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७६ सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम पूर्ण कर प्रथम की तीन नरक में अथवा वैमानिक देव में उत्पन्न होते हैं और वहाँ भी तीर्थकरनामकर्म बाँधते हैं अतः दलिक प्राप्त होते हैं। जिन नामकर्म का सतत बंधकाल उत्कृष्ट तैंतीस सागरोपम प्रमाण अनुत्तर विमान वासी देवों के आश्रित है-ऐसा । शतककर्मग्रन्थ में कहा है। अतः कार्मग्रंथिकों ने तीन गति में तीर्थंकरनाम का बंध कहा है परन्तु प्रथम तो मनुष्य ही उसके बंध का प्रारम्भ करता है इसी कारण आवश्यक नियुक्ति में “नियमा मणुअगइए"१ ऐसा कहा है। नरक में और देवगति में सामान्यतः इसका बंध होता है। निकाचितबंध तो मनुष्यगति में ही होता है ऐसा आशय आवश्यक नियुक्ति के “नियमा मणुअगइए" कथन के अनुसार मानना चाहिए।" ___ पंचेन्द्रिय पर्याय का काल कुछ अधिक एक हजार सागर और त्रसकाय का काल कुछ अधिक दो हजार सागर बतलाया है। इससे अधिक समय तक न कोई जीव लगातार पंचेन्द्रिय पर्याय में जन्म ले सकता है और न लगातार त्रस ही हो सकता है। अतः अन्तः कोटाकोटि सागर प्रमाण स्थिति का बन्ध करके जीव इतने काल को केवल नारक, मनुष्य और देव पर्याय में ही पूरा नहीं कर सकता। अतः प्रश्न हो सकता है कि यदि तीर्थंकर नाम कर्म की जघन्य स्थिति भी अन्तःकोटाकोटि सागर है तो तीर्थंकर प्रकृति की सत्ता वाला जीव तिर्यंचगति में भ्रमण किये बिना नहीं रह सकता, क्योंकि तिर्यंचगति में भ्रमण किये बिना इतनी लम्बी स्थिति पूर्ण नहीं हो सकती। किन्तु तिर्यंचगति में जीवों के तीर्थंकरनाम कर्म की सत्ता का निषेध किया है, अतः इतना काल कहाँ पूर्ण करेगा। अतः तीर्थंकर के भव से पूर्व तीसरे भव में तीर्थंकर प्रकृति का बंध होना बतलाया है। अन्तः कोटाकोटि सागर की स्थिति में यह भी कैसे बन सकता
___इसका समाधान इस प्रकार है-तीर्थकरनाम कर्म की उत्कृष्ट स्थिति अन्तः कोटाकोटि सागर प्रमाण है। यह स्थिति अनिकाचित तीर्थंकर नामकर्म की है। निकाचित तीर्थंकर नामकर्म तो अन्तःकोटाकोटि सागर के संख्यातवें भाग से लेकर कुछ कम दो पूर्व कोटि अधिक तैंतीस सागर है। तिर्यंचगति में जो तीर्थकरनाम कर्म की सत्ता का निषेध किया है वह निकाचित तीर्थंकर नामकर्म की अपेक्षा से किया है। अर्थात् जो तीर्थंकर नामकर्म अवश्य अनुभव में आता है, उसी का तिर्यंचगति में अभाव बतलाया है। किन्तु जिसमें उद्वर्तन और अपवर्तन हो सकता है उस तीर्थंकर प्रकृति के अस्तित्व का निषेध तिर्यंचगति में नहीं किया है। जिसमें उद्वर्तन और अपवर्तन हो सकता है उस अनिकाचित तीर्थंकर नामकर्म के तिर्यंचगति में रहने पर कोई दोष नहीं है। श्री
१. आवश्यक नियुक्ति-गा..१८४. २. आवश्यक नियुक्ति-गा. १८४, प्र. १९२. ३. पंचसंग्रह-गाथा-८०.