Book Title: Anekant 1948 08
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 11
________________ किरण ८] वादीभसिंहसूरिकी एक अधूरी अपूर्व कृति स्याद्वादसिद्धि [ २६५ (५) क्षत्रचूडामणि और गद्यचिन्तामणि काव्य- वादीभसिंहके होना चाहिए, जिनका दूसरा नाम ग्रन्थोंके कर्ता वादीभसिंहसूरि विद्वत्समाजमें अति- मल्लिषेणप्रशस्ति और निर्दिष्ट शिलालेखोंमें अजितसेन विख्यात और सुप्रसिद्ध हैं। मुनि अथवा अजितसेन पंडितदेव भी पाया जाता है ___ (६) पं० के० भुजबलीजी शास्त्री' ई० १०६० तथा जिनके उक्त प्रशस्तिमें शान्तिनाथ और पद्मनाभ और ई० ११४७ के नं० ३ तथा नं० ३७ के दो शिला- अपरनाम श्रीकान्त और वादिकोलाहल नामके दो लेखोंके आधारपर एक वादीभसिंह (अपर नाम शिष्य भी बतलाये गये हैं। इन मल्लिषेणप्रशस्ति अजितसेन) का उल्लेख करते हैं। और शिलालेखोंका लेखनकाल ई० ११२८, ई० १०६० (७) श्रुतसागरसूरिने भी सोमदेवकृत यशस्तिलक और ई० ११४७ है और इस लिये इन वादीभसिंहका (आश्वास २, १२६) की अपनी टोकामें एक वादीभ- समय लगभग ई० १०६५ से ई० ११५० तक हो सिंहका निम्न प्रकार उल्लेख किया है और उन्हें सोम- सकता है । बाकीके चार उल्लेख-पहला, दूसरा, देवका शिष्य कहा है: चौथा और पाँचवाँ–प्रथम वादीभसिंहके होना 'वादीभसिंहोऽपि मदीयशिष्यः चाहिए, जिन्हें 'वादिसिंह' नामसे भी साहित्यमें श्रीवादिराजोऽपि मदीयशिष्यः । इत्युक्तत्वाच्च ।' ___ उल्लेखित किया गया है । वादीभसिंह और वादिसिंहवादिसिंह और वादीभसिंहके ये सात उल्लेख के अथमें कोई भेद नहीं है--दोनोंका एक ही अर्थ है। है जो अबतककी खोजके परिणामस्वरूप विद्वानोंको चाहे वादीरूपी गजोंके लिये सिंह' यह कहो. चाहे जैनसाहित्यमें मिले हैं। अब देखना यह है कि ये 'वादियोंके लिये सिंह' यह कहो-एक ही बात है। सातों उल्लेख भिन्न भिन्न हैं अथवा एक ? अब यदि यह निष्कर्ष निकाला जाय कि क्षत्रअन्तिम उल्लेखको प्रेमीजी', पं० कैलाशचन्द्रजी' चूडामणि और गद्यचिन्तामणि इन प्रसिद्ध काव्यग्रंथोंआदि विद्वान अभ्रान्त और विश्वसनीय नहीं मानते। के कर्ता वादीभसिंहसूरि ही स्याद्वादसिद्धिकार हैं और इसमें उनका हेतु है कि न तो वादीभसिंहने ही अपने- इन्हींने आप्तमीमांसापर विद्यानन्दसे पूर्व कोई टीका को सोमदेवका कहीं शिष्य प्रकट किया और न वादि- अथवा वृत्ति लिखी है जो लघुसमन्तभद्रके उल्लेख राजने ही अपेनेको उनका शिष्य बतलाया है। प्रत्युत परसे जानी जाती है नथा इन्हीं वादीभसिंहका वादीभसिंहने तो पुष्पसेन मुनिको और वादिराजने 'वादिसिंह' नामसे जिनसेन और वादिराजने बड़े " ' मतिसागरको अपना गुरु बतलाया है। दूसरे, सोम- सम्मानपूर्वक स्मरण किया है। तथा 'स्याद्वादगिरा देवने उक्त वचन किस ग्रन्थ और किस प्रसङ्गमें कहा, माश्रित्य वादिसिंहस्य गर्जिते' वाक्यमें वादिराजने यह सोमदेवके उपलब्ध ग्रन्थोंपरसे ज्ञात नहीं होता। 'स्याद्वादगिर' पदके द्वारा इन्हींकी प्रस्तुत स्याद्वादसिद्धि अतः जबतक अन्य प्रमाणोंसे उसका समर्थन नहीं जैसी स्याद्वादविद्यासे परिपूर्ण कृतियोंकी ओर होता तबतक उसे प्रमाणकोटिमें नहीं रखा जा सकता। इशारा किया है तो कोई अनौचित्य नहीं प्रतीत होता। अवशिष्ट छह उल्लेखोंमें, मेरा विचार है कि तीसरा इसके औचित्यको सिद्ध करनेके लिये नीचे कुछ और छठा ये दो उल्लेख अभिन्न हैं तथा उन्हें एक दूसरे प्रमाण भी उपस्थित किये जाते हैं। (१) क्षत्रचूडामणि और गद्यचिन्तामणिके मङ्ग१ देखो, जैनसिद्धान्तभास्कर भाग ६, कि० २, पृ० ७८ । लाचरणोंमें कहा गया है कि जिनेन्द्र भगवान भक्तोंके २ देखो, ब्र० शीतलप्रसादजी द्वारा सङ्कलित तथा अनुवादित समीहित (जिनेश्वरपदप्राप्ति)को पुष्ट करें-देवें । यथा'मद्रास व मैसूर प्रान्तके प्राचीन स्मारक' नामक पुस्तक । (क) श्रीपतिर्भगवान्पुष्याद्भक्तानां वः समीहितम् । १.देखो, जैनसाहित्य और इतिहास पृ० ४८०। यद्भक्तिः शुल्कतामेति मुक्तिकन्याकरग्रहे ॥१॥ ४ देखो, न्यायकुमुद प्र० भा प्रस्ता० पृ० ११२ । -क्षत्रचू०१-१। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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