Book Title: Anekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 17
________________ १४, वर्ष २६, कि०१ भनेकान्त सम्प्रदाय' पुस्तक में वि० सं० १४६६ से लेकर अधिकतर षिक्त हो गये थे। साथ ही यहां जितन, लेखों में से किसी मे इनको देवेन्द्रकीति का शिष्य, किसी सिंहकीति की भी माम्नाय चाल थी यह भी : में दीक्षिताचार्य, किसी में प्राचार्य तथा किसी में गुरु लगता है। पूरा लेख इस प्रकार हैकहा गया है। परन्तु भावनगर के समीप स्थित घोघा संवत् १५२५ वर्ष माघ सूदि १० सोमदिने श्री मलनगर के सं०१५११के एक प्रतिमा लेख में इन्हे भट्टा- संघ भट्टारक श्री जिनचन्द्रदेवस्तत्पद्र भट्रारक श्री सिंहरक अवश्य कहा गया हैं। यह प्रथम लेख है जिसमे सर्व कातिदेव मडलाचार्य त्रिभुवनकीतिदेवा गोलापर्वाम्बये सा० प्रथम ये भटटारक कहे गये है। इससे ऐसा लगता है कि श्री तम तस्य भार्या सघ इति । पटट की स्थापना इसके पूर्व हो गई होगी। इसके पूर्व बड़ा मन्दिर चदेरी मे भ० त्रिभवनकीति टि हमारा यह अनुमान सही हो तो ऐसा स्वीकार द्वाराप्रतिष्ठित वि० सं० १५२२ की एक चौवीसी पट करने में कोई आपत्ति नहीं कि चन्वेरी पट्ट की स्थापना मोर है। इससे पूर्व के किसी प्रतिमालेख में इनके नाम के बाद ही सरत पट्ट की स्थापना हुई होगी। ऐसा होते का उल्लेख नहीं हुआ है। इससे मालम पERT कि है बन्देलखड और उसके पास-पास का बह भाग स० १५२२ के आस-पास के काल में ये पदासीन हए सी मंडल कहा जाता था यह उल्लेख वि० सं० १५३२ होगे। यतः भ. देवेन्द्रकीति भी चंदेरीमंडल मंडला. के किसी प्रतिमा लेख मे दृष्टिगोचर नहीं हुमा। चायं रहे है, प्रतः सर्वप्रथम वे ही चंदेरी पट्र पर पासीन * री मंडलाचार्य देवेन्द्रकीर्ति को स्वीकार किया हुए होगे यह स्पष्ट हो जाता है। वि.स. १५२२ का गया है। यह प्रतिमा लेख हमें विदिशा के बड़े मन्दिर से उक्त प्रतिमा लेख इस प्रकार हैउपलब्ध हुमा है । पूरा लेख इस प्रकार है स० १५२२ वर्षे फाल्गुन सुदि ७ श्री मूलसघे बलासवत् १५३२ वर्षे वैशाख सुदि १४ गुरौ श्री मूल- कारगणे सरस्वतीगच्छे कंदकंदाचार संघे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे नंदिसंघे कुंदकुदाचार्या- देवेन्द्रकीति त्रिभुवण · ति............ स्वये भ० श्री प्रभाचन्द्रदेव त० श्री पद्मनन्दिदेव त० शुभ- भानुपुरा के बड़े मन्दिर के शास्त्र भंडार में शान्ति. श्री जिनचन्द्रदेव भ. श्री सिंहकीर्तिदेव चंदेरी नाथ पुराण की एक हस्तलिखित प्रति पाई जाती है। मडलाचार्य श्री देव्य द्रकीतिदेव त० श्री त्रिभुवनकीतिदेव उसके अन्त में जो प्रशस्ति अंकित है उसमें पौरपट्टान्वे अष्टन्वये सारवन पु० समवेतस्य पुत्र रउत पाये आदि की भट्टारक परम्परा को मालवाधीश कहा गया है। त० पुत्र सा० अर्जुन त० पुत्र सा० नेता पुत्र सा० धीरजु यह भी एक ऐमा प्रमाण है जिससे स्पष्टतः इस त भा. विरजा पु० सघे सघ तु भा.....""संघे......संगे। का समर्थन होता है कि चंदेरी पट के ठीक इसी प्रकार का एक लेख कारंजा के एक देवेन्द्रकीति ही रहे होगे। इससे मालूम पड़ता है कि मन्दिर में भी उपलब्ध हुआ है। इसके पूर्व जिनमें चदेरी चंदेरी पट्ट को मालवा पट्ट भी कहा जाता था। उक्त मंडल का उल्लेख है ऐसे दो लेख वि० स० १५३१ के गंज प्रशस्ति इस प्रकार हैवासौदा मोर गूना मन्दिरों के तथा दो लेख वि० सं० प्रय सवत्सरे ऽस्मिन् नपतिविक्रमादित्य राज्ये पवन १५४२ के भी उपलब्ध हुए हैं। किन्तु froसं० १५३१ माने सं० १६६३ वर्षे चैत्र द्वितीय पक्षे शक्ले पक्षे निती को चंदेरी मंडल की स्थापना की पूर्वावधि नहीं समझनी दिने रविवासरे.............सिरोंजनगरे चन्द्रप्रसार चाहिए। कारण कि ललितपुर के बड़े मन्दिर से प्राप्त श्री मूलसंघे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे श्री कंददा. वि. सं. १५२५ के एक प्रतिमा लेख मे त्रिभुवन कीति को चार्यान्वये तत्परंपरायेन मालवादेशाधीश भटटारक श्री श्री मंडलाचार्य कहा गया है। इसमें भ० देवेन्द्र कीर्ति का श्री देवेन्द्रकीतिदेवाः तस्पट्टे भट्टारक श्री त्रिभवनकीतिनामोल्लेख नहीं है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि वि० देवाः तत्प? भ० श्री सहस्रकीर्तिदेवाः तत्पर भ. श्री स. १५२५ के पूर्व ही त्रिभुवनकोति चंदेरी पट्ट पर मभि- पपनन्दिदेवा तस्पट्टे भ. श्री जसकीति नामधेया तापट

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