उपाधिरहित, शान्त, निष्क्रिय, मृत्यु रहित-ऐसे चिदानन्द स्वरूप परमतत्त्व में वह लीन हो गए। रौद्रध्यान से, असत्याचरण से, परद्रोह से तथा कुकर्म करके जो बड़ा भारी पाप इकट्ठा किया था उसे इस तरह की वैराग्य भावना ने शान्त कर दिया। शरीररूपी मिट्टी के बरतन में रखे गए मनरूपी पारे को ध्यानरूपी अग्नि द्वारा सुस्थिर करके कल्याण की प्राप्ति के लिये योगी भरत ने बाँध लिया । उत्कृष्ट भावनावाले योगीश्वर भरत ने सतत वृद्धिगत उपशमभाव से क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होकर केवलज्ञान प्राप्त किया। इन्द्र की आज्ञा से देवताओं ने मुनिवेश उन्हें अर्पित किया जिसे धारण करके उन्होंने सर्वविरति दण्डक का उच्चार किया। भरत चक्रवर्ती के पीछे, दूसरे दस हजार राजाओं ने भी प्रव्रज्या (दीक्षा) अंगीकार की क्योंकि वैसे स्वामी की सेवा तो परभव में भी सुख देनेवाली होती है। सर्वोत्कृष्ट पद पर पहुँचने के कारण दूसरों को वन्दना न करनेवाले भरत केवली को देव, नागकुमार तथा मनुष्य भक्तिपूर्वक वन्दन करने लगे। भरत चक्रवर्ती को केवलज्ञान होने के पश्चात् इन्द्र ने पृथ्वी का भार वहन करनेवाले भरत के पुत्र सूर्ययश का राज्याभिषेक किया। केवलज्ञान की उत्पत्ति से लेकर, भगवान् श्री ऋषभदेव की तरह, भरतने भी गाँव, समूह, नगर, जंगल, पर्वत और द्रोणमुख (४०० गाँवों की राजधानी) आदि में रहने वाले भव्य जीवों को धर्म की देशना द्वारा जागृत करते हुए भरत केवली ने अपने परिवार के साथ एक लाख पूर्व वर्ष तक विहार किया। बाद में अष्टापद पर्वत पर जाकर भरत मुनि ने यथाविधि चतुर्विध आहार का प्रत्याख्यान (पच्चक्खाण-त्याग) किया। एक महीने के अन्त में श्रवण नक्षत्र में, ज्ञानादि अनन्त चतुष्टय जिसे सिद्ध हुए हैं ऐसे वह शान्त महात्मा मोक्ष में गए और उनके पीछे क्रमशः दूसरे भी साधुओं ने मोक्षपद प्राप्त किया। इस पर इन्द्रों ने भगवान् श्री ऋषभदेव प्रभु की तरह उनके पुत्र भरत का वहाँ पर निर्वाण महोत्सव किया ऊँचे चैत्यों का निर्माण कराया। भरत चक्रवर्ती कुमारावस्था में सतत्तर लाख पूर्व, मण्डलक अवस्था में एक हजार वर्ष, छह लाख पूर्व वर्ष में एक हजार वर्ष कम चक्रवर्ती अवस्था में और केवली अवस्था में एक लाख पूर्व -इस प्रकार कुल चौरासी Bharat Chakravarti -35 314

Loading...

Page Navigation
1 ... 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86