Book Title: Anekant 1981 Book 34 Ank 01 to 04 Author(s): Gokulprasad Jain Publisher: Veer Seva Mandir Trust View full book textPage 4
________________ श्वेताम्बर जैन पंडित-परम्परा ॥ श्री प्रगरचंद नाहटा, बोकानर पडित किसे कहा जाय, यह एक ममस्या है। व शास्त्रीय ग्रंथों में बिता प्राप्त करने का प्रावश्यकता साधारणतया किसी भाषा या विषय के विशिष्ट प्रध्येता नहीं रही। प्रत: ११वी शताब्दी से ही विनम्बर श्रावको या विद्वान को पंडित कहा जाता है, जब कि गोता के मे विद्वान, ग्रन्थकार, तो बराबर होते हा पर दिगवार मनसार पंडित बहुत बड़ी साधना का परिणाम है। प्रत: विद्वानों की तरह वे स्वाध्याय-गद्दी पर बैठ कर शास्त्री पडित में शान के साथ साथ साधना भी उसमे अच्छे रूप के बाचन प्रादि का काम नहीं करते थ। क्योकि वह कार्य में होना चाहिये। जैन परम्परा में ज्ञान-क्रियाभ्याम् तो मुनियों और यतियो के द्वारा अच्छी तरह चल हो रहा मोक्षः क्या है, अर्थात ज्ञान पोर क्रिया यानि प्राचरण, था। और उनकी संख्या भी काफी थी। अतः यहा सदाचार और साधना इन दोनो के सम्मेलन से मोक्ष श्वेताम्बर पडिन-परम्परा पर प्रकाश डालते हुये मैं मिलता है। जैनाचार्य पोर मनिण ज्ञानी पोर पदाचारी श्वेताम्बर श्रावक-ग्रथकाग पर ही कुछ प्रकाश डालेगा। हित कर लाने के श्वेताम्बर ग्रन्थकाग मे सबसे उल्लेखनीय पहला वेकी अधिकारी है। श्वेताम्बर समाज में मनिगण, जब विद्वान है -- कवि धनपाल। जो कि धाग के नि को मम सीमा तक का अभ्यास कर लेते है, तो उन्हे विलासी महाराजा भोज के सभा-पडित थे। वे मूलतः 'पश्याम' पद से विभूषित किया जाता है। पन्यास का ब्राह्मण पाडत थ । पर जनाचार्यों के सम्पर्क में प्राय पोर सक्षिप्त रूप 'पं०' उनके नाम के प्रागं लिखा हवा मिलता उनका भाई सोमन तो जैन दीक्षित साधु भो बन गया। है। इस दष्टि से श्वेताम्बर पडित परम्परा प्राचायाँ पोर इसलिए कवि धनपाल ने भी जैनधर्म ग्वीकार कर लिया। मुनिपो से प्रारम्भ हुई, कहा जा सकता है। कादम्बरी के समान उन्होंने तिलक 4जगे' संस्कृत ग. दिगवर-संप्रदाय में मुनि के लिय शायद ऐसा कोई कथा की रचना करके कहो याति प्राप्त की। प्रपन भाई योग्यता या पद का प्रचार नही रहा, मध्य काल मे तो सोमन मुनि के रचित ग्रन्थ चविशतिका को सस्कृत अटारक-सप्रदाय मे विद्वान काफी हुए, पर प्राचार मे वे टोका बनाई। प्राकृत में रिषभप.शिका और संस्कृत म जर शिथिल थे। गृहस्थी मे जो विद्याध्ययन करने के बाद भी तीथंकरो की स्तुतिपय रचनाये की। अपभ्रश व स्वाध्याय मंडली में ग्रथो का वाचन करते व दूसरो को तत्कालीन लोक-भाषा में उन्होंने सत्यपूर्गय महावीर सनात पोर धार्मिक क्रियानो को सम्पन्न करात है, वे उत्साह नामक स्तुनि-काव्य बनाया है। जो ऐतिहामिक पंडित के रूप में पहिचाने जाते है। श्वेताम्बर समाज मे दृष्टि से भी बड़े महत्व को रचना है। इसको एक मात्र ऐसी परम्परा तो नही रही, क्योकि दिगम्बर समाज मे प्रति मिलती है जिम के प्राधार से मुनि जिनविजयजी ने तो मुनियो को सरूपा बहुत ही कम रही। जबकि जैन साहित्य संशोधक में इसे प्रकाशित कर दी है। क्वेताम्बर प्राचार्यों व मनियों की संख्या सदा से १२वी शताब्दी मे नागोर कष्टी धनदेव के पर काफी रही प्रतः श्रावको की पंडित-परम्परा, दिगंबर. पद्यानन्द ने वैराग्य शतक नामक मक्तक काव्य की रचना सम्प्रदाय की तरह नही चल पाई। मध्यकाल में भट्टारकों की है। जो 'काव्य माना' मे बहुत वर्ष पहले प्रकाशित को तरह श्वेताम्बर समाज मे श्री पूज्यो व पतियो की हो चुका है । यह खरतरगच्छ के प्राचार्य श्री जिनवल्लभपरम्परा अवश्य चली। लम्बे समय तक वे धर्म प्रचार, सूरि जी के भक्त थे। वैराग्य शतक की प्रशस्ति-श्लोक मे व्याख्यान देने व धार्मिक क्रियानो को कराते और इसका उल्लेख उन्होंने स्वय किया है। नागौर में उनके वैद्यक ज्योतिष के अन्य उपयोगी कार्यों को सम्पन्न । पिता धनदेव ने नेमिनाथ का मंदिर बनाया था। जिसकी कराते रहे इसलिए वमे पडितों की परम्परा अवश्य चलती प्रतिष्ठा जिनवल्लभसूरि ने की थी। पद्मनंद के वैराग्य रही। ऐसे यतियों की संख्या भी काफी प्रषिक थी। शतक को एक नई पावृति भी छप गई है। इसलिये श्रावक लोगो को संस्कृत प्राकृत भाषायें सीखने १२-१३वी शताब्दी में श्वेताम्बर श्रावकों में कईPage Navigation
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