Book Title: Arihant
Author(s): Divyaprabhashreji
Publisher: Prakrit Bharati Academy

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Page 259
________________ . . . . .. . . . . . . . . . . . . . . . . . .. २२६ स्वरूप-दर्शन (८) महार्थत्व-थोड़े शब्दों में महान् अर्थ होना। (९) पूर्वापर अबाधित-पूर्वापर विरोध नहीं होना। (१०) शिष्टत्व-अभिमतसिद्धांत प्रतिपादन अथवा शिष्टता सूचक वचनों का उच्चारण करना। (११) असन्दिग्धता-स्पष्ट एवं निःसंदेह कथन। (१२) अदूषित-भाषा दोष रहित। (१३) हृदयग्राहित-कठिन विषय भी सरल होकर श्रोताओं के हृदय में उतर जाना। (१४) देशकालानुरूप-देश और काल के अनुरूप वचन एवं अर्थ कहना। .. (१५) तत्वानुरूपता-वस्तुस्वरूप के अनुकूल वचन। (१६) सार वचन-व्यर्थ के शब्दाडम्बर से रहित और उचित विस्तार युक्त। . (१७) अन्योन्यपग्रहीत-पद और वाक्यों का सापेक्ष होना। (१८) अभिजातत्व-भूमिका के अनुसार विषय और वाणी होना। : (१९) अति स्निग्ध मधुर-कोमल एवं मधुर वाणी, जो श्रोताओं के लिए सुखप्रद एवं रुचिकर हो। (२०) अपरमविधित-दूसरों के छुपाये हुए मर्म को प्रकट नहीं करने वाली। (२१) अर्थ धर्मोपेत-श्रुत-चारित्र धर्म और मोक्ष के अर्थ सहित वाणी। (२२) उदारत्व-शब्द और अर्थ की महानता युक्त। (२३) पर निन्दा एवं स्वात्म प्रशंसा से रहित। (२४) उपगत श्लाघत्व-खुशामद युक्त वचनों से रहित। (२५) अनपनीतत्व-कारक, काल, लिंग आदि के विपर्यय रूप दोषों से रहित। (२६) उत्पादितादि विच्छिन्न कुतूहलत्व-श्रोताओं में निरन्तर कुतूहल बनाये रखने वाली। (२७) अद्भुतत्व-अश्रुतपूर्व एवं विस्मयकारी। (२८) अनतिविलम्बितत्व-धाराप्रवाह रूप से बोलना। (२९) विभ्रमविक्षेप-किलिकिंचितादि विप्रयुक्तत्व-प्रतिपाद्य विषय में वक्ता में भ्रान्ति, अरुचि, रोष, भय आदि का नहीं होना। (३०) विचित्रत्व-वाणी में विषय की विविधता से विचित्रता होना। (३१) अहितविशेषत्व-अन्य वक्ताओं की अपेक्षा विशेषता-विशेष आकर्षण होना। (३२) साकारत्व-वर्ण, पद और वाक्यों का भिन्न-भिन्न होना।

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