Book Title: Anusandhan 2004 08 SrNo 29
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 62
________________ August-2004 57 केवलवाण कथीपो भाख्यो भणसे जे नरनारी तेहनी सामीण तेहने तारें केवलधांम मका(झा?)री ||८|| धन्य धणीना जे जगमाहे धर्म सदालिंग ध्यावें मुनीचंद्रनाथजी आगम भाखें होस्य कोडि कल्याण ॥९॥ इती श्रीमुनीचंद्रनाथप्रकाशिके द्वादशांगसारउधारे माहाआगमब्रह्मसिधान्त ब्रह्मज्ञी चैतन ब्रह्म विचार पंन्नर तिथीकलाहेतुनय तथा सोडशसिधकलाहेतुनय अनन्तार्थनिजपरचैतन्यकलारूपब्रह्मसिधान्तवांणी समाप्ता । दोहरा ॥ आगमसारउधार रस पुरण केवलज्ञांन । सोलकला संपूरणें वांणी ज्ञाननिदान ॥१॥ पणयालीस गाहा आगली एक सत्त आगमवाण । भणसें आतमभावसुं होसें कोडि कल्याण ॥२॥ पात्र जोइ परचो करी दीजें केवलवाण । धर्मदत्त गुरुदेशना तरसें ते निरवांण ॥३।। सिधवांणी साची सही अगम अनंत अपार । भणतां गुणतां पांमीए सिधसासण जयकार ॥४॥ इति श्रीतिथकला संपूर्णः ॥ लि. मुनी रूपचंदः ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110