Book Title: Arihant
Author(s): Divyaprabhashreji
Publisher: Prakrit Bharati Academy

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Page 290
________________ ........................................... निर्वाण-कल्याणक २५७ - यहां वह द्रव्यमन तो समाप्त हो गया है परंतु चित्त के नहीं होने पर भी जीव के उपयोग परिणाम (भावमन) के उपस्थित होने से केवली भगवान् के लिए सूक्ष्म क्रिया एवं व्युच्छिन्न क्रिया ध्यान रूप कहलाती हैं। जिस समय काययोग का निरोध किया जाता है उस समय सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त आत्म प्रदेश देह के तृतीय भाग को छोड़कर २/३ भाग में व्याप्त रहते हैं, क्योंकि जिस समय काययोग के निरोध का आत्मप्रयल होता है उस समय देह के रिक्त भाग में जाकर रिक्तता के चारों ओर वे प्रदेश परस्पर अखण्ड एवं संलग्न होते जाते हैं, अतः अंत में वे देह के २/३ भाग में संकुचित हो जाते हैं शेष देहभाग सर्वथा आत्म-प्रदेशों से रहित हो जाता है। सूक्ष्म अपर्याप्त निगोद जीव जन्म के प्रथम समय में कम से कम काययोग वाले होते हैं उससे भी असंख्यात गुणहीन काययोग का निरोध असंख्य समय व्यतीत होने पर किया जाता है। इस प्रकार आत्मप्रदेश के संकोच के साथ असंख्य समय में काययोग का सर्वथा निरोध हो जाता है। समस्त योगों का निरोध हो जाने पर अरिहंत परमात्मा अयोगि अवस्था को प्राप्त होते हैं, उस अवस्था को प्राप्त हो जाने के बाद पांच ह्रस्व अक्षर के उच्चारण काल प्रमाण समय में अर्थात् असंख्यात समय के अंतर्मुहर्त जैसे काल में वे मेरु की तरह स्थिर होकर शैलेशी अवस्था को प्राप्त करते हैं। अतः इस समय वे स्थिर निश्चल आत्मप्रदेश वाले होकर "व्युच्छिन्नक्रिया अप्रतिपाति" नामक चतुर्थ परम शुक्लध्यान को • प्राप्त करते हैं। .. . इस अवस्था के अलग नाम और व्याख्यायें इस प्रकार हैं १. शिला याने पाषाण, शिला का बना हुआ शैल अर्थात् पर्वत उसका ईश वह शैलेश अर्थात् “मेरु" इस अवस्था के समय आत्मा में मेरुवत् निश्चलता आती है, आत्म-प्रदेश निष्कंप होते हैं, वही शैलेश। इस प्रकार पहले अशैलेश आत्मप्रदेश अब शैलेश जैसे अर्थात् शैलेशी होते हैं। आत्म प्रदेश के शैलेश होने से आत्मा की अवस्था शैलेशी हो जाती है। २. “काय"-जोगनिरोहो सेलेसी भावणामेइ" अर्थात् योगनिरोध करने वाला "से" अर्थात् वह अलेशीभावना को प्राप्त करता है। “अलेशी" अर्थात् लेश्या रहित। १३वें गुणस्थान तक लेश्या होती है। क्योंकि लेश्या का योगान्तर्गत पुद्गलों के साथ सम्बन्ध है और योग १३वें गुणस्थान तक ही विद्यमान हैं फिर १४वें गुणस्थान में शैलेशी अवस्था होने से योग नहीं है तथा लेश्या भी नहीं है। अतः वह आत्मा अलेशी अर्थात् प्राकृत भाषानुसार “अलेसी" होती है। १. ध्यान शतक-गा. ८४, ८६

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