Book Title: Anekant 1948 08 Author(s): Jugalkishor Mukhtar Publisher: Jugalkishor Mukhtar View full book textPage 9
________________ किरण८] यह नियम है कि 'कर्ता ही फलभोक्ता होता है ।' - अतः आत्माको कथञ्चित् नाशशील - सर्वथा नाशशील नहीं— स्वीकार करना चाहिए । और तब कर्तृत्व और फलभोक्तृत्व दोनों एक (आत्मा) के बन सकते हैं। तीसरे 'युगपदनेकान्तसिद्धि' और चौथे 'क्रमानेकान्तसिद्धि' नामके प्रकरणों में वस्तुको युगपत् और से वास्तविक अनेकधर्मात्मक सिद्ध किया गया है और बौद्धाभिमतं संतान तथा संवृतिकी युक्तिपूर्ण मीमांसा करते हुए चित्तक्षणोंको निरन्वय एवं निरंश स्वीकार करने में एक मार्केका दूषण यह दिया गया है कि जब चित्तक्षणोंमें अन्वय नहीं है - वे सर्वथा भिन्न हैं तो दाताको ही स्वर्ग हो और वधकको ही नरक हो' यह नियम नहीं बन सकता । प्रत्युत : इसके विपरीत भी सम्भव है — दाताको नरक और aasai स्वर्ग क्यों न हो ? वादी सिंहसूरकी एक अधूरी अपूर्व कृति स्याद्वादसिद्धि पाँचवें भोक्तृत्वाभावसिद्धि, छठे सर्वज्ञाभावसिद्धि, सातवें जगत्कर्तृ त्वाभावसिद्धि, आठवें अर्हत्सर्वज्ञसिद्धि, नवें अर्थापत्ति प्रमाणसिद्धि, दशवें वेदपौरुपेयत्वसिद्धि, ग्यारहवें परतः प्रामाण्यसिद्धि, बारहवें अभावप्रमाणदूषणसिद्धि और तेरहवें तर्कप्रामाण्यसिद्धि नामक प्रकरणों में अपने-अपने नामानुसार विषय चर्णित है । चउदहवें प्रकरण में वैशेषिकके गुण-गुणीदाद और समवायादि पदार्थोंका समालोचन किया गया है । सम्भव है ग्रन्थका जो शेष भाग अनुपलब्ध थकाने सांख्य, नैयायिक आदि दर्शनोंकी होवा करनेका विचार रखा हो। अस्तु • Jain Education International [ २९३ अन्य ग्रन्थकारों और उनके ग्रन्थवाक्योंका उल्लेख ग्रन्थकारने इस रचनामें अन्य ग्रन्थकारों और उनके ग्रन्थवाक्योंका भी उल्लेख किया है। प्रसिद्ध मीमांसक कुमारिलभट्ट और प्रभाकरका नामोल्लेख करके उनके वेदवाक्यार्थका खण्डन किया है । यथा नियोग-भावनारूपं भिन्नमर्थद्वयं तथा । भट्ट-प्रभाकराभ्यां हि वेदार्थत्वेन निश्चितम् ||६-२८२॥ इसी तरह अन्य तीन जगहोंपर कुमारिलभट्टके मीमांसाश्लोकवार्तिकसे 'वार्त्तिक' नामसे अथवा बिना उसके नामसे निम्न तीन कारिकाएँ उद्धत हुई हैं और उनकी आलोचना की गई है (क) स्वतः सर्वप्रमाणानां प्रामाण्यमिति गम्यताम् । न हि स्वतोऽसती शक्तिः कर्तुं मन्येन शक्यते ॥ [मी० लो० सू० २, का० ४७ ] इति वार्तिकसद्भावात् । ११-३६३ ।। (ख) शब्दे दोषोद्भवस्तावद्वक्तृयधीन इति स्थितिः । तदभावः कचित्तावद्गुणवद्वक्तृकत्वतः ॥ [मी० लो० सू० २, का० ६२ ] इति वार्तिकतः शब्द " । ११-४११।। (ग) यद्वेदाध्ययनं सर्वं तदध्ययनपूर्वकम् । तदध्ययनवांच्यत्वादमने भवेदिति ( दधुनाध्यनं यथा ) ॥ [मी० लो० अ० ७ का० ३५५] इत्यस्मादनुमानात्स्याद्वेदस्या पौरुषेयता |१०-३७६ ।। इसी तरह प्रशस्तकर, दिग्नाग, धर्मकीर्ति जैसे विद्वानोंके पद- वाक्यादिक्रोंके भी उल्लेख इसमें पाये जाते हैं । १ ' ततः कथञ्चिन्नाशित्वे कर्त्रा लब्धं फलं भवेत् । तन्नाशो नेष्यते तस्माद्धर्मो कार्योऽस्तु सौगतैः ||६८||' २ ' तथा च दातुः स्वर्गः स्यान्नरको हन्तुरित्ययम् । नियमो न भवेत् किन्तु विपर्यासोऽपि सम्भवेत् ॥ ३-११६' ३ 'गुणाद्यभेदो गुण्यादेस्तथा निर्बाधबोधतः । तद्वत्तस्यान्यथा हानेगुणादेखि संख्यया ॥ १४-४४६॥ समवायान्न तद्बुद्धिरिहेदं प्रत्ययो ह्यतः । (१) आदिपुराणके कर्ता जिनसेनस्वामीने, जिनका समय ई०८३८ है, अपने आदिपुराण में एक 'वादिसिंह' दृष्टान्ते तददृष्टेश्च तत्सम्बन्धेऽप्ययोगतः ॥ १४-४४७ ॥' नामके आचार्यका स्मरण किया है और उन्हें उत्कृष्ट ग्रन्थकर्ता और उनका समय ग्रन्थकर्ता और उनके समयपर भी कुछ विचार कर लेना आवश्यक है । ये ग्रन्थकार वादीभसिंहसूरि कौनसे वादीभसिंहसूर हैं और कब हुए हैं- :- उनका क्या समय है ? नीचे इन्हीं दोनों बातोंपर विचार किया जाता है । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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