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अरिहंत परम ध्येय ६५ शुद्ध-विशुद्ध अत्यन्त निर्मल वीतराग स्वरूप अरिहंत आपके सामने विराजमान हैं। आपकी चेतना ने अरिहंत का आकार ग्रहण किया। उनकी स्तुति, उपासनादि करना प्रारंभ किया। इस समय तक रागी द्वेषी के उदाहरण की तरह हमारा मन काम करता गया परंतु जब चेतना इस आकार में घुलमिल जाती है तब संवेदनशील निजात्मा जगता है, प्रसन्न होता है क्योंकि अन्य कल्पनाएँ उससे पर थीं जब कि आत्मा का मूल स्वरूप, निजरूप अत्यन्त शुद्ध, विशुद्ध और निर्मल है। जैसे कल्पना के रागी से रागरंजित हो जीव राग भोगता है, द्वेष से संयुक्त हो द्वेष का अनुभव करता है तो वीतराग को याद कर वीतरागत्व का अनुभव क्यों नहीं हो सकता? रागी external से inner हो सकता है वैसे ही वीतरागी भी inner हो सकता है। ___ कल्पना में उभरे उस विशुद्ध रूप से तारतम्य जोड़ते हुए ही कभी वह भेद खुल जाता है, कल्पना हटती है और आत्मा अपने स्वरूप का अनभव करती है तब अरिहंत पर-पदार्थ या कल्पना नहीं रहेगी। आप स्वयं ही अरिहंत हैं ऐसा अनुभव होगा। उसकी समग्र चेतना स्वयं से जुड़ जाएंगी। समत्व आ जाएगा। उठती हुई ऊर्जा कर्म बन्धन की जगह कर्म-क्षय और निर्जरा का काम करेगी। कल्पनायें हट जाएँगी। राग-द्वेष शनैः शनैः कम होकर समाप्त होने की स्थिति आएगी, जीव श्रेणी का प्रारंभ करेगा। यथाप्रवृत्ति, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण द्वारा अकरण और अयोग तक पहुँच कर सिद्ध पर्याय का अनुभव प्राप्त करता है।
इसे मैं कहती हूँ इसलिये मत मानो, परन्तु इसका स्वयं संवेदन करो, अनुभव करो। यह आपका अपना स्वरूप है। यह संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य है कि हम अपने से ही पराये रहे। सर्व पर हमारा अपना होता गया और हमारा अपना स्वरूप उन आन्दोलनों में छिप गया। अरिहंत का ध्यान कर उस विशुद्ध external को inner होने दीजिये और निज के दर्शन कीजिये।
शब्द में, विचार में, तरंग में भावों को संग्रहीत कर समाविष्ट होने दीजिये। उस महाधारा में हमारी शक्ति सम्मिलित हो जाएगी। स्पेस में, आकाश में जो तरंगें संग्रहीत हुई हैं, अरिहंत के आसपास जो-जो आभामंडल निर्मित हुआ है उन संग्रहीत, निर्मित तरंगों में हमारी तरंगें भी चोट करती हैं। अपने चारों तरफ एक दिव्यता का, भगवत्ता का लोंक निर्मित हो जाएगा। हमें अनुभव होगा कि हम परमात्मा के अनुग्रह से भर रहे हैं। एक rythmic, लयबद्ध, सुन्दर, सिमिट्रीकल, सानुपातिक और व्यवस्थित स्वाभाविकता का निर्माण प्रारंभ होगा। स्वप्न टूट जायेंगे, विकल्प हट जायेंगे और कल्पना के खंडहर ध्वस्त हो जाएंगे।
प्राचीन जैन परम्परा में महाप्राण ध्यान की पद्धति प्रचलित थी। यह ध्यान की उत्तम और अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रक्रिया थी। आचार्य भद्रबाहुस्वामी ने बारह वर्ष तक महाप्राण ध्यान की साधना की थी। जो महाप्राण ध्यान में जाता है वह संसार से पूर्ण रूप से अलग हो जाता है, कोई संपर्क नहीं रह जाता, सभी संपर्क टूट जाते हैं। साधक गहरी समाधि-अवस्था में चला जाता है।