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७८ सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम साहित्य में “तीर्थंकरनामगोत्रकर्म" छूट गया और केवल तीर्थंकरनामकर्म प्रचलित रहा। इसका मुख्य कारण पाठ की सुगमता ही हो सकती है।
आराधक से आराध्य आराधना का पूर्ण उद्देश्य जैन दर्शन में आराध्य बन जाना है। कोई भी आराधक जब आराध्य सम्बन्धी पूर्णता प्राप्त कर लेते हैं तब नियत काल पर्यन्त लोक में धर्मोपदेशादि द्वारा भव्यात्माओं का निस्तार करते हैं। उनके इस अनुग्रह के अचिन्त्य प्रभाव से अनेकों का उद्धार हो जाता है। नियत काल पूर्ण हो जाने पर वे अपना लक्ष्य सिद्ध कर ही लेते हैं। अरिहंत परमात्मा जिनके ध्येय का पूर्ण विकास मुक्ति की प्राप्ति .. है। इस प्रयास में लोकोपकार या अनेकों के उद्धार की सर्व जन को जिनशासन-प्रिय बनाने की महती भावना से वे आत्माएँ तीर्थंकर नामगोत्रकर्म रूप विशिष्ट पुण्य प्रकृति . का निकाचन कर लेते हैं और उसी के फलस्वरूप निर्वाण-प्राप्ति तक लोक में .. धर्मदेशनादि करते हैं।
आराध्य को आराध्य के रूप में इस लिए स्वीकार लेना कि वे पूर्णता को प्राप्त हो चुके हैं अतः आत्मस्थिति में हम से बहुत कुछ महान् हैं केवल सर्वमान्य सिद्धान्त नहीं बन सकता। पूर्णत्व की उपलब्धि के अतिरिक्त भी एक वैशिष्ट्य उनमें होता है और वह है "तीर्थकरत्व-आर्हन्त्य"। यह उन्होंने कैसे पाया? कौनसी आराधना इसमें काम कर गई जो वह अद्भुत पुण्यबल इन्हें उपलब्ध हो पाया और ये ही आत्माएँ आराधक से आराध्य बने। सारी आराधना इन्हीं के पुनीत चरणों में अर्पित की जाने लगी। इसके तीन कारण हैं (१) सम्यक्त्व, (२) जगत के सर्व जीवों को शासन-प्रिय बनाने की विराट भावना और (३) आगमोक्त २0 उपायों की आराधना। ... १. अरिहंत पद प्राप्ति के परम उपाय
अरिहंत बनने योग्य आत्माएँ अपने तथाभव्यत्व के योग परिणाम से जगत् के सर्व जीवों को शासनरसिक बनाने की उत्कृष्ट भावना के परमबल से कुछ विशिष्ट क्रियाओं द्वारा इस पद को प्राप्त करते हैं। इन उपायों की सर्वोपरि विशेषता यही है कि आज तक जितने भी तीर्थकर हुए हैं या होने वाले हैं, उन सभी ने इन्हीं उपायों के अवलम्बन से इस परम ध्येय को उपलब्ध किया है। इन उपायों में से कोई सभी का प्रयोग करता है तो कोई कुछ विशेष की आराधना करता है परन्तु इन नियत उपायों में कोई परिवर्तन नहीं ला सकता है। इन उपायों के भिन्न-भिन्न पर्यायवाची अनेक शब्द प्रयोग होते हैं-कारण, हेतु, स्थानक आदि। ज्ञातासूत्र में कारण शब्द का ही प्रयोग हुआ है। परन्तु स्थानक शब्द अद्यावधि विशेष विश्रुत रहा है। साहित्य की दृष्टि से यह स्थानक शब्द जिनहर्षगणि के “विंशतिस्थानकचरितं" ग्रन्थ से अधिक प्रयोगबद्ध हुआ। वैसे स्थानक का अर्थ होता है "स्थानं करोतीति स्थानकः" जो स्थान करता है वह स्थानक