Book Title: Anekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 16
________________ चंदेरी-सिरोंज (परवार) पट्ट पं० फूलचन्द शास्त्री, वाराणसी मूलसंघ नन्दि प्राम्नाय की परम्परा में भट्टारक पद्म- यह माना जा सकता है कि इस समय तक ये पट्टधर नहीं नन्दी का जितना महत्त्वपूर्ण स्थान है, उनके पट्टधर भट्टा- हुए होंगे। किन्तु मुनि भी भट्टारको के शिष्य होते रहे रक देवेन्द्रकीति का उससे कम महत्त्वपूर्ण स्थान रही है। हैं। इतना ही नहीं, मुनि दीक्षा भी इन्ही के तत्त्वावधान इनका अधिकतर समय गुजरात की अपेक्षा बुन्देलखंड में में दी जाने की प्रथा चल पड़ी थी। मेरा ख्याल है कि और उससे लगे हुए मध्य प्रदेश मे व्यतीत हुप्रा है। वर्तमान में जिस विधि से मुनि दीक्षा देने की परिपाटी चन्देरी पट्ट की स्थापना का क्षेत्र इन्हीं को प्राप्त है। प्रचलित है वह भट्टारक बनने के पूर्व भी मुनि दीक्षा का श्री मूलचन्द किशनदास जी कापड़िया द्वारा प्रकाशित हो रूपान्तर है। इसी से उसमे विशेष रूप से सामाजि. 'सूरत और सूरत जिला दि० जैन मन्दिर लेख संग्रह' कता का समावेश दृष्टिगोचर होता है। सक्षिप्त नाम 'मूति लेख संग्रह' के पृष्ठ ३५ के एक जो कुछ भी हो, उक्त प्रशस्ति से इतना निष्कर्ष तो उल्लेख मे कहा गया है कि 'गंधार की गद्दी टूट जाने से निकाला ही जा सकता है कि सम्भवतः उस समय तक स० १४६१ में भट्टारक देवेन्द्रकीति ने इस गद्दी को रोदेर इन्होंने किसी भट्टारक गद्दी को नहीं सम्हाला होगा। मे स्थापित किया। जिसे स० १५१८ में भट्टारक विद्या. किन्तु 'भट्टारक सम्प्रदाय पृ० १६६ के देवगढ़ (ललितपुर) नदी जी ने सरत मे स्थापित किया।' किन्तु अभी तक से प्राप्त एक प्रतिमा लेख से इतना अवश्य ज्ञात होता है जितने मूर्ति लेख उपलब्ध हुए है उनसे इस तथ्य को पुष्टि कि वे वि० सं० १४९३ के पूर्व भट्टारक पद को प्रल कृत नहीं होती कि श्री देवेन्द्रकीति १४६१ में या इसके पूर्व भट्टारक बन चुके थे। साथ ही उक्त पुस्तक में जितने भी देवगढ़ बुन्देलखंड में है और चन्देरी के सन्निकट है। मूति लेख प्रकाशित हुए है उनमे केवल इनसे सम्बन्ध साथ ही इनके प्रमुख शिष्य विद्यानन्दी परवार थे। इससे रखने वाला कोई स्वतन्त्र मूर्ति लेख भी उपलब्ध नही ऐसा लगता है कि वि.सं. १४. ऐसा लगता है कि वि० सं० १४६३ के पूर्व ही धन्वेरीपट्ट f होता। इसके विपरीत उत्तर भारत मे ऐसे लेख अवश्य स्थापित किया जा चका होगा। फिर भी उनकी । पाये जाते है जिनसे यह ज्ञात होता है कि इनका लगभग में भी पूरी प्रतिष्ठा बनी हई थी भोर जनका गुजरात से पूरा समय उत्तर भारत मे ही व्यतीत हुआ था। यहाँ सम्बन्ध विच्छिन्न नहीं हुमा था, सूरत पट्ट का प्रारम्भ हम ऐसी एक प्रशस्ति प्रागरा के एक जन मन्दिर में स्थित होना और उस पर उनके शिष्य विद्यानन्दी का अघि. पण्यानब (संस्कृत) हस्त लिखित प्रन्थ से उद्धृत ष्ठित होना तभी सम्भव हो सका होगा। कर रहे हैं। इसमें इन्हें भ० पप्रनन्दि का शिष्य स्वीकार भट्टारक सम्प्रदाय पुस्तक में चन्दरी पट्ट को जेरहट किया गया है । प्रशस्ति इस प्रकार है पट्ट कहा गया है। वह ठीक नही है। हो सकता है कि सं० १४७३ वर्षे कातिक सुदी ५ गुरदिने श्री मूल• वह भट्टारकों के ठहरने का मुख्य नगर रहा हो। पर संघे सरस्वतीगच्छे नन्दिसघे कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भट्टारक वह कभी भट्टारक गद्दी स्थापित नहीं हुई इतना सनिश्री पप्रनन्दी देवास्तच्छिष्य मुनिश्री देवेन्द्रकीतिदेवाः। श्चित प्रतीत नहीं होता। तेन निजज्ञानावर्णीकर्मक्षया लिषापितं शुभं । विद्यानन्दी कब सूरत पट्ट पर अधिष्ठित हुए इसका इस लेख में इन्हें मुनि कहा गया है। इसके अनुसार कोई स्पष्ट उल्लेख उपलब्ध नहीं हमा। 'भट्टारक

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