Book Title: Ashtapad Maha Tirth 01 Page 336 to 421
Author(s): Rajnikant Shah, Kumarpal Desai
Publisher: USA Jain Center America NY

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Page 25
________________ Shri Ashtapad Maha Tirth चारों ओर थे। भरत महाराजा ने इस प्रकार रचना कराई थी कि जिससे कोई ऊपर न जा सके मनुष्य किसी भी तरह भी। तो यह चारों ओर से किलेबन्दी के रूप में कठिन करके और नीचे का समतल कर दिया, फिर ऊपर के भाग में जो ऐसा भाग होता है, ऐसा ऐसा करके एल मार्क की तरह से कठिन कर दिया। वह पायरी बन गई। इस तरह आठ पायरी थीं। ऊपर भगवान् ऋषभदेव का निर्वाण हुआ है। ऐसे तो हिमालय प्रदेश में वह वस्तु है। बहुत सी ऐसी शिखरमालाएँ हैं पर यह कैलाश शिखर कहलाता है। वही है अष्टापद । बर्फ के अन्दर ये चीजें मौजूद हैं और अभी गुप्त गुप्त रहें इसी में मजा है। तिबेट (तिब्बत) भूमि अभी चाइना के हाथ में है और उसमें जो चीजें हैं ऐसी चीजें हैं जो उनके हाथमें नहीं आवे उसमें ही कुशलता है। तो वहाँ १५०३ तापसों में से एक ग्रुप ५०१ का पहली पायरी पर चढ़ सका। इतनी लब्धि उनको प्राप्त हुई थी, और दूसरा ग्रुप दूसरी पायरी पर, तीसरा ग्रुप तीसरी पायरी पर था। पहली पायरी वाले एकान्तर आहार लेते थे और फलादि से पारणा करते थे और एक उपवास और फिर फल ग्रहण। दूसरे दो उपवास और फिर सूखे पत्ते पुष्पादि फल मिल गए उससे पारणा करते थे और तीसरे तीन दिन के बाद अल्पाहार लेते थे। किसका ? सूखी हुइ सेवाल, यह सेवाल भी ऊपर जो पानी के ऊपर तैरता है वह सेवाल सूखा हुआ है- वह भी पौष्टिक है और उसके इंजेक्शन बनते हैं आजकल। तो वह विलारी के पैर जितनी और तीन चुल्लु जल लेते थे एक बार। और ये ऊपर जाने के लिए आराधना करते थे, कैलाश को वन्दना । इस तरह भगवान् के पास सभी दीक्षित बने और बादमें चंदनबाला आदि बहुतसी महिलाएँ वहाँ उपस्थित हुईं, भगवान् से दीक्षा ली। श्रमण समुदाय बना । चतुर्विध संघ की स्थापना शंख आदि श्रावक और श्राविओं का समुदाय सा हो गया। जिसे चतुर्विध संघ कहते हैं। तीर्थ याने जिसका आधार तिरा जायसंसारसमुद्र को पार किया जाय उसे तीर्थ कहते हैं और उसे बनाने वाले तीर्थंकर जिनके माध्यम से संसारसमुद्र पार उतरते हैं वह तीर्थंकर पद एक विशेष पद है। इसलिए केवलियों में भी यह विशेष पद है तीर्थंकर केवली और वे कहलाते हैं सामन्य केवली। चतुर्विध संघ स्थापन कर भगवान् ३० वर्ष विश्वकल्याण हेतु उदयानुसार विचरे। गौतमस्वामी भी अधिकाँश उनके साथ ही विचरे। भगवान् का अन्तिम चातुर्मास पावापुरी में हस्तिपाल राजा की जीर्ण सभा शुक्लशाला-दाणमण्डप में हुआ। वैशाली गणतन्त्र के अधीन काशी कौशल देश के अठारह गणप्रमुख राजा जो सब जैन-भगवान् के अनुयायी थे, पौषधव्रत धारण कर उपस्थित थे। भगवान् की वाणी उदयानुसार सोलह प्रहर पर्यन्त चालू थी। उन्होंने अपना अन्तिम समय ज्ञात कर गणधर इन्द्रभूति गौतमस्वामी को आदेश दिया की आप निकटवर्ती ग्राम में जा कर देवशर्मा ब्राह्मण को प्रतिबोध दो ! गौतमस्वामी प्रभु के अनन्य भक्त थे। वे जिसे भी दीक्षित करते प्रबल पुण्यराशि के कारण भगवान् के शरण में आने के बाद केवलज्ञान प्रगट हो जाता पर आप तो चार ज्ञानधारी ही थे। उनके सम्पूर्ण कैवल्यदशाप्राप्ति में भगवान् के प्रति प्रशस्त भक्तिराग ही बाधक था। आखिर चलकर वह भी छोड़ना पड़ता है, पर वह छूटता नहीं था। वे सोचते थे कि उस भक्तिराग को छोड दूं तो केवलज्ञान हो सकता है। लब्धि द्वारा जान सकते थे, आत्मज्ञानी तो थे ही, फिर भी वास्तवमें देखू तो वह भी छोड़ना ठीक नहीं हैं, क्योंकि मैं तो नरक में जाने का काम करता था, यज्ञादि हिंसा-अधर्म का पोषण करता था। निरपराध पशुपक्षी और नरबलि तक के पापकार्य मेरे द्वारा हुए हैं। गति तो मेरी नरक थी पर भगवान् ने मुझे नरदेव बना दिया। और मोक्ष तो कोई दूर नहीं, इसी जन्म में ही होगा। फिर जब तक भगवान् हैं उनके प्रति आदरभाव-राग भाव कैसे छोडूं ! इतना भक्तिराग था। इससे संसार की उत्पत्ति नहीं होती पर सम्पूर्ण केवलदशा में यदि प्रवेश करता है तो यह भी छोड़ना आवश्यक है, अनिवार्य है। तो यह छूटता नहीं था। कई बार एकदम भावावेश में आ जाते और भगवान् से प्रार्थना करते कि प्रभु ! मैं क्या ऐसा ही रहूँगा! भगवान् कहते भाई, भक्तिराग भी बन्धन है, इसको छोडो तो अभी कैवल्य हो जाय तुम्हें ! गौतमस्वामी के मन में यही उत्तर आता कि यह मुझसे नहीं बन पाता। अच्छा है यदि आपकी सेवा मुझे मिले तो मोक्ष नहीं चाहिए, कहाँ जानेवाला है मोक्ष ? यह था भक्तिराग ! वस्तुतः भक्ति का आदर्श थे गणधर Mahamani Chintamani -26 320

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