Book Title: Anusandhan 2004 08 SrNo 29
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
View full book text
________________
August-2004
65
||३||
अने ते पाटणमां पं. भाग्यविजयगणि, सकल मुनिमण्डली तथा मुख्य मुनि श्री प्रेमविजयना वाचनार्थे रचाई होवानुं जणाव्युं छे. आम, समय, रचना स्थल, रचनाकार तथा रचनाना हेतुनी विगतो साथेनी आ कृति अन्तरिक्ष पार्श्वनाथनां पद्योमां तथा ऐतिहासिक दृष्टिले महत्त्वनी छे. श्री अंतरीक (अन्तरिक्ष) पार्श्वनाथ छन्द
दूहा सरसती मात माया करी, आपो अविचल वाणि पुरिसादाणी पास जिण, गाउं गुण मणि खांणि ॥१॥ अदभुत कौतिक कलियुगें, दीसे एह अदंभ धरथी अधर रहे सदा, अंतरीक थिर थंभ ॥२॥ महिमा महि मंडल सबल, दीपे अनुपम आज अवर देह(व) सूता सवे, जागे तूं जिनराज एक जीभ करि किम कहुँ, गुण अनंत भगवंत कोडि जीभ करि को कहे, तोहे न आवे अंत ॥४॥ तूं माता तूं हि ज पिता, त्राता तूंहि ज बंधू मन धरि मुझ उपरि करें, करुणा करुणासिंधु ॥५॥
छंद अडयल्ल करि करुणा करुणा रस सागर, चरण कमल प्रणमें नित नागर निरमल गुण मणि गण वयरागर, सुरगुरु अधिक अछे मति आगर ॥६॥
कामकुंभ जिम कामितदायक, पद प्रणमें सुरवरनर नायक मथित सदुर्मय मनमथसायक, अष्ट कर्म रिपुदल घायक ॥७॥ नवनिधि रिद्धिसिद्धि तुझ नामें, मनवंछित सुख संतति पामे जे प्रभु पद पंकज सिर नामें, बहुला सुरमहिला तस कामें ॥८।। बहुल वसे विवहारी वातं, वर सिरिपुर वसुधा विख्यातं जिहां राजे जिनवर जग तातं, अंतरीक अनुपम अवदातं ॥९॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110