Book Title: Arihant
Author(s): Divyaprabhashreji
Publisher: Prakrit Bharati Academy

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Page 276
________________ केवलज्ञान-कल्याणक २४३ . . . . . . . . वर्गणाएं पुरातन कार्मण वर्गणा के साथ घुल-मिलकर एक हो जाती हैं। सब कर्म वर्गणाओं की योग्यता भी अलग-अलग होती है। कुछ रूखी, कुछ चिकनी, कुछ मंद रसवाली तो कुछ तीव्र रसवाली होती हैं। कोई छूकर रह जाती है, कोई गाढ़ बंधनों से बंध जाती है। बंधन के तुरंत बाद वे फल देती हैं, ऐसा जरूरी नहीं। नियतकाल में परिपक्व होकर प्रभाव डालना निर्धारित होता है। टाईम बॉम्ब की तरह यह अपने निर्धारित समय में अपना प्रभाव डालकर सामर्थ्य बताती हैं। ___ कार्मण वर्गणाएं जीव द्रव्य के साथ अपना एकक्षेत्रावगाही सम्बन्ध स्थापित करती हैं। आकाश के जितने प्रदेश में जीव स्थित होता है उतने प्रदेश में कार्मण वर्गणाएं अपनी सूक्ष्म परिणमन शक्ति के बल पर स्थित हो जाती हैं। __सबसे महत्वपूर्ण बात तो यही है कि जीव और पुद्गल के संयोग की यह प्रक्रिया संयुक्त होकर भी पृथक-पृथक है। क्योंकि दोनों के अपने-अपने मौलिक गुण (Fundamental attributes) अलग-अलग हैं। अतः जीव की प्रक्रिया जीव में और पुद्गल की प्रक्रिया पुद्गल में ही पाई जाती है। एक की प्रक्रिया दूसरे में या दूसरे के द्वारा कभी संभव नहीं। जीव की प्रक्रिया जीव के द्वारा और पुद्गल की प्रक्रिया पुद्गल के द्वारा सम्पन्न होती है। - कभी भ्रांति, मिथ्यात्व या अज्ञान के द्वारा जीव पुद्गल की प्रक्रिया को स्वयं की और कभी स्वयं की प्रक्रिया को पुद्गल की मान लेता है। इस भ्रमपूर्ण मान्यता से आत्मा में आवेग और कम्पन पैदा होता है। ज्ञान के द्वारा इस भ्रांति से मुक्त होकर आत्मा अपने चैतन्य विकास का प्रारंभ कर सकता है। इसीलिए पुद्गल और जीव का सम्बन्ध अनादि सान्त माना जाता है। जिसकी आदि का पता नहीं परन्तु अंत अवश्य है। कार्मण वर्गणाओं से पूर्णरूपेण मुक्त हो जाना, जीव का मोक्ष कहलाता है। गणधर पद ... ' अरिहंत परमात्मा के प्रथम शिष्यों को गणधर कहा जाता है। इनकी अपनी भी कुछ असामान्य विशेषताएं हैं। परमात्मा द्वारा कथित त्रिपदी को ये बीजरूप में स्वीकार कर द्वादशांगी की रचना करते हैं। चूर्णिकार और चरित्रकर्ताओं के अनुसार परमात्मा से शिष्यत्व ग्रहण कर गणधर झुककर खड़े होते हैं तब परमात्मा “मैं तुम्हें तीर्थ की अनुज्ञा देता हूं" ऐसा कहकर स्वयं के करकमलों से उनके सिर पर सौगन्धिक रलचूर्ण डालते हैं। . गणधर का शाब्दिक अर्थ गण या श्रमण संघ को धारण करने वाला, गण का अधिपति, स्वामी या आचार्य होता है। आवश्यक वृत्ति में अनुत्तर ज्ञान, दर्शन आदि गुणों के मण-समूह को धारण करने वाले गणधर कहे गये हैं। आगम-वाङ्मय में ।

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