Book Title: Anusandhan 2004 08 SrNo 29
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 74
________________ August-2004 00 नेपाल नाहल अमल कुंतल अजल कज्जल देस ए प्रतकाल चिल्लल मलय सिंहल सिंधु देस विसेस ओ खसखान चीन सिलाण देसें जपे तोरो जाप ए इणि० ॥३०॥ कणवीर कानड कुलख काबिल बुलख भंग विभंग ए मलिआर मधु हल्लार हिरम जपय गुहि गुलवंग ए वलि वसाण दुसाण देसें जपे तोरो जाप ए इणि० ॥३१॥ छंद छप्पय प्रतपे प्रबल प्रताप ताप संताप निवारण दस दिसि देस विदेस भमति भविजन सुखकारण रोग सोग सवि टले मिले मनवंछित भोगह दोहग दुक्ख दरिद्र दूर सवि टलें वियोगह स्वर्ग मृत्यु पातालमें त्रिहुं भवने प्रगट्यो सदा पार्श्वनाथ प्रताप तुझ आपे अविचल संपदा ॥३२॥ छंद चालि अविचल पद आपे थिर करी थापे जगव्यापक जिनराज उपद्रव सवि जाई सुर गुण गाइं वसि थाई नरराज दीपे परद्वीपे रिपुनें जीपे दीपे जिम दिनराज पद पंकज पूजे प्रभुना रीझे सीझें वंछित काज ॥३३॥ तुं छे मुज नायक हुं तुज पायक लायक तुज्झ समान कुण छे जग माहें साहि बाहे राखे आप समान तूंहि ज ते दीसे विस्वावीसे हीयडुं हीसे हेव देखुं हुं नयणे जंपू वयणे निरमल तुम्ह गुण देव ॥३४॥ सिंधुर सुंडाला मद मतवाला दुंदाला दरबार झूले मनि गमता रंगे रमता उच्चा लता वार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110