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'हां, आपकी कृपा से ।' विश्व पर राज करने के लिए उत्पन्न रूपकोशा ने अत्यन्त मृदु स्वर में कहा।
आचार्य ने सुनन्दा से कहा, 'सुनन्दा ! तेरी कोशा तेरे से भी ज्यादा महान होगी। इसमें रूप और गुण दोनों का संयोग है।'
आचार्य जैसे महान पुरुष के मुख से पुत्री की प्रशंसा सुनकर माता का हृदय हर्ष से प्रफुल्ल हो गया। माधवी के हाथ से पूजा की सामग्री लेकर कोशा ने आचार्य कुमारदेव का विधिवत् पूजन किया। आचार्य को श्वेत पुष्पों की माला पहनाई और भावपूर्वक आरती उतारी। पूजा सम्पन्न कर कोशा आचार्य के चरणों में लुट गई।
आचार्य कुमारदेव ने कोशा के मस्तक पर हाथ रखकर हंसते हुए कहा, 'पुत्री! चिरंजीवी बनो। मेरा आशीर्वाद है, तेरी कीर्ति देवलोक में भी अमर बनेगी।'
कोशा ने कुछ पुष्प गुरुचरणों में चढ़ाए।
आचार्य ने सुनन्दा से कहा, 'सुनन्दा ! नृत्य और संगीत की समस्त कलाओं में कोशा निपुण हो गई है। वर्षों के निरंतर अभ्यास से मैंने जो कुछ प्राप्त किया था, उसे कोशा को अर्पित कर दिया है। अतीत में जो नृत्य आम्रपाली, वसंतसेना और अम्बालिका नहीं कर सकीं, वह सूचिकानृत्य कोशा ने सीखा है। आज मैं अंतिम बार उसी नृत्य की आवृत्ति कराऊंगा।'
नृत्य अत्यन्त भयावह था। सूचिकानृत्य में जीवन की बाजी लगानी पड़ती है। नृत्यशास्त्र की यह अंतिम सिद्धि है।
आचार्य के वचन सुनकर कोशा अत्यन्त हर्षित हुई। सुनन्दा का हृदय भय से कांप उठा। यदि कोशा कहीं चूक गई तो? आह! तब तो कोशा सदा के लिए मिट जाएगी। इसकी साधना का अंत हो जाएगा। किन्तु गुरु की आज्ञा को कैसे नकारा जा सकता है?
आचार्य ने नृत्यभूमि की ओर देखा। चित्रा नृत्यभूमि को सजा रही थी। वहां का पट्ट बादलों के दल की तरह शोभित हो रहा था। नृत्यभूमि के दोनों पार्यों में सरस्वती और नारद की प्रतिमाएं विराजित थीं। दशांगधूप
आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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