Book Title: Anusandhan 2004 08 SrNo 29
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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अनुसंधान-२९
तउं एकु लोकोत्तमु, तउं अलक्षु, तउं एकु सर्वेश्वरु मउं जिदक्षु तई एकि धर्मद्रुममूल स्थाप्या, तई एकलइ शास्त्र सवे प्रकाशां(श्या) १२ तउं सिद्धिनारीसुख कालिं लीणउ, हउं हीडतउ भूतलि कष्टि रीणउ तउं शाश्वतउं सौख्यु हूउं निर्चित, एयं सरीषा(खा) तू छइ सचिंत. १३ स्वरूपुं रुडउं जगि वीतराग, भेदि नही तइं रमणी[अ]तिराग सर्वज्ञ लोकोत्तरु तू पुराणु, तू ऊपिलउ कोइ नथी सुजाणु. तउं एकु संसार-समुद्र पारु, पामिउ तु जगन्नाथु करउ जुहारु जाणिउ नही कोइ न देवुदेवी, मू एक लागि तुज नाम वीवी. ए देसु रुडउ नगरीसु धन्यु, सुजाति नीकी कहीयइ गुणन्यु तउं उपनउ जिवु सुद्दीसु एक्कु, प्रशस्यु बोलई भुविरेकु लोकु. जे नित्यु पूजइ तइ धर्ममूलु, ते वेगि पामइ सु[ख]सिंधुकुलु इसउं विचारी तव नामि लागउ, संसार कारागृहवास भागउ. मूकउ सवे ऊतरु तारि नाथ, विच्छेदि जाइं मेलि न मोक्षसाथ कीधउ अलीढउ प्रभु दीस एता, रूडा करे ऊपरि मूज चेता. निसंबला संबलु आपि देव, एत्थं करतउ नितु तुज सेव ए विनति चित्ति करी अवधारि, मू आवतउ दुःखु धणी निवारि. मागउ नही राज्यु, न देवलोकु, न आदरउं चित्ति मनुष्यलोकु ए आपणउ स्वामि सुरेन्द्रसूरि, करइ नही चित्ति किमइ न दूरि. २०
श्रीआदिनाथवीनती.
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