Book Title: Apbhramsa Pandulipi Chayanika Author(s): Kamalchand Sogani Publisher: Apbhramsa Sahitya AcademyPage 97
________________ किं करणियरें मारिएण। किर काई वराएं दंडिएण। सीमंतिणिसत्थें रंडिएण। दोह मि केरा मज्झत्थ होवि। आउह मेल्लेवि खमभाउ लेवि॥ घत्ता॥ अवलोएंतु धराहिवइ। एत्तिउ किज्जइ सुटु सुजुत्तउ। तुम्हहो दोहि मि होउ रणु। तिविहु धम्मणाएण णिउत्तउ॥ ९॥ पहिलउ अवरुप्परु दिट्ठि धरह। मा पत्तलयत्तणुचलणु करह । वीयउ हंसावलिमाणिएण। अवरुप्परु सिंचहु पाणिएण । तयउ पुणु णहि जोयंतु देव। करु करे घिवंतु सुरदंति जेम। जुज्झह विण्णि वि णिवमल्ल ताव। एक्केण तुलेजइ एक्कु जाव। अवरोप्परु जिणेवि परक्कमेण। अणुहुंजहु मेइणि विक्कमेण। तणुसोहाहसियपुरंदरेहि। ता चिंतिउ दोहि मि सुंदरेहिं। किं दूह वियहे णव जोव्वणेण। किं फलिएण वि कडुएं वणेण। किं सलिलें चंडालंकिएण किं दासें पेसणसंकिएण। किं राएं गुरुपडिकूलएण सुविणीयसुयणसिरिसूलएण॥ घत्ता॥ जे ण करंति सुहासियई। मंतिहिं भासियाई णयवयणई। ताह णरिंदहं रिद्धि कहिं। कहिं सिंहासणछत्तइं रय.... अपभ्रंश-पाण्डुलिपिचयनिका (82) Jan Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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