Book Title: Anekant 1993 Book 46 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 8
________________ प्राचीन भारत की प्रसिडमगरी-अहिच्छत्र चौकी पर अग्रिम भाग पर उत्कीर्ण है। यह चौकी लाल टकसाली नगर था। यहां पर एक मिट्टी की मोहर (सील) रेतीली पत्थर से बनी है। तथा उसके निचले भाग पर मिली है, जिस पर यह अभिलेख है कि यह अहिच्छत्रा विचित्र यक्ष की मुद्रा बनाई गई है। चौकी सम्भवत. मठ भक्ति के कुमारामात्य के कार्यालय निर्मित हुई थी। के स्नान घर में प्रयुक्त की जाती थी। कुछ मायनो मे उपाधि यह सूचित करती है कि यह बड़ा अधिकारी भक्ति इसकी उपलब्धि अपूर्व है। यक्ष की मुद्रा से अङ्कित यह का राज्यपाल था तथा राजकुमार के पद के बराबर सबसे प्राचीन प्रस्तरपट्ट है। यह इस ओर एक नये बौद्ध उसका पद था इसी काल का एक अन्य शिलालेख दिस. मठ फरागुल विहार पर प्रकाश डालती है। इस पर सबसे वारी गांव से प्राप्त हुआ है। अहिच्छत्रा किले से यह पहले सही नाम अहिच्छत्र अङ्कित है कांतरिखेरा टीले से गांव साढ़े चार मील दक्षिण में है। इसके अतिरिक्त एक जैन मन्दिर के खंडहर प्राप्त हुए है। यह मन्दिर कुषाण- अन्य गुप्तकाल का शिलालेख पार्श्वनाथ जैन मन्दिर (जो काल का है तथा पार्श्वनाथ का है। इसमें पार्श्वनाथ और कि कोटरी खेड़ा की ओर है) के मध्य से प्राप्त हुआ है। नेमिनाथ की मूर्तियां भी सम्मिलित है तथा इन पर लेख देवल से एक उल्लेखनीय प्रस्तर स्तम्भ प्राप्त हुआ भी अङ्कित हैं, जो १६ से १५२ ई. के है। उत्तर की है। देवल का आधुनिक नाम देवरिया है, जो कि पहले ओर एक छोटा जैन मन्दिर प्राप्त हुआ है तथा पूर्व की बरेली जिले मे था, आजकल पीलीभीत मे है । यह कुटिल ओर इंटो से निर्मित एक स्तूप भी प्राप्त हुआ है। मंसूर लिपि मे अच्नी संस्कृत में लिखा हुआ है तथा सवत् के पश्चिमी गंग क्षेत्र मे एक राज्य स्थापित हुआ था। १०४८ (९९२ ई.) का है इसमें उस समय वहां राज्य जिसका काल लगभग दूसरी शताब्दी ई० का अन्त और कर रहे शक्तिशाशी राज्यवश का उल्लेख है। उसमें तीसरी का प्रारम्भ है। इसकी स्थापना मे एक जैन गुरु लल्ला नामक एक राजा का उल्लेख है, जिसने कि यह ने उत्तर के दो राजकुमारो द्वारा सहयोग दिया था। ये अभिलेख मन्दिर पर खुदवाया, इसकी रानी ने उस मन्दिर राजकूमार अहिच्छत्रा के राजा के थे, जिन्हें उनके पिता को बनवाया था। वह छिन्द वश के वीरवर्मा की चौथी ने सुरक्षा हेतु दक्षिण भेजा था। जबकि उनके राज्य पर पीढी का था। महर्षि च्यवन इसी वंश के थे। छिन्दु से एक भयंकर शत्रु न आक्रमण किया था। कुषाण काल के तात्पर्य कुछ लोग चन्द्रवश लगाते हैं। कुछ इसे चेरम से कुछ ब्राह्मण मन्दिर भी प्राप्त हुए हैं। इस प्रकार उस जोड़ते है। कुछ इसका सम्बन्ध चन्देलो से कहते हैं तथा काल में यह नगर तोनों धर्मों का केन्द्र था। दूसरे लोग इसका सम्बन्ध बच्छल से जोडते हैं । यह अभिइलाहाबाद के प्रस्तर स्तम्भ शिला लेख के अनुसार लेख उस समय की समुन्नत संस्कृति और सभ्यता का समुद्रगुप्त राजा ने अपना पहला युद्ध कार्य आर्यावर्त में प्रमाण है। यह सस्कृति स्थानीय हो सकती है। इसके प्रारम्भ किया और इनकी शुरुआत पडोस के अच्युत तथा केन्द्र देवरिया तथा अहिच्छत्रा रहे होगे, किन्तु इसका भार नागसेन के या अच्युतनन्दि की पहचान अहिच्छत्रा के एक अपेक्षाकृत कम परिष्कृत लोगों पर आ गया। छिन्दु राजतांबे के सिक्के में अकित अच्यु से की गई है। इस सिक्के कुमार स्वयं कन्नोज के गुर्जर प्रतीहारो के अधीन रहे के दूसरे ओर चक्र अकित है। ऐमा विश्वास किया जाता होगे। है कि इस राजा ने ३३५ ई० से ३५० ई. के मध्य यद्यपि यहां शासन की कोई पीठ नहीं थी, फिर भी शासन किया था तथा सम्भवत: मथुरा पर राज्य करने अहिच्छत्रा एक सांस्कृतिक नगरी के रूप में कल फल रही वाले नागों के पूर्वज की एक शाखा के ही वशज थे, जिसके थी, जैसा कि एक दीवाल पर बने हुए दो सुन्दर सिरों की बाद यह भाग गुप्त राज्य का एक भाग बन गया तथा नक्काशी से प्रमाणित है, एक खण्डित शिलालेख भी है. १५०० तक इसकी यही स्थिति रही। अहिच्छत्रा, जो संवत् १०६० (१००४ ई०पू०) का है, यद्यपि यह (अहिच्छत्रा भुक्ति) एक प्रान्त के बराबर का प्रशासकीय पूरी तरह से अभी स्पष्ट नही हुआ है। यह अहिच्छत्रा भाग का मुख्यालय बनाया गया था और सम्भवतः यह की बड़ी नगरी के रूप मे अन्तिम सात तिधि है तथा इस

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