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सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम
प्रलोभक ऐसे मोह और अज्ञान के मृगपाश में जीवों को फँसाने वाला कर्मसत्ता रूप शिकारी जीवों का कैसे बेहाल करता है। नरक निगोद तक के प्रचंड दुःख देकर चतुर्गतिरूप संसार में भटकाता है। मैं कब इतना समर्थ बनूँ और कब इन दुखी जीवों को कर्म की कुटिल, कराल वेदनामयी जालों से उन्मुक्त करूँ। कब मुझे ऐसा सामर्थ्य प्राप्त हो कि मैं संसार के समस्त जीवों को मोक्षमार्ग का पथिक बना सकूँ।" ऐसी उत्कृष्ट सद्भावना से भरी भावदया के बल पर वे महात्मा-पुण्यात्मा तीर्थंकर नामकर्म जैसी महान और उत्तम पुण्य प्रकृति की निकाचना करते हैं। ऐसी उत्तम भावना के बिना. ऐसी प्रकृष्ट पुण्यशाली, अप्रतिम प्रभावशाली, महान सौभाग्यशाली और अत्यन्त वैभवशाली तीर्थंकर प्रकृति की उपलब्धि असंभव है। ३. तीर्थकरत्व एवं तीर्थंकर नामकर्म
परमात्मतत्व अर्थात् वीतरागत्व-सर्वज्ञत्व। मोहनीय और अन्य घातिकर्मों के क्षय के. प्रभाव से आत्मा की अशुद्धियों और आवरणों के हट जाने से, रागादि के टूट जाने से वीतरागता आती है। ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय से अज्ञानता टलती है और सर्वज्ञतां आती है, परन्तु तीर्थकरत्व तो विशिष्ट कोटि की पुण्य प्रकृति-शुभप्रकृति के उदय में आता है; क्योंकि तीर्थंकरत्व के लिए सर्वश्रेष्ठ यश, सर्वश्रेष्ठ वचन, आदेयता, रूप, स्वर, सौभाग्य आदि असाधारण अनुकूलताएँ स्वाभाविक होती हैं। तीर्थंकर महाप्रभु के सौभाग्यादि से मनुष्य, तिर्यंचादि भी आकर्षित हो जाते हैं। तीर्थंकर की वचन शक्ति के कारण उनका प्रवचन सभी जीव अपनी अपनी भाषा में समझ लेते हैं। इसकी (तीर्थंकरत्व की) उपलब्धि में मुख्यतः तीन साधनाएँ सहायक होती हैं- (१) अविहड निर्मल सम्यक्त्व, (२) बीस स्थानक और (३) विशिष्ट विश्वदया। .
तीर्थंकरत्व उपार्जन-निकाचन के समय सम्यक्त्व, साधुत्व या श्रावकत्व अनिवार्य है। इन तीन में से चाहे कोई भी किसी स्थिति में हो, उन्हें तीर्थंकरत्व संभव हो सकता है। भगवान ऋषभदेव और श्री पार्श्वनाथ स्वामी ने पूर्व के तीसरे भव में चक्रवर्तित्व की समृद्धि एवं सुखशीलता का त्यागकर सर्वविरति रूप चारित्र एवं पवित्र साधुत्व स्वीकार कर प्रबल साधना की थी एवं तीर्थंकरत्व का पुण्य उपार्जित किया था। श्रमण भगवान महावीर ने भी राज्य का त्याग कर मुनित्व अंगीकार कर एक-एक लाख वर्ष तक मासक्षमण के पारणे पर पुनः मासक्षमण का क्रमबद्ध तप की आराधना द्वारा तीर्थंकर नामगोत्र उपार्जित किया। सम्राट श्रेणिक ने मात्र सम्यक्त्व का स्पर्श कर और सुलसादि ने श्रावक धर्म का पालन कर तीर्थंकर नामकर्म का निकाचन किया।
इस प्रकार के पुण्य उपार्जित कर पूर्व का तीसरा भव पूर्ण होते ही ये आत्माएँ वैमानिक देवलोक में देवरूप उत्पन्न होती हैं, परन्तु जो तीर्थकरत्व निकाचन के पूर्व नरकगति का आयुष्य बाँध चुके होते हैं वे भव पूर्ण कर नरकगति में जाते हैं। नरक में भी वे तीसरी नरक तक ही जाते हैं, आगे नहीं। वहाँ आत्माएँ तत्वदृष्टि और