Book Title: Apbhramsa Pandulipi Chayanika
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 115
________________ जइ एव वि उ पत्तिज्जहि । तो परमेसर एउ करि । तुल चाउल विस जल जलणहं । पंचह एक्कु जि दिव्वु धरि ॥ ४ ॥ तं णिसुणेवि रहुवइ परिओसिङ। एव होउ हक्कारउ पेसिउ । गउ सुग्गी दिट्ठ देवि रहसेण ण माइय। णंद वड्ढ जय होहिं विराउसा । विणि वि जाहि पुत्त लवणंकुस। लक्खण राम जेहिं आयामिय। सीहहिं जिह गइंद उहामिय। रक्खिय णारएण समरंगणे । तहिं मित्ते पइसारिय पट्टणे । अम्हि आय तुम्हह हक्कारा । दिआहा होन्तु मणोरह गारा ॥ घत्ता ॥ चडु पुष्फ विमाणे भडारिए मिलु पुत्तह पर देवरहं । सहुं अच्छहिं मज्झे परिट्ठिय पिहिमि जेम चउ सायरहं ॥५॥ तं णिसुणेवि लवणंकुस मायए । वुत्तु विहीसणु गग्गिरवायए। णिडुर हिययहो अलइय णामहो । जाणमि तत्ति ण किज्जइ रामहो । घल्लिय जेण रुवंति वणंतरे। डाइणि रक्खस भूय भयंकरे। जहिं सहूल सीह गय गंडा । वव्वर सवर पुलिंद पयंडा । जहिं वहु तच्छ रिंच्छ रुरु संवर । सउरग खग मिग विग सिव सूयर । जहि माणुसु जीवंतु वि लुच्चइ । विहि कलि कालु वि पाणहुं मुच्चइ । तहिं वणे घल्लविय अण्णाणे । एवहिं किं तहो तणेण विमाणं ॥ घत्ता ॥ जो तेण डाहु उप्पाइअउ पिसुणालाव मरीसिएण । सो दुक्करु उल्हाविज्जइ । मेह सएण वि वरिसिएण ॥६॥ जइ वि ण कारणु राहवचंदें। तो वि जामि लइ तुम्हहं छंदे । एवं भणेवि देवि जय सुंदरि । कम कमलहिं अच्वंति वसुंधरि । पुप्फ विमाणे चडिय अराएं। परिमिय विज्जाहर संघाए । कोसलणयरि पराइय जावहिं । दिणमणि गउ अत्थवणहो तावेहिं । जेत्थहो पिययमेण णिव्वासि । त उववणहो मज्झे आवासिय । कह वि विहाणु भाणु णहे उग्गउ । अहिमुहु सजाणा लोउ सामागउ । दिन्नई तूरई मंगलु घोसिउ । पट्टणु णिरवसेसु परिउसिउ । सिय पइट्ठ णिविट्ठ वरासणे । सासण देवए णं जिण सासणे ॥ घत्ता ॥ परमेसरि पढम समागमे । झत्ति णिहालिय हलहरेण । सिय पक्खहो दिवस पहिल्लए। चंदलेह णं सायरेण ॥ ७ ॥ कंतहिं तणिय कंति पेक्खेप्पिणु । पभणई पोमणाहु विहसेप्पिणु । जइ वि कुलग्गयाउ णिरवज्जउ । महिलउ होंति सुठु णिल्लज्जउ॥ दरदाविय कडक्ख विक्खेवउ । कुंडिलमइउ वड्डिय अवलेवर । वाहिर धिट्ठउ गुण परिहीणउं हि खंड ण जंति णि हीणउं। णउ गणंति णिय कुलु मइलंतउ । तिहुयणि अयस पडहु वज्जंतउ । अंगु समोडेवि धिक्कारहो । वयणु णिएंति केम भत्तारहो । सीय ण भीय सइत्तण गव्वें वलेवि पवोल्लिय मच्छरगव्वें । पुरिस निहीण होंति गुणवंत वि । तियहि ण पत्तिज्जंति मरंत वि ॥ घत्ता ॥ खडु लक्कडु अपभ्रंश - पाण्डुलिपि चयनिका Jain Education International For Private & Personal Use Only. (100) www.jainelibrary.org

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