Book Title: Arihant
Author(s): Divyaprabhashreji
Publisher: Prakrit Bharati Academy

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Page 278
________________ केवलज्ञान-कल्याणक २४५ ........ अंतकृत्दशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण, विपाकश्रुत और दृष्टिवाद-इस प्रकार १२ अंग रचे और दृष्टिवाद के भीतर चौदह पूर्व भी रचे-उनके नाम इस प्रकार हैं-उत्पाद, आग्रयणीय, वीर्यप्रवाद, अस्तिनास्तिप्रवाद, ज्ञानप्रवाद, सत्यप्रवाद, आत्मप्रवाद, कर्मप्रवाद, प्रत्याख्यानप्रवाद, विद्याप्रवाद, कल्याण, प्राणवाय, क्रियाविशाल और लोकबिन्दुसार। गणधरों ने अंगों की रचना से पूर्व चौदह पूर्व रचे, इसलिये उन्हें पूर्व कहते हैं। कुछ लोगों की मान्यता इससे भिन्न है। इसी प्रकार विधिपूर्वक प्रत्येक गणधर द्वादशांगी की रचना करते हैं। सभी गणधरों की द्वादशांगी समान होती है। फिर भी आसन्नोपकारी वर्तमान शासन प्रणेता श्रमण भगवान महावीर स्वामी के ग्यारह गणधर की द्वादशांगियों में ग्यारह द्वादशांगी रची गईं, उसमें प्रथम सात गणधरों की सूत्र वाचना अन्यान्य भिन्न थी और अकंपित एवं अचलभ्राता की तथा श्री मेतार्य एवं श्री प्रभास की सूत्र वाचना समान थी। अतः शाब्दिक ऐक्यता के कारण द्वादशांगी ग्यारह होने पर भी गण नौ ही बने। जैन परम्परा के आगम और आगमेतर साहित्य में विश्ववंद्य, त्रैलोक्यश्रेष्ठ तीर्थंकर-पद के पश्चात् गणधर-पद को ही श्रेष्ठ माना गया है। जिस प्रकार कोई विशिष्ट साधक, अत्युच्च कोटि की साधना के द्वारा त्रैलोक्यपूज्य तीर्थंकर नामगोत्र का उपार्जन करता है, उसी प्रकार गणधर-पद को प्राप्त करने के लिये भी साधक को उच्चकोटि की साधना करनी पड़ती है। यद्यपि तीर्थकर नामगोत्र के उपार्जन के लिए नियुक्त स्थान या कारणों का स्पष्ट उल्लेख है कि अमुक १६ या २० स्थानों में से किसी एक अथवा एक से अधिक स्थानों की उत्कृष्ट साधना करने से साधक तीर्थंकर . नामकर्म का उपार्जन करता है। इस तरह गणधर नाम-कर्म की उपार्जना का कोई . उल्लेख आगम साहित्य में उपलब्ध नहीं होता है। आवश्यक मलयगिरि वृत्ति में इस प्रकार का उल्लेख अवश्य उपलब्ध है कि भरत चक्रवर्ती का ऋषभसेन नामक पुत्र, • जिसने कि पूर्व भव में गणधर नामगोत्र का उपार्जन किया था। भद्रेश्वर ने ईसा की ग्यारहवीं शती में रचित अपने प्राकृत भाषा के "कहावली' नामक बृहद् ग्रन्थ में भी भगवान् ऋषभदेव के गणधर ऋषभसेन के प्रव्रजित होने का उल्लेख करते हुए स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि उन्होंने अपने पूर्वभव में गणधर नाम-गोत्र कर्म का उपार्जन किया था। इस सम्बन्ध में कहावलीकार भद्रेश्वर द्वारा उल्लेखित पंक्तियाँ इस प्रकार हैं “सामिणो य समोसरणे ससुरासुरमणुवसभाए धम्म साहिन्स्सोसभसेणोनाम भरहपुत्तो पुव्वभवनिबद्धगणहरनामगो जायसंवेगो पव्वइओ।" यहां "पुव्वभवनिबद्ध गणहरनामगो" का विशेषण गणधर पद विशेष का सूचक है।

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