Book Title: Arihant
Author(s): Divyaprabhashreji
Publisher: Prakrit Bharati Academy

View full book text
Previous | Next

Page 230
________________ केवलज्ञान-कल्याणक १९७ के समय देवों के समस्त अध्यवसाय भक्ति से आपूरित होते हैं। अतः ऐसे कमल अन्य समय संभव भी नहीं हो सकते हैं। जब ये देव निर्मित ही हैं तो ये परमात्मा की उपस्थिति के अतिरिक्त काल में क्यों नहीं बन सकते हैं ? इसके उत्तर में शीलांकाचार्य कहते हैं-"तओ तप्पहावुप्पण्णकणयकमल-ये पद्म परमात्मा के प्रभाव से ही उत्पन्न होते हैं।" अतिरिक्त काल में ये संभव नहीं हो सकते हैं। नवतत्वों के प्रतीक समान ये दिव्य सुवर्ण कमल एक हजार पंखुड़ियों वाले होते हैं। अन्य सुवर्ण-वस्तुओं की भाँति ये स्पर्श में कठोर न होकर नवनीत समान मृदु होते हैं। इन सुवर्ण कमलों पर सुशोभित परमात्मा के कर्म निवारक चरण कमल का वर्णन करते हुए भक्तामर स्तोत्र में कहा है__“विकस्वर ऐसे सुवर्ण के नवीन कमलों के पुंज जैसी कान्तिवाले और सर्वतः पर्युल्लास करती हुई नाखूनों की किरणों की शिखाओं द्वारा मनोहर ऐसे परमात्मा जहाँ चरण रखते हैं वहाँ देववृन्द सुवर्ण के नवकमलों की परिकल्पना (विरचना) करते हैं।" भक्तामर की यह गाथा मंत्र-पदों से गर्मित है। उनकी विधि पूर्वक आराधना करने से सुवर्ण आदि धातुओं के व्यापार में अत्यन्त लाभ होता है, राज्य सन्मान मिलता है और उनका वचन आदेय माना जाता है ऐसी परंपरा प्रचलित है। प्रदक्षिणा एवं नमन समवसरण में आकर चैत्यवृक्ष या सिंहासन को तीन प्रदक्षिणा करते हैं। जीताचार से अरिहंत प्रभु प्रदक्षिणा करते हैं-ऐसा पाठ नियुक्ति का है, पर यहाँ प्रदक्षिणा किसको दी जाती है इस बारे में कुछ भी नहीं लिखा है। चूर्णिकार इसी गाथा की चूर्णि में "चेतियरुक्खं आदाहिणं" यह प्रदक्षिणा चैत्यवृक्ष को की जाती है, ऐसा कहते हैं। परन्तु कुछ चरित्रकर्ता चैत्यवृक्ष को प्रदक्षिणा करने का कहते हैं और कुछ चरित्रकर्ता सिंहासन को प्रदक्षिणा करने का कहते हैं। चाहे चैत्यवृक्ष को प्रदक्षिणा करने का कहें चाहे सिंहासन को अर्थ एक ही है। क्योंकि अशोकवृक्ष के ऊपर चैत्यवृक्ष होता है और चैत्यवृक्ष को ही चार सिंहासन लगे हुए होते हैं। प्रस्तुत प्रक्रिया का महत्व दर्शाते हुए मल्लिनाथ चरित्र में ऐसा कहा है कि“विदधेऽवश्यकार्याणि जिना अपि वितन्वते" अवश्य करने का कार्य तो जिनेश्वर भी करते हैं। ___ एक समाधान यह भी है कि वृक्ष प्रदूषण को हटाने वाला और शुद्ध वायु के द्वारा वातावरण को विशुद्ध एवं विस्तृत करने वाला माना जाता है। बाहर से आते हुए जीवों को दूर से पहले इसी के दर्शन होते हैं। इसे प्रदक्षिणा देने से प्रभु की देह रश्मियाँ वृत्ताकार होकर विस्तृत हो जाती हैं। अल्फा कणों का विस्तार होता है। आनंद एवं प्रसन्नता का प्रसार होता है। पूरे वातावरण में मधुरता छा जाती है। "मैं ऐसा करूँ

Loading...

Page Navigation
1 ... 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310