Book Title: Anekant 1948 08
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 15
________________ किरण ८] वादीभसिंहसूरिकी एक अधूरी अपूर्व कृति स्याद्वादसिद्धि [२६६ विस्तार ही उपयुक्त जान पड़ता है। वे ढाई कारिकाएँ निःसारभूतमपि बन्धनतन्तुजातं, मूर्ना जनो वहति हि प्रसवानुषङ्गात् । देहारम्भोऽप्यदेहस्य वक्तृत्ववदयुक्तिमान् । जीवन्धरप्रभवपुण्यपुराणयोगा - देहान्तरेण देहस्य यद्यारम्भोऽनवस्थितिः॥ द्वाक्यं ममाऽप्युभयलोकहितप्रदायि ॥६॥ अनादिस्तत्र बन्धश्चत्त्यक्तोपात्तशरीरता । अतएव वादीभसिंह गुणभद्राचार्यसे पीछेके हैं। अस्मंदादिवदेवाऽस्य जातु नैवाऽशरीरता ॥ २. सुप्रसिद्ध धारानरेश भोजकी झूठी मृत्युके देहस्यानादिता न स्यादेतस्यां च प्रमात्ययात् ॥ शोकपर उनके समकालीन सभाकवि कालिदास, जिन्हें -६-२७३, २७४३। परिमल अथवा दूसरे कालिदास कहा जाता है, द्वारा ___ इन दोनों उद्धरणोंका सूक्ष्म समीक्षण करनेपर कहा गया निम्न श्लोक प्रसिद्ध हैकोई भी सूक्ष्म-समीक्षक यह कहे बिना न रहेगा कि अद्य धारा निराधारा निरालम्बा सरस्वती । वादीभसिंहका कथन जहाँ मौलिक और संक्षिप्त है पण्डिता खण्डिताः सर्वे भोजराजे दिवंगते ॥ वहाँ विद्यानन्दका कथन विस्तारयुक्त है और जिसे ।। और इसी श्लोकके पूर्वार्धकी छाया सत्यन्धर वादीभसिंहके कथनका खुलासा कहना चाहिए । अतः महाराजके शोकके प्रसङ्गमें कही गई गद्यचिन्तामणिविद्यानन्दका समय वादीभसिंहकी उत्तरावधि है। की निम्न गद्यमें पाई जाती हैयदि ये दोनों विद्वान् समकालीन भी हों जैसा कि 'अद्य निराधारा धरा निरालम्बा सरस्वती।' सम्भव है तो भी एक दूसरेका प्रभाव एक दूसरेपर अतः वादीभसिंह राजा भोज (वि० सं० १०७३से पड़ सकता है और एक दूसरेके कथन एवं उल्लेखका वि० १११२)के बादके विद्वान हैं। आदर दर एक दसरा कर सकता है। विद्यानन्दका समय ये दो बाधक प्रमाण हैं जिनमें पहलेके उद्धावक हमने अन्यत्र ई० ७७५से ई० ८४० निर्धारित किया पं० नाथूरामजी प्रेमी हैं और दूसरेके स्थापक श्रीकुप्पुहै । अतः इन प्रमाणोंसे वादीभसिंहसूरिका समय स्वामी शास्त्री तथा समर्थक प्रेमीजी हैं । इनका ईसाकी ८वीं और हवीं शताब्दीका मध्यकाल (ई० ७७० समाधान इस प्रकार है- . से ई० ८६०) अनुमानित होता है। १. कवि परमेष्ठी अथवा परमेश्वरने जिनसेन और बाधकोंका निराकरण गुणभद्रके पहले 'वागर्थसंग्रह' नामका जगत्प्रसिद्ध पुराण रचा है। और जिसमें वेशठशलाका पुरुषोंइस समयके स्वीकार करने में दो बाधक प्रमाण का चरित वर्णित है तथा जिसे उत्तरवर्ती अनेकों उपस्थित किये जा सकते हैं और वे ये हैं पुराणकारोंने अपने पुराणोंका आधार बनाया है। १. क्षत्रचूडामणि और गद्यचिन्तामणिमें जीवन्धर- खद जिनसेन और गुणभद्रने भी अपने आदिपुराण स्वामीका चरित निबद्ध है जो गुणभद्राचार्यके उत्तर- तथा उत्तरपुराण उसीके आधारसे बनाये हैं इनका पुराण' (शक सं० ७७०, ई०८४८) गत जीवन्धर मूलस्रोत कवि परमेष्ठी अथवा परमेश्वरका 'वागर्थचरितसे लिया गया है । इसका संकेत भी गद्यचिन्ता- संग्रह' पुराण है, यह प्रेमीजी स्वयं स्वीकार करते हैं । मणिके निम्न पद्यमें मिलता है तब वादीभसिंहने भी जीवन्धरचरित जो उक्त प्रमाण१ प्रेमीजीने जो इसे 'शक सं. ७०५ (वि.सं.४०)की में निबद्ध होगा, उसी (पुराण)से लिया है, यह रचना' बतलाई है (देखो, जैनसा, और इति. प्र.४१) कहनेमें कोई बाधा नहीं जान पड़ती। गद्यचिन्तावह प्रसादिकी गलती जान पड़ती है। क्योंकि उन्हींने उसे १देखो, डा. ए. एन. उपाध्येका 'कवि परमेश्वर या अन्यत्र शक सं. ७७०, ई.८४८के लगभगकी रचना परमेष्ठी' शीर्षक लेख, जैन सि. भा. भाग १३, कि. २। सिद्ध की है, देखो, वही पृ. ५१४ । २ देखो, जैनसाहित्य और इतिहास पृ. ४२१. । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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