Book Title: Anekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 19
________________ १६, वर्ष २६, कि.१ अनेकान्त विमोनी, चन्द्रामती, पं० रामदास, पं० जगमनि, पं० धन- मालूम पड़ता है कि चदेरी और सिरोंज भट्टारकश्याम, पं. बिरधी, पं० मानसिंह, पं. जयराम-परगसेनि पट्टों की स्थापना परवार समाज के द्वारा ही की जाती भाई दोनों, १० मकरंद, पं० कपुरे, पं० कल्याणमणि। थी, इस लिए इन पट्टों को परवार पट्ट कहा गया है। संवत सत्रह से चालिस प्रन इक तह भयो। इस नामकरण से ऐसा भी मालूम पडता है कि इन दोनों उज्वल फागुन मास दसमि सो मह गयो । पट्टों पर परवार समाज के व्यक्ति को ही मट्टारक बना पुनरवसू नक्षत्र सुद्ध दिन सोदयो। कर मधिष्ठित किया जाता था। सिरोंज के जिस पट्टापुनि नरेन्द्र कीरति मुनिराई सुभग संजम लहो। भिषेक का विवरण हमने प्रस्तुत किया है उससे भी इसी वि० सं० १७४६ माष सुदि ६ सोमवार को चांद- लक्ष्य की पुष्टि होती है। विदिशा मे कोई स्वतन्त्र भट्टाखेड़ी में हाड़ा माधोसिंह के अमात्य श्री कृष्णदास बघेर. रकगद्दी नही थी। किन्तु वहाँ जाकर भट्टारक महीनों बाल ने पामेर के भट्टारक श्री जगत्कीति के तत्त्वावधान निवास करते थे और वह मुख्यरूप से परवार समाज का में बृहतंच कल्याणक प्रतिष्ठा कराई थी। उसमें चंदेरी ही निवास स्थान रहा चला पा रहा है, इसलिए उक्त पट्ट के भट्टारक श्री सुरेन्द्रकीति भी सम्मिलित हुए थे। प्रशस्ति में महलपुर (विदिशा) का भी समाबेश किया इस सम्बन्ध की प्रशस्ति चांदखेडी के श्री जिनालय में गया है। प्रदेश द्वार के बाहर वरामदे के एक स्तम्भ पर उत्कीर्ण चंदेरी पट्ट की अपेक्षा उत्तर काल में सिरोंज पट्ट है। उसमे चंदेरी, सिरोंज और विदिशा (भेलसा) पटट को काफी दिनों तक चलता रहा। इसकी पुष्टि त्रिगुना के परवारपट्ट कहा गया है । उसका मुख्य अंश इस प्रकार है- दि० जैन मन्दिर से प्राप्त इस यंत्र लेख से भी होती है। ॥१॥ संवत् १७४६ वर्षे माह सुदि६ षष्ठयां चन्द. यंत्र लेख इस प्रकार हैवासरान्वितायां श्री मूलसंघे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे सं० १८७१ मासोत्तममासे माघमासे शुक्लपक्षे तिथी कुंदकुंदाचार्यान्वये सकलभूमंडलबलयकभूषण सरोजपुरे तथा ११ चन्द्रवासरे श्री मूलसंघे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे चेदिपुर भद्दिलपुर...."वतंस परिवारपट्टान्वये भटटारक कंदकंदाचार्यान्वये सिरोंजपट्ट भट्टाकं श्री राजकीर्ति श्री धर्मकीर्तिस्तत्पट्टे भ० श्री पनकीर्तिस्तत्पटटे भ. प्राचार्य देवेन्द्रकीर्ति उपदेशात् ग्याति परिवारि राउल श्री सकलकीर्तिस्तस्पट्टे ततो भट्टारक श्री सुरेन्द्रकीर्ति ईडरीमूरी चौधरी घासीरामेन इद यंत्र करापितं । तदुपदेशात् ..................." सिरोंजपदु के ये अन्तिम भट्टारक जान पड़ते है। * श्रीमती शान्ता मानावत को पी. एच. डी. की उपाधि राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर ने श्रीमती शान्ता भानावत को उनके शोध प्रबन्ध 'ढोला-मारू रा दुहा का अर्थ वैज्ञानिक अध्ययन' पर इस वर्ष पी-एच. डी. की उपाधि प्रदान को है। 'ढोला-मारू रा दूहा' राजस्थान के मध्य युगीन लोक जीवन का प्रतिनिधि काव्य है। इसे जैन कवि कुशललाभ ने चौपाई बद्ध भी किया। श्रीमती भानावत ने अपने शोध प्रबन्ध में 'ढोला मारू रा दूहा' में प्रयुक्त शब्दों के अथं परिवर्तन के कारणों और अर्थ परिवर्तन की दिशामों का ऐतिहासिक, भौगोलिक, सामाजिक, मनोवैज्ञानिक, सांस्कृतिक और भाषावैज्ञानिक परिपाश्व में विस्तृत अध्ययन प्रस्तुत किया है। इस ग्रंथ से राजस्थानी के कई विशिष्ठ शब्दों की विकास यात्रा का अच्छा परिचय मिलता है। श्रीमती भानावत राजस्थान विश्वविद्यालय के हिन्दी प्राध्यापक एवं जैन संस्कृति को प्रतिनिधि मासिक पत्रिका 'जिनवाणी' के सम्पादक डा. नरेन्द्र भानावत की धर्मपत्नी हैं। भवदीय : संजीव भानावत सी-२३५ ए, तिलकनगर, जयपुर-४

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