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( ८ )
अष्टाङ्गहृदयसंहिताकी
शररिकी स्थितिसेही धर्म अर्थ काम मोक्ष चार पदार्थ सिद्ध होते हैं, जिसने इस शरीर की रक्षा की उसने मानो सबकी रक्षा की और जिसने इस शरीर को नष्ट कर दिया उसने क्या नहीं नष्ट किया, यही सिद्धान्त विचार कर ऋषि मुनि महात्माओंने शरीर की स्थिति के निमित्त भी अनेक यत्नकिये हैं, तथा अपने तपोबलसे दिव्य औषधियों को देखा है, जिस समय प्राणी अपने कर्मोंसे -रोगन्रसित हुए, उस समय स्वयं भगवान्ने धन्वन्तरि अवतार लेकर रोगोंके निवारणार्थ आयुर्वेदका कथन किया आयुर्वेद ऋग्वेदका उपवेद है वेदकी समान ही आयुर्वेद की प्रतिष्ठा करनी चाहिये जिस प्रकार वेदमें कथित कर्म स्वर्गादि फलके देनेवाले हैं इसी प्रकार आयुर्वेद इस लोक में प्रत्यक्ष फलका देनेवाला है यज्ञादिका फल कथन करनेवाले तथा आयुर्वेद के निर्माता ऋपिही हैं जब कि औषधि प्रयोग यहां प्रत्यक्ष फल देता है तो उनका फल स्वर्गादि विधान सत्यं क्यों न होगा.
धन्वन्तरि के उपरान्त सहस्त्रों ऋषियों मुनियोंने अपने अपने तपसे तथा अनुभवसे अनेक ग्रंथ निर्माण किये हैं परन्तु उन सब ग्रंथोंमें चरक सुश्रुत और वाग्भट यह तीन ग्रंथ प्राचीन और अतिशय माननीय हैं जैसे- प्रत्येक युगके निमित्त एक एक स्मृतिका विशेष विधान किया है इसी प्रकार इन ग्रंथों के निमित्त भी समयका विभाग किया है. यथा
अत्रिः कृतयुगे चैव त्रेतायां चरको मतः । द्वापरे सुश्रुतः प्रोक्तः कलौ वाग्भटसंहिता ॥
सतयुगमें अत्रिसंहिता त्रेतामें चरक द्वापर में सुश्रुत और कलियुग के निमित्त वाग्भट संहिता है । जबकि एक वस्तुका किसी कार्य के निमित्त पृथक् निर्देश हो तो उसमें कुछ अधिकता पाई जातीहै, इसीकारण वाग्भटको कालेके उपयोगी जानकर पृथक् निर्देश किया है यद्यपि वैद्यक के सहस्त्रों ग्रंथ हैं, परन्तु हमारा क्या यह सभीका सिद्धान्त है कि यदि चरक सुश्रुतके उपरान्त किसी ग्रंथकी गणना है तो वाग्भटकी ही है बल्कि कलिके लिये उसका प्रथम निर्देश किया जाय तो अनुचित न होगा इसके सूत्रादि आठों अंगों के जाननेसे फिर और कुछ जानने की आवश्यकता नहीं रहती वे इसप्रकार हैं ।
देह ( काय ) - सम्पूर्ण धातुसे युक्त युवा देहमें जो रोगहों उनकी निवृत्तिका जिसमें वर्णन हो
बाल - बालकों के रोगों की चिकित्सा |
ग्रह - जिसमें देव आदिग्रहों से ग्रस्त प्राणियोंके लिये शान्ति कर्म कहाजाय
ऊर्ध्वग - कन्धे ऊपरके रोगोंकी जिसमें चिकित्सा हो. शल्य - जिसमें शल्य चिकित्सा है ( शल्य शस्त्रादिका घाव ) दंष्ट्रा - विषैले जीवों के काटनेपर रसायनादि प्रयोग ।
जरा - अवस्थाके विना वृद्धता होनी उसका निवारण करनेको रसायनादि प्रयोग करना । वृष - वाजीकरण अर्थात् शरीरमें थोडा वीर्य हो या किसी कारण से बिगड गया हो उसके बढानेकी वा शुद्ध करनेकी चिकित्सा |
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