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६४ सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम सोचता है "वह (द्वेषी) सामने आवे तब उसे पता चलेगा ऐसा फटकारूँगा कि बस..... ऐसा सोचकर वह उसे डाँटता है, फटकारता है इतना अधिक कि कदाचित वह व्यक्ति सामने आवे तो वह इतना कुछ भी नहीं कर सकता। कभी द्वेष भाव से व्यक्ति जिसकी आकृति भी देखना नहीं चाहता या पसंद करता, मजे की बात यह है कि कई बार भावों के द्वारा वह अपनी चेतना में ही उसे आकार देता है, उसे दंड देता है। __वास्तव में देखा जाय तो वह रागी या द्वेषी भी उस वक्त हमारी अपनी पर्याय है। वास्तविक रागी या द्वेषी को कुछ भी संवेदन नहीं है परंतु संवेदनशील अबाध्य अनुभव वाली आत्मा ने एक साथ दोनों अनुभव किये। एक राग करने का और रागी के संतोष . का तथा दूसरा द्वेष करने का और द्वेषी के दुःखी होने का। इसीलिये परमात्मा महावीर . ने कहा-'बंधप्पमोक्ख तुज्झ अज्झत्थमेव।' बंध और मोक्ष तुम में ही है। इसे ही पर्याय (forms) कहते हैं। पर्यायें निरंतर परिवर्तनशील हैं। वस्तुतः हमें राग में तो राग है ही, परंतु द्वेष में भी हमें राग है। हम द्वेष को भी छोड़ नहीं सकते हैं। इसी कारण वीतरागी होना कहा-वीतद्वेषी नहीं। क्योंकि द्वेष से भी हमारा राग है अन्यथा हमें द्वेष से द्वेष होता। यदि ऐसा हो तो द्वेष हट जाय, वह कभी भी भावों में उभरेगा नहीं और न ही .. चेतना में आकार लेवेगा।
अब आप प्रसन्नचंद्र राजर्षि को याद करो। ऊपर की सारी बातें यहाँ घटित हो जायेंगी। पर्यायों का घनत्व मूल द्रव्य के साथ कैसा खिलवाड़ करता है! भावों का सामर्थ्य चौदह राजु लोक में सर्वत्र विचरने का है। कहीं से भी परमाणुओं को ग्रहण कर घन बनाता है, चेतना के पास लाता है। चेतना उसका आकार ग्रहण कर योगों से जुट जाती है, कषाय से अनुबन्ध कर वह कर्मबन्ध कर लेती है। ___आकार को ग्रहण करते समय चेतना आत्मप्रदेशों का सहारा लेने उसे बाहर विस्तारती है। उस समय आत्मप्रदेश बाहर निकलकर पदार्थ के साथ अपना संबंध स्थापित करते हैं, इसे आगम में समुद्घात कहा है। पदार्थ हो या न हो आत्मप्रदेश बाहर निकल कर चेतनाजनित आकार के साथ निजत्व स्थापित कर ही लेता है। उदाहरणतः देखें-मनुष्य में स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद का वेदन होना कहा है। अब सोचें-तीनों वेद कैसे संभव हो सकते हैं ? एक व्यक्ति अकेला ही किसी संभोगजन्य स्त्री-पुरुष का चित्र देखता है। उस आकृति को चेतना ग्रहण करती है, तज्जन्य अनुभूति में वह खो जाता है, बिना भोग के भी वह स्त्री-पुरुष दोनों जनित संवेदनाओं को उभारता है तब बाहर से (external) वह किसी एक पर्याय से भले संबन्धित हो परंतु भीतर में वह अपने से अलग दोनों पर्यायों को वेदने का प्रयास करता है। कायिक वेदन नहीं है फिर भी तीनों वेदों का वेदन यहाँ संभव हो जाता है। ___अब हम देखें कि अंरिहंत का ध्यान हमें कैसे इन सब से मुक्त करा सकता है। अरिहंत भी हमारे लिये प्रत्यक्ष न होने से external object ही हैं। इसे हमें inner बनाने हैं। इसे चाहे कल्पना कहो, मुझे कोई एतराज नहीं। आप कल्पना ही 'करें-एक