Book Title: Arihant
Author(s): Divyaprabhashreji
Publisher: Prakrit Bharati Academy

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Page 288
________________ || निर्वाण-कल्याणक | निर्वाण अरिहंत परमात्मा का निर्वाण समय जानकर तत्काल ही देवेन्द्र अंतिम समवसरण की रचना करते हैं, उसमें बिराजकर परमात्मा अंतिम धर्म देशना देते हैं। यह अंतिम धर्म देशना केवलोत्पत्ति के बाद की जाने वाली प्रथम धर्म देशना की भांति अत्यंत विस्तृत होती है। ऐसी धर्मदेशना यथासमय सम्पन्न कर परमात्मा (पर्वत के किसी विशेष शिखर पर आरूढ़ होते हैं) अपने ज्ञान से दृष्ट देहत्याग की जगह चले जाते हैं, वह जगह पर्वत, सभागार या निर्जन स्थान आदि होते हैं। इस समय स्वयं का अंतिम अवसर जानकर कितने ही गणधर एवं श्रमण-समुदाय भी बहुधा अनशनार्थ परमात्मा के साथ प्रस्थित होते हैं। अपने परिवार सहित तीर्थंकर भगवान मोक्षरूपी महल की सीढ़ी के समान उस पर्वत-शिखरं पर आरूढ़ होकर पादपोपगमन (पादप-वृक्ष, उपगमन प्राप्त करना) अर्थात् वृक्ष की तरह स्थिर रहकर अनशन करते हैं। पर्यंक-कायोत्सर्ग आदि विविध आसनों में बादर काययोग में अवस्थित परमात्मा सर्व प्रथम बादर (स्थूल) मनयोग एवं बादर (स्थूल) वचन योग का रूंधन करते हैं। फिर सूक्ष्म काय योग का आश्रय कर श्वास प्रश्वास रोक कर बादर (स्थूल) काय योग का रुंधन करते हैं। फिर सूक्ष्म काययोग में रहकर सूक्ष्म मनोयोग तथा सूक्ष्म वचनयोग . का रुंधन करते हैं। इस प्रक्रिया को योग निरोध अथवा योग रुंधन भी कहते हैं। योग निरोध की प्रक्रिया परम पद मोक्ष प्राप्ति में जब अन्तर्मुहूर्त का समय कम रहे तब योगनिरोध किया -जाता है। भवोपग्राही अर्थात् भव का उपग्रह करने वाले (पकड़ने वाले) जो अघाती (वेदनीय-आयुष्य-नाम-गोत्र) कर्म हैं वे जब समुद्घात द्वारा या स्वाभाविक समस्थिति में आते हैं तब योगनिरोध किया जाता है। योगनिरोध में सर्वप्रथम मनोयोग का उसके बाद वचनयोग का और तदनन्तर काययोग का निरोध किया जाता है। मनोयोगनिरोध __ औदारिक-वैक्रिय और आहारक शरीर के व्यापार से ग्रहण किये जाने वाले मनोद्रव्य की सहायता से होने वाले जीव व्यापार अर्थात् स्फुट वीर्यात्मक आत्मपरिणाम को मनोयोग कहा जाता है।

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