Book Title: Arihant
Author(s): Divyaprabhashreji
Publisher: Prakrit Bharati Academy

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Page 272
________________ केवलज्ञान-कल्याणक २३९ ... परमाणु सैज (सकम्प) भी होता है और अनेज (अकम्प) भी। कदाचित् वह चंचल होता है, कदाचित् नहीं। उनमें न तो निरन्तर कम्प-भाव रहता है और न निरन्तर • अकम्प-भाव भी। ___पुद्गल के १० लक्षण हैं- वर्ण, रस, गंध और स्पर्श, शब्द, अंधकार, उद्योत, प्रभा, छाया और आतप। पुद्गल के २० गुण हैंस्पर्श - शीत, उष्ण, रूक्ष, स्निग्ध, लघु, गुरु, मृदु और कर्कश। रस - आम्ल, मधुर, कटु, कषाय और तिक्त। गन्ध - - सुगन्ध और दुर्गन्ध। वर्ण. - कृष्ण, नील, रक्त, पीत और श्वेत। ये बीस पुद्गल के गुण हैं। यद्यपि संस्थान-परिमंडल, वृत्त, त्र्यंश, चतुरंश आदि पुद्गल में ही होता है, फिर भी उसका गुण नहीं है। - यह पुद्गल कर्म के साथ सम्बद्ध होते हैं। जीव और पुद्गल का यह सम्बन्ध ही संसार है। इसी को विश्वव्यवस्था के माध्यम से देखने पर चेतना का लक्षण, अनादि संक्रमण और आत्मविकास की प्रक्रिया को समझना आसान होता है। जीव और पुद्गल के संयोग से जो विविधता है उसका नाम ही विश्व है। इस संयोग से अवस्था और परिवर्तन का निर्माण होता है। इसीलिए कहा है कि यह विश्व परिवर्तनशील है। परिवर्तन का उपादान स्वयं द्रव्य है परंतु उसका निमित्त काल है। जीव के निमित्त से पुद्गल में और पुद्गल के निमित्त से जीव में जो परिवर्तन होता है उसे विभाव परिवर्तन या वैभाविक दशा कहते हैं। इन पुद्गलों को आकर्षित • करने का काम योग करता है और इसे पुष्ट करने का काम आम्नव, बंध, पुण्य और पाप करते हैं। आत्मा के साथ विजातीय तत्त्व का एकरूप हो जाना बंध है। बंध शुभ और अशुभ दोनों तरह का होता है। शुभ पुद्गल बंध पुण्य है और अशुभ पुद्गल बंध • पाप है। विजातीय तत्व रूप पुद्गलों के स्वीकरण का हेतु आम्रव है। इस प्रकार आम्रव से बंध होता है। अतः मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग यह बंध के हेतुभूत हैं। ___ आत्मा की विशुद्ध दशा स्वाभाविक है। जिसकी प्रतिपत्ति रूप संवर और निर्जरा तत्त्व है। संवर के द्वारा विजातीय कर्म पुद्गल का आत्मा के साथ संश्लेष होना छूट जाता है। निर्जरा द्वारा पूर्व सम्बन्धित विजातीय तत्त्वों का आत्मा से विश्लेष हो जाता है। विजातीय तत्त्व का आंशिक रूप से अलग होना निर्जरा है और सर्वथा अलग होना मोक्ष है। १. भगवती सूत्र श. ५, उद्दे. ७, सू. १ ।

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