Book Title: Anusandhan 2004 08 SrNo 29
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 56
________________ August-2004 ____51 51 इण विध आतम देख अजोगी केवल पंथ कमावें अगम अगाध माहातिथ आखी बुझें केवल भावें । चवदश भेद तणा पडछंदा केवल बुझ कहंदा मुनीचन्द्रनाथ हुये अवनासी निगमपंथ चढंदा ॥९॥ इति श्रीसिधतत्त्वज्ञांने चैतन्यपर्जेश्वर श्रीमुनीचन्द्रनाथजीप्रकासीके योगज्ञांनशक्त उपयोगज्ञानशक्त चतुर्दशगुणस्थांनकस्थितीउपयोगकलासाधननिरगुण सिधस्थांनप्राप्ती सिधसासणस्थितीकरणमाहारसवच्छल आगमआराध चतुरदशीतिथीकलाकथननन्तरं ।। अथ श्रीपंचदशीपर्मसिधस्थांनथीती(तिथि) ज्ञानेश्वर श्रीमुनीचन्द्रनाथजीप्रकाशिके श्रीनिज पर आद्य अनाद्य ब्रह्मराजलीला पंचदशीतिथी कलाहेतु नयमाहाज्ञांनवांणी चालः पुरण तिथमें हुयो उजवालो पुनम चंद पशारो पूरण देख पन्नरमा लोकमें अलख धणी निरधारो । पन्नर कला परसिध अनादि अलख नारायण राजा परम अनंती सीध अनंता लोकालोक अवाजा ॥१॥ सोल कलानो सांम हमारो सो निज परज विचारो श्रीजिनराजनगरमंहिं राजा अनन्तकला निरधारो । अनन्त अनन्त कलाने थोकें एक कला निरधार एहवी कला पन्नरे सिध एके सिध अनन्त अपार ॥२॥ आदि सिध कह्या परभेदें एक करतारथ प्राजा एहवा सिध अनन्त अनन्ता एक अनादिक राजा । एम अनंता दोष अनादिक पन्नरकला प्रभु राजे परमधणी परता परमेश्वर अलख अगोचर गाजें ॥३॥ अकर्ता ब्रह्म अगाधमें गाजें परविध दोय पराजा परजा लोक अनंती प्राझी पन्नरलोकमें झाझा । अनन्त अनन्त कला बहु एके एहवी सोल विचार सोल कलाना सिध हे आदिक सिध अनन्त अपार ॥४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110