Book Title: Arihant
Author(s): Divyaprabhashreji
Publisher: Prakrit Bharati Academy

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Page 232
________________ केवलज्ञान-कल्याणक १९९ ...................................................... ऊँचाई तीर्थंकरों की ऊँचाई के योग्य हुआ करती हैं। अरिहंत परमात्मा उन सिंहासनों के ऊपर आकाश-मार्ग में चार अंगुल के अन्तराल से स्थित रहते हैं। भरतेश-वैभव में कहा है-सबसे ऊपर के पीठ पर उनके रत्नों के द्वारा कीलित चार सिंह होते हैं। उन सिंहों के ऊपर हजार दल वाला एक सुवर्ण कमल होता है। उस पद्मकर्णिका से ४ अंगुल स्थान को छोड़कर उस कमल का स्पर्श न करते हुए अरिहंत प्रभु पद्मासन में विराजित होते हैं। बारह प्रकार की पर्षदा प्रभु के सिंहासन पर विराजने पर श्रोताओं के बैठने की विशेष व्यवस्था समवसरण की विशिष्टता है। प्रथम ज्येष्ठ गणधर अथवा दूसरे गणधर (सबसे बड़े सबसे पहले होते हैं वे न हों तो उनसे छोटे इस प्रकार क्रम समझना) अरिहंत प्रभु को प्रणाम कर अग्निकोण में प्रभु के पास बैठते हैं, उनके पीछे अन्य गणधर बैठते हैं। तत्पश्चात् केवलज्ञानी जिनेश्वर को तीन प्रदक्षिणा देकर नमस्कार करके अनुक्रम से बैठे हुए गणधरों के पीछे बैठते हैं। केवली भगवान केवलज्ञानवान होने पर भी गणधरों की पदस्थ स्थिति का गौरव संभालते हैं। केवलज्ञानी कृतकृत्य होने से और उनका कल्प होने से वे जिनेश्वर को नमन नहीं करते हैं परंतु अरिहंत से नमस्कृत ऐसे तीर्थ को नमन करते हैं। केवलज्ञानी के पीछे मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी चौदहपूर्वी आदि बैठते हैं। उनके पीछे अतिशय वाले साधु बैठते हैं। उनके पीछे अन्य मुनिवृन्द बैठते हैं। वे सर्व अरिहंत, तीर्थ, गणधर और केवलियों को और अरिहंतादिक को नमस्कार कर बैठते हैं। उनके पीछे वैमानिक . देवी अरिहंतादिक को नमस्कार कर खड़ी रहती हैं, उनके पीछे साध्वियों खड़ी रहती हैं। इस प्रकार की पर्षदाएँ पूर्वद्वार से समवसरण में प्रवेश कर अरिहंतादिक को तीन प्रदक्षिणा देकर अग्निकोण में स्थित होती हैं। ' भवनपति, वाणव्यंतर एवं ज्योतिषी देवियाँ दक्षिण द्वार से प्रवेश कर नैऋत्यकोण में बैठती हैं। बैठने का यह विधान नियुक्तिकार ने बतलाया है। हेमचन्द्राचार्य ने खड़ी रहती हैं ऐसा कहा है। भवनपति, व्यंतर और ज्योतिष्क देव पश्चिम दिशा से प्रवेश कर वायव्य कोण में बैठते हैं। इन्द्रसहित वैमानिक देव, राजन् पुरुष एवं स्त्रियाँ उत्तर द्वार से प्रवेश कर ईशान कोण में बैठते हैं। इस प्रकार प्रत्येक दिशा में तीन-तीन संनिविष्ट होते हैं। अल्पऋद्धिवाले देव महर्द्धिक देवों को प्रणाम कर स्व-स्थान पर बैठ जाते हैं। यहाँ एक दूसरे से मत्सरभाव नहीं होता है। उपरोक्त विवरण में एक नया सन्दर्भ मिलता है, वह यह कि साधु उत्कटिकासन में बैठकर, देवियाँ तथा साध्वियाँ खड़ी रहकर और अन्य सर्व पर्षदाएँ सूर्य समान परमात्मा की देशना बैठकर ही श्रवण करती हैं।' १. काललोक प्रकाश-सर्ग-३०, श्लो. ९४०-९४१, पृ. ३०७ ।

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