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आराधक से आराध्य ७३
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उपशमसहित विरक्त दशा में काल व्यतीत करते हैं। एक ओर नरक की भयंकर वेदना हो और दूसरी ओर परमाधामी देवों द्वारा संताप हो, फिर भी उन पर अमैत्री भाव या कषाय भाव न लाकर सर्व प्रकार की दर्भावना से रहित रहते हैं। स्वयं के ही कर्मों का फल है ऐसा समझकर उन्हें शांत भाव से सहते हैं। नरक की अपार, अकथ्य, असह्य वेदना में भी आत्म-जागृति, अपूर्व समाधिभाव यही इनकी सर्वोपरि, सर्वश्रेष्ठ महानता एवं विशिष्टता है।
देवलोक में जाने वाले तीर्थकर के जीव को भी वहाँ भोगविलास के अपार साधन और वातावरण प्राप्त होने पर भी उन्हें उसमें कोई आन्तरिक आनंद उपलब्ध नहीं होता है। इन्हें तो वे चैतन्य-पुद्गल के खेल और पुण्य की लीला समझकर स्वयं अनासक्त भाव में रहते हैं।
- आत्मा और परमात्मा में भेद केवल कर्म-आवरण का है। कर्म-आवरण, विभाव-परिणति कर्मोदय से अनुप्राणित है। विभाव रूप विकारी भाव मिट जाने पर आत्मा परमात्मा बन जाता है। स्वभाव से आत्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं है, अन्तर केवल विभावजनित ही है। ज्यों-ज्यों विभाव और तत्जन्य. कर्मावरण में कमी आती है, त्यों-त्यों आत्मा में हलकापन आता है और वह उन्नत होती जाती है।
शुभकर्मों की ४२ प्रकृतियों में तीर्थंकर प्रकृति सर्वोत्तम है। जो आत्मा इस सर्वोत्कृष्ट पुण्य-प्रकृति को बाँधकर दृढ़ीभूत (निकाचित) कर लेता है वह अवश्य ही परमात्मपद प्राप्त करता है।
सम्यग्दृष्टि भव्यात्मा ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप रत्नत्रय की आराधना द्वारा प्रयत्नशील होते होते, तीर्थंकर नामकर्म की सर्वोत्तम पुण्यप्रकृति के दलिक इकट्ठे करते रहते हैं। यदि साधना चलती रहे और इस प्रकार के दलिकों का संग्रह होता रहे, तो कालान्तर में, भावों की परम उत्कृष्टता में तीर्थंकर नाम कर्म निकाचित (दृढ़ीभूत, अवश्य फल देने वाला) बंध जाता है। इस प्रकार की उत्तम सामग्री मनुष्य को ही प्राप्त हो सकती है
और. वह भी उसी मनुष्य को जो अरिहंत भगवंत को, उनके स्वरूप को यथार्थ रूप में जानता है, मानता है और उनका आदर-सम्मान करता है। फिर भले ही वह श्रावक हो या श्राविका, साधु हो या साध्वी। जो सम्यक्त्वी मनुष्य अरिहंतों के प्रति अनन्य भक्ति रखता हो, वह भावों की उत्कृष्टता से तीर्थंकर नामकर्म बाँधता है। मनुष्य के अतिरिक्त अन्य किसी गति में, तथा मिथ्यात्व के सद्भाव में, तीर्थंकर नामकर्म निकाचित नहीं होता। - यदि जीव स्वतः चरम शरीरी हो, तो उसे सभी प्रकार की अनुकूलता प्राप्त हो सकती है और वह अधिकाधिक निर्जरा करता रहता है। वह आयु-कर्म का बन्ध होने योग्य परिणति नहीं होने देता और समस्त कर्मों का क्षय करके मुक्त ही हो जाता है। किन्तु जो आत्मा चरम शरीरी न हो, जिसके पुनर्भव का बन्ध हो चुका हो या होने