Book Title: Anekant 1948 08
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1190 अनेकान्त श्रावण, संवत् २००५ :: अगस्त, सन् १९४८ नेशवन्ध बापू किरण ८ प्रधान सम्पादक जुगलकिशोर मुख्तार सञ्चालक-व्यवस्थापक भारतीय ज्ञानपीठ, काशी -000-000 सह सम्पादक मुनि कान्तिसागर दरबारीलाल न्यायाचार्य अयोध्याप्रसाद गोयलीय डालमियानगर (विहार) संस्थापक-प्रवर्तक वीरसेवामन्दिर, सरसावा जन्म २ अक्तबर १८६६ महाप्रयागा ३० जनवरी १९४८ विषय-सूची पृष्ठ ३१४ ३१६ लेख नाम पृष्ठ १-समन्भद्र-भारतीके कुछ नमूने २८७ वादाभासहसूारको एक अधूरी अपूर्व कृति २६१ ३-पं०शिवचन्द्र देहलीवाले.. ३०२ ४-धर्मका रहस्य ३०३ ५-व्यक्तित्व ३०६. ६-पाँच प्राचीन दि० जैन मूर्तियाँ ..... ३११ लेख नाम ७–'संजद' शब्दपर इतनी आपत्ति क्यों ? -अपहरणकी अागमें झुलसी नारियाँ ह-सम्यग्दृष्टिका आत्म-सम्बोधन १०-अतिशयक्षेत्र श्रीकुण्डलपुरजी ११-शिमलाका पयूषणपर्व १२-सम्पादकीय ..... ३१६ ..." ३२४ ३२५ in Education Interational For Personal Poets Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीबाबू नन्दलालजी कलकत्ताकी उदारता श्रीमान् बाबू नन्दलालजी सरावगी कलकत्ताने वीरसेवामन्दिर द्वारा तय्यार जैन ग्रन्थोंके प्रकाशनार्थ गत जुलाई मासके अन्तमें दस हजार रुपयेके प्रशंसनीय दानका जो वचन दिया था उस दान सम्बन्धी सब रकमको आपने बड़े ही विनम्र और प्रेममय शब्दोंके साथ भेज दिया है। साथ ही ८००) रु० अपने दोनों पुत्रों चि० शान्तिनाथ और चि० निर्मलकुमारकी ओरसे अगले चार वर्षों की वार्षिक सहायताके रूपमें पेशगी भेजे हैं-वर्तमान वर्षकी सहायतामें २००) रु० उनकी ओरसे आप दे गये थे-और १००) रु० अपनी पत्नी श्रीमती कमलाबाईजीकी ओरसे 'सन्मति-विद्या-निधि' को प्रदान कर गये हैं, जो बालसाहित्यके प्रकाशनार्थ स्थापित की गई है। इस तरह हालमें आपने १११००) की रकम वीरसेवामन्दिरको नक़द प्रदान की है। इस महती उदारता और सरस्वती-सेवाकी उत्कट भावनाके लिये आप भारी धन्यवादके पात्र हैं। जुगलकिशोर मुख्तार वीरसेवामन्दिरको प्राप्त अन्य सहायता गत किरणमें प्रकाशित सहायता के बाद वीरसेवा- चार्यके, जिसमें २५) सफर खर्चके शामिल हैं। मन्दिरको जो अन्य सहायता प्राप्त हुई है वह निम्न १०२) दि० जैन समाज शाहगढ़, जिला सागर (दशप्रकार है और उसके लिये दातारमहानुभाव धन्यवाद- लक्षणपर्वके उपलक्षमें) मार्फत पं० परमानन्द के पात्र हैं: शास्त्रीके, जिसमें ४१) सफर खर्चके शामिल हैं। ५००) ला० कपूरचन्द धूपचन्दजी जैन, कानपुर १०१) श्रीमती पद्मावतीदेवीजी धर्मपत्नी साहू सुमत(दशलक्षणपर्वके उपलक्षमें) प्रसादजी नजीबाबाद (चि० पुत्र जिनेन्द्रकुमारके ५१) ला० चन्दनलाल गोपीचन्दजी जैन, कानपुर विवाहोपलक्षमें निकाले हुए दानमेंसे)। (दशलक्षणपर्वके उपलक्षमें) ५) दिगम्बर जैन पश्चायत किशनगढ़, जि. जयपुर १७६) दिगम्बर जैन सभा शिमला, (दशलक्षणपर्वके । (दशलक्षणपर्वके उपलक्षमें)। उपलक्षम) मार्फत पं० दरबारीलालजी न्याया- ९३५) अधिष्ठाता 'वीरसेवामन्दिर ___अनेकान्तको प्राप्त सहायता गत किरण नं० ६में प्रकाशित सहायताके बाद पलक्षमें) अनेकान्तको जो सहायता प्राप्त हुई है वह निम्न प्रकार ५) ला० वसन्तलालजी जैन जयपुर (दशलक्षणपर्वहै और उसके लिये दातारमहानुभाव धन्यवादके पात्र हैं के उपलक्षमें)। १०) ला० मुन्नीलालजी मुरादाबाद व ला० बच्चूलाल ५) दि. जैन पञ्चायत, गया (दशलक्षणपर्वके उप__जी आगरा (विवाहोपलक्षमें) मा. पं. विष्णुकान्त लक्षमें) मार्फत मोहनलालजी जैन मन्त्री। ५) ला० दीपचन्दजी पांड्या, छिन्दवाड़ा (विवाहो- २५) व्यवस्थापक 'अनेकान्त अनेकान्तकी सहायताका सदुपयोग अनेकान्तपत्रको जो सहायता विवाह-शादी आदिके शुभ अवसरोंपर भेजी जाती है उसका बड़ा ही अच्छा सदुपयोग किया जाता है । उस सहायतामें अजैन विद्वानों, लायबेरियों, गरीब जैन विद्यार्थियों तथा असमर्थ जैन संस्थाओंको अनेकान्त फ्री (बिना मूल्य) अथवा रियायती मूल्य ३) रु०में भेजा जाता है। इससे दातारोंको दोहरा लाभ होता है-इधर वे अनेकान्तके सहायक बनकर पुण्य तथा यशका अर्जन करते हैं और उधर उन दूसरे सजनोंके ज्ञानार्जनमें सहायक होते हैं, जिन्हें यह पत्र उनकी सहायतासे पढ़नेको मिलता है। अतः इस दृष्टिसे अनेकान्तको सहायता भेजने-भिजवानेकी ओर समाजका बराबर लक्ष्य रहना चाहिये और कोई भी शुभ अवसर इसके लिये चूकना नहीं चाहिये । व्यवस्थापक 'अनेकान्त' For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अहम् तत्त्व:सघातक विश्व तत्त्व-प्रकाशक वार्षिक मूल्य ५) एक किरणका मूल्य ) 114 नीतिविरोधवसीलोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् । परमागमस्य बीज भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः॥ वर्ष ९ किरण ८ । वीरसेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम), सरसावा, जिला सहारनपुर श्रावणशुक्ल, वीरनिर्वाण-संवत २४७४, विक्रम संवत् २००५ अगस्त १९४८ समन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने युक्त्यनुशासन मिथोऽनपेक्षाः पुरुषार्थ-हेतु- . शीततारूपमें व्यवस्थित भी नहीं होती। परस्परनिरनांशा न चांशी पृथगस्ति तेभ्यः । पेक्ष सत्वादिक धर्म अथवा अवयव पुरुषार्थहेतुतारूप से उपलभ्यमान नहीं हैं, अतः पुरुषार्थहेतुतारूपसे परस्परेक्षाः पुरुषार्थ हेतु व्यवस्थित नहीं होते । यह युक्त्यनुशासन प्रत्यक्ष और दृष्टा नयास्तद्वदसि-क्रियायाम् ॥५०॥ आगमसे अविरुद्ध है।' ... (वस्तुको अनन्तधर्मविशिष्ट मानकर यदि यह जो अंश-धर्म परस्पर-सापेक्ष हैं वे पुरुषार्थके कहा जाय कि वे धम परस्पर-निरपेक्ष ही हैं और धर्मी हेतु हैं; क्योंकि उस रूपमें देखे जाते हैं जो जिस उनसे पृथक् ही है तो यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि) रूपमें देखे जाते हैं वे उसी रूपमें व्यवस्थित होते हैं, जो अंश-धर्म अथवा वस्तुके अवयव परस्पर-निरपेक्ष जैसे दहन (अग्नि) दहनताके रूपमें देखी जाती है हैं वे पुरुषार्थके हेतु नहीं हो सकते; क्योंकि उस रूपमें और इसलिये तद्रूपमें व्यवस्थित होती है; परस्परउपलभ्यमान नहीं हैं जो जिस रूपमें उपलभ्यमान सापेक्ष अंश स्वभावतः पुरुषार्थहेतुतारूपसे देखे जाते नहीं वह उस रूपमें व्यवस्थित भी नहीं होता, जैसे हैं और इसलिये पुरुषार्थहेतुरूपसे व्यवस्थित हैं। यह अग्नि शीतताके साथ उपलभ्यमान नहीं है तो वह • स्वभावकी उपलब्धि है।' For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८] अनेकान्त [ वर्ष ६ (इसी तरह) अंशी-धर्मी अथवा अवयवी- तरह परात्मामें भी राग होता है—दोनोंमें कथंचित् अंशोंसे-धर्मों अथवा अवयवोंसे-पृथक् नहीं है; अभेदके कारण, तथा परात्माकी तरह स्वात्मामें भी क्योंकि उसरूपमें उपलभ्यमान नहीं है जो जिस द्वेष होता है-दोनोंमें कथंचित् भेदके कारण, और - रूपमें उपलभ्यमान नहीं वह उसमें नास्तिरूप ही है, राग-द्वेषके कार्य ईर्ष्या, असूया, मद, मायादिक दोष जैसे अग्नि शीततारूपसे उपलभ्यमान नहीं है अतः प्रवृत्त होते हैं, जो कि संसारके कारण हैं, सकल शीततारूपसे उसका अभाव है । अंशोंसे अंशीका विक्षोभके निमित्तभूत हैं तथा स्वर्गाऽपवगके प्रतिबन्धक पृथक् होना सर्वदा अनुपलभ्यमान है अतः अंशोंसे हैं। और वे दोष प्रवृत्त होकर मनके समत्वका निरापृथक् अंशीका अभाव है। यह स्वभावकी अनुपलब्धि करम करते हैं-उसे अपनी स्वाभाविक स्थितिमें स्थित है। इसमें प्रत्यक्षतः कोई विरोध नहीं है, क्योंकि न रहने देकर विषम-स्थितिमें पटक देते हैं-, मनके परस्पर विभिन्न पदार्थों सह्याचल-विन्ध्याचलादि जैसों- समत्वका निराकरण समाधिको रोकता है, जिससे के अंश-अंशीभावका दर्शन नहीं होता। आगम-विरोध समाधि-हेतुक निर्वाण किसीके नहीं बन सकता । और भी इसमें नहीं है; क्योंकि परस्पर विभिन्न अर्थोके अंश- इसलिये जिनका यह कहना है कि 'मोक्षके कारण अंशीभावका प्रतिपादन करनेवाले आगमका अभाव समाधिरूप मनके समत्वकी इच्छा रखने वालेको है और जो आगम परस्पर विभिन्न पदार्थोंके अंश- ‘चाहिये कि वह जीवादि वस्तुको अनेकान्तात्मक न अंशीभावका प्रतिपादक है वह युक्ति-विरुद्ध होनेसे माने' वह भी ठीक नहीं है; क्योंकि) वे राग-द्वेषादिक आगमाभास सिद्ध है।' -जो मनकी समताका निराकरण करते हैं-एकान्त____ 'अंश-अंशीकी तरह परस्परसापेक्ष नय-नैगमा- धर्माभिनिवेश-मूलक होते हैं-एकान्तरूपसे निश्चय दिक-भी (सत्तालक्षणा) असिक्रियामें पुरुषार्थके हेतु किये हुए (नित्यत्वादि) धर्ममैं अभिनिवेश-मिथ्या हैं क्योंकि उस रूपमें देखे जाते हैं-उपलभ्यमान हैं। श्रद्धान' उनका मूलकारण होता है-और (मोही-इससे स्थितिग्राहक द्रव्यार्थिकनयके भेद नैगम, मिथ्यादृष्टि) जीवोंकी अहंकृतिसे--अहंकार तथा उससंग्रह, व्यवहार और प्रतिक्षण उत्पाद-व्ययके ग्राहक के साथी ममकारसे२-वे उत्पन्न होते हैं।' अथात पर्यायार्थिकनयके भेद ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ. - उन अहंकार-ममकार भावोंसे ही उनकी उत्पत्ति है जो एवंभूत ये सब परस्परमें सापेक्ष होते हुए ही वस्तुका मिथ्यादर्शनरूप मोह-राजाके सहकारी हैं-मन्त्री हैं', जो साध्य अर्थक्रिया-लक्षण-पुरुषार्थ है उसके निर्णय- अन्यसे नहीं-दूसरे अहंकार-ममकारके भाव उन्हें । के हेतु हैं-अन्यथा नहीं। इस प्रकार प्रत्यक्ष और जन्म देनेमें असमर्थ हैं। और (सम्यग्दृष्टि-जीवोंके) आगमसे अविरोधरूप जो अर्थका प्ररूपण सतरूप चूकि प्रमाणसे अनेकान्तात्मक वस्तुका ही निश्चय होता है वह सब प्रतिक्षण ध्रौव्योत्पाद-व्ययात्मक है; है और सम्यक् नयसे प्रतिपक्षकी अपेक्षा रखनेवाले अन्यथा सत्पना बनता ही नहीं। इस प्रकार युक्त्यनु एकान्तका व्यवस्थापन होता है अतः एकान्ताभिनिवेशका शासनको उदाहृत जानना चाहिये।' नाम मिथ्यादर्शन या मिथ्याश्रद्धान है, यह प्रायः निर्णीत है। एकान्त-धर्माऽभिनिवेश-मूला २ 'मैं इसका स्वामी' ऐसा जो जीवका परिणाम है वह रागादयोऽहंकृतिजा जनानाम् । 'अहंकार' है और 'मेरा यह भोग्य' ऐसा जो जीवका परिएकान्त-हानाच स यत्तदेव रणाम है वह 'ममकार' कहलाता है। अहंकारके साथ सामर्थ्यसे ममकार भी यहाँ प्रतिपादित है। स्वाभाविकत्वाच्च समं मनस्ते ॥५१॥ ३ कहा भी है-“ममकाराऽहंकारौ सचिवाविव मोहनीयराजस्य | न लोगोंका ऐसा खयाल है कि जीवादिवस्तु- रागादि-सकलपरिकर-परिपोषण-तत्परौ सततम् ॥१॥" का अनेकान्तात्मकरूपसे निश्चय होनेपर स्वात्माकी - -युक्त्यनुशासनटीकामें उद्धत । For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण८] एकान्तकी हानिसे - एकान्त धर्माभिनिवेशरूप मिथ्यादर्शनके अभाव से वह एकान्ताभिनिवेश उसी अनेकान्तके निश्चयरूप सम्यग्दर्शनत्वको धारण करता है जो आत्मा का वास्तविक रूप है; क्योंकि एकान्ताभिनिवेशका जो अभाव है वही उसके विरोधी अनेकान्तके निश्चयरूप सम्यग्दर्शनका सद्भाव है । और चूँकि यह एकान्ताभिनिवेशका अभावरूप सम्यग्दर्शन आत्माका स्वाभाविक रूप है अतः (हे वीर भगवन्!) आपके यहाँ आपके युक्त्यनुशासन में - ( सम्यग्दृष्टिके) मनका समत्व ठीक घटित होता है । वास्तवमें दर्शनमोहके उदयरूप मूलकारणके होते हुए चारित्रमोहके उदयमें जो रागादिक उत्पन्न होते हैं वे ही जीवोंके अस्वाभाविक परिणाम हैं; क्योंकि वे औदयिक भाव हैं और सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्ररूप जो परिणाम दर्शनमोहके नाश, चारित्रमोहकी उदयहानि और रागादिके अभावसे होते हैं वे आत्मरूप होनेसे जीवोंके स्वाभाविक परिणाम हैं- किन्तु पारिणामिक नहीं; क्योंकि पारिणामिक भाव कर्मोंके उपशमादिकी अपेक्षा नहीं रखते । ऐसी स्थिति में असंयत सम्यग्दृष्टिके भी स्वानुरूप मनः साम्यकी अपेक्षा मनका सम होना बनता है; क्योंकि उसके संयमका सर्वथा अभाव नहीं होता । अतः अनेकान्तरूप युक्यनुशासन रागादिकका निमित्तकारण नहीं, . वह तो मनकी समताका निमित्तभूत है । प्रमुच्यते च प्रतिपक्ष - दूषी जिन ! त्वदीयैः पटुसिंहनादैः । एकस्य नानात्मतया ज्ञ वृत्त े - बन्ध-मोक्ष स्वमतादबाह्यौ ॥५२॥ समन्तभद्र - भारती के कुछ नमूने '( यदि यह कहा जाय कि अनेकान्तवादीका भी अनेकान्तमें राग और सर्वथा एकान्तमें द्वेष होनेसे उसका मन सम कैसे रह सकता है, जिससे मोक्ष बन सके ? मोक्षके अभावमें बन्धकी कल्पना भी नहीं बनती । अथवा मनका सदा सम रहना माननेपर बन्ध नहीं बनता और बन्धके अभाव में मोक्ष घटित नहीं हो सकता, जो कि बन्धपूर्वक होता है । अतः 1 [ २८६ बन्ध और मोक्ष दोनों ही अनेकान्तवादीके स्वमतसे बाह्य ठहरते हैं- मनकी समता और असमता दोनों ही स्थितियोंमें उनकी उपपत्ति नहीं बन सकती-तो यह कहना ठीक नही है; क्योंकि ) जो प्रतिपक्षदूषी है - प्रतिद्वन्द्वीका सर्वथा निराकरण करनेवाला एकान्तायही है - वह तो हे वीर जिन ! आप (अनेकान्तवादी) के एकाऽनेकरूपता जैसे पटुसिंहनादोंसे - निश्चयात्मक एवं सिंहगर्जनॉकी तरह अबाध्य ऐसे युक्ति - शास्त्राविरोधी आगमवाक्योंके प्रयोगद्वारा — प्रमुक्त ही किया जाता है— वस्तुतत्त्वका विवेक कराकर अतत्त्वरूप एकान्ताग्रहसे उसे मुक्ति दिलाई जाती है- क्योंकि प्रत्येक वस्तु नानात्मक है, उसका नानात्मकरूपसे निश्चय ही सर्वथा एकान्त प्रमोचन है । ऐसी दशा में अनेकान्तवादीका एकान्तवादीके साथ कोई द्वेष नहीं हो सकता और चूँकि वह प्रतिपक्षका भी स्वीकार करनेवाला होता है। इसलिये स्वपक्षमें उसका सर्वथा राग भी नहीं बन सकता । वास्तवमें तत्त्वका निश्चय ही राग नहीं होता । यदि तत्त्वका निश्चय ही राग होवे तो क्षीणमोहीके भी का प्रसङ्ग आएगा. जोकि असम्भव है. और न तत्त्वके व्यवच्छेदको ही द्वेष प्रतिपादित किया जा सकता है, जिसके कारण अनेकान्तवादीका मन सम न रहे । अतः अनेकान्तवादीके मनकी समता के निमित्तसे होनेवाले मोक्षका निषेध कैसे किया जा सकता है ? और मनका समत्व सर्वत्र और सदाकाल नहीं बनता, जिससे राग-द्वेषके अभाव से बन्धके अभावका प्रसङ्ग आवे; क्योंकि गुणस्थानोंकी अपेक्षासे किसी तरह, कहींपर और किसी समय कुछ पुण्यबन्धकी उपपत्ति पाई जाती है । अतः बन्ध और मोक्ष दोनों अपने (अनेकान्त) मतसे—जोकि अनन्तात्मक तत्त्व - विषयको लिये हुए है – बाह्य नहीं हैं— उसीमें वस्तुतः उनका सद्भाव है- क्योंकि बन्ध और मोक्ष दोनों ज्ञवृत्ति हैं — अनेकान्तवादियोंद्वारा स्वीकृत ज्ञाता आत्मामें ही उनकी प्रवृत्ति है । और इसलिये सांख्योंद्वारा स्वीकृत प्रधान (प्रकृति) के अनेकान्तात्मक होनेपर भी उसमें दोनों घटित नहीं हो सकते; क्योंकि प्रधान (प्रकृति)के अज्ञता होती है - वह ज्ञाता नहीं माना गया है ।' For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० ] अनेकान्त [ वर्ष : आत्मान्तराऽभाव-समानता न लगाया जासकता-और अश्लिष्ट है-किसी भी प्रकार वागास्पदं स्वाऽऽश्रय-भेद-हीना 1 के विशेष (भेद) को साथमें लिये हुए नहीं है--वह (सर्वव्यापी, नित्य, निराकाररूप सत्त्वादि) सामान्य • भावस्य सामान्य-विशेषवत्त्वा मेय-अप्रमेय ही है किसी भी प्रमाणसे जाना 'दैक्ये तयोरन्यतरन्निरात्म ॥५३॥ नहीं जासकता । भेदके माननेपर भी सामान्यको (यदि यह कहा जाय कि एकके नानात्मक अर्थके स्वाश्रयभूत द्रव्यादिकोंके साथ भेदरूप स्वीकार करने प्रतिपादक शब्द पदसिंहनाद प्रसिद्ध नहीं है: क्योकि पर भी सामान्य प्रमेय नहीं होता; क्योंकि उन बौद्धोंके अन्याऽपोहरूप जो सामान्य है उसके वागा- द्रव्यादिकोंमें उसकी वृत्तिकी अपवृत्ति (व्यावृत्ति)का स्पदता--वचनगोचरता है, और वचनोंके वस्तु- सद्भाव है--सामान्यकी वृत्ति उनमें मानी नहीं गई है, विषयत्वका असम्भव है, तो यह कहना ठीक नहीं है; और जब तक सामान्यकी अपने आश्रयभूत द्रव्यादिक्योंकि) आत्मान्तरके अभावरूप-आत्मस्वभावसे कोंमें वृत्ति नहीं है तब तक दोनोंका संयोग कुण्डीमें भिन्न अन्य-अन्य स्वभावके अपोहरूप-जो समानता बेरोंके समान ही होसकता है; क्योंकि सामान्यके (सामान्य) अपने आश्रयरूप भेदोंसे हीन (रहित) है अद्रव्यपना है तथा संयोगका अनाश्रयपना है और वह वागास्पद-वचनगोचर-नहीं होती; क्योंकि संयोगके द्रव्याश्रयपना है। ऐसी हालतमें सामान्यकी वस्तु सामान्य और विशेष दोनों धर्मोको लिये हुए है।' द्रव्यादिकमें वृत्ति नहीं बन सकती।' . (यदि यह कहा जाय कि पदार्थके सामान्य- . 'यदि सामान्यकी द्रव्यादिवस्तुके साथ वृत्ति विशेषवान् होनेपर भी सामान्यके ही वागास्पदता मानी भी जाय तो वह वृत्ति भी न तो सामान्यको युक्त है; क्योंकि विशेष उसीका आत्मा है, और इस कृत्स्न (निरंश) विकल्परूप मानकर बनती है और तरह दोनोंकी एकरूपता मानी जाय, तो) सामान्य न अंश विकल्परूप । क्योंकि अंशकल्पनासे रहित और विशेष दोनोंकी एकरूपता स्वीकार करनेपर एकके कृत्स्न विकल्परूप सामान्यकी देश और कालसे भिन्न निरात्म (अभाव) होनेपर दूसरा भी (अविनाभावी व्यक्तियोंमें युगपत्वृत्ति सिद्ध नहीं की जासकती। होनेके कारण) निरात्म (अभावरूप) हो जाता है- उससे अनेक सामान्योंकी मान्यताका प्रसङ्ग आता और इसतरह किसीका भी अस्तित्व नहीं बन समता. है.जो उक्त सिद्धान्तमान्यताके साथ माने नहीं गये हैं: अतः दोनोंकी एकता नहीं मानी जानी चाहिए।' क्योंकि एक तथा अनंशरूप सामान्यका उन सबके अमेयमश्लिष्टममेयमेव । साथ युगपत् योग नहीं बनता। यदि यह कहा जाय कि सामान्य भिन्न देश और कालके व्यक्तियोंके साथ भेदेऽपि मवृत्यपवृत्तिभावात् । युगपत् सम्बन्धवान् है, क्योंकि वह सर्वगत, नित्य वृत्तिश्च कृत्स्नांश-विकल्पतो न और अमूर्त है, जैसे कि आकाश; तो यह अनुमान मानं च नाऽनन्त-समाश्रयस्य ॥५४॥ भी ठीक नहीं है। इससे एक तो साधन इष्टका '(यदि यह कहा जाय कि आत्मान्तराभावरूप- विघातक हो जाता है अर्थात् जिस प्रकार वह भिन्न अन्यापोहरूप-सामान्य वागास्पद नहीं है, क्योंकि देश-कालके व्यक्तियोंके साथ सम्बन्धिपनको सिद्ध वह अवस्तु है; बल्कि वह सर्वगत सामान्य ही वागा- करता है उसी प्रकार वह सामान्यके आकाशकी तरह स्पद है जो विशेषोंसे अश्लिष्ट है--किसी भी प्रकारके सांशपनको भी सिद्ध करता है जोकि इष्ट नहीं है; भेदको साथमें लिये हुए नहीं है तो ऐसा कहना ठीक क्योंकि सामान्यको निरंश माना गया है। दूसरे, नहीं है; क्योंकि) जो अमेय है-नियत देश, काल सामान्यके निरंश होनेपर उसका युगपत् सर्वगत . और आकारकी दृष्टिसे जिसका कोई अन्दाजा नहीं [शेषांश पृष्ठ ३२० पर] For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वादीभसिंहमूरिकी एक अधूरी अपूर्व कृति स्याहादसिद्धि (लेखक-न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजी, कोठिया) गत वर्ष श्रीयुत् पं० के० भुजबलीजी मूडबिद्रीकी गम्भीर होती है। पर इस कृतिकी भाषा अत्यन्त, प्रसन्न कृपासे हमें वादीभसिंहसूरिकी एक कृति प्राप्त हुई थी, विशद और बिना किसी विशेष कठिनाईके अर्थबोध जिसका नाम है 'स्याद्वादसिद्धि' और जिसके लिये हम करानेवाली है । ग्रन्थको आप सहजभावसे पढ़ते उनके आभारी हैं। . जाइये, अर्थबोध होता जायगा । हाँ, कुछेक स्थल यह जैनदर्शनका एक महत्वपूर्ण एवं उच्चकोटिका ऐसे जरूर हैं जहाँ पाठकको अपना दिमाग लगाना अपूर्व ग्रन्थरत्न है। सुप्रसिद्ध जैनतार्किक भट्टाकलङ्क- पड़ता है और जिससे ग्रन्थकी प्रौढता, विशिष्टता एवं देवके न्यायविनिश्चय, प्रमाणसंग्रह, लघीयत्रय आदि- अपूर्वताका भी कुछ परिचय मिल जाता है। भाषाकी तरह यह कारिकात्मक प्रकरण-ग्रन्थ है। दुःख है के सुन्दर और सरल पद-वाक्योंके प्रयोगोंसे समूचे कि विद्यानन्दकी 'सत्यशासनपरीक्षा' और हेमचन्द्र- ग्रन्थकी रचना भी प्रशस्त एवं हृद्य है। चूँ न्थकार की 'प्रमाणमीमांसा' की तरह यह कृति भी अधूरी ही उत्कृष्ट कोटिके दार्शनिक और वाग्मीके अतिरिक्त उच्चउपलब्ध है। मालूम नहीं, यह अपने पूरे रूपमें और कोटिके कवि भी थे और इस लिये उनकी यह रचना . किसी शास्त्रभण्डारमें मौजूद है या नहीं । अथवा, कवित्व-कलासे परिपूर्ण है । यह ग्रन्थकारकी स्वतन्त्र यह ग्रन्थकारको अन्तिम रचना है, जिसे वे स्वर्गवास पद्यात्मक रचना है-किसी गद्य या पद्यरूप मूलकी होजानेके कारण पूरी नहीं कर सके । फिर भी यह व्याख्यात्मक रचना नहीं है। इस प्रकारकी रचना प्रसन्नताकी बात है कि उपलब्ध रचनामें १३ प्रकरण रचनेकी प्रेरणा उन्हें अकलङ्कदेवके न्यायविनिपूरे और १४वाँ प्रकरण अपूर्ण (बहुभाग), इस तरह श्चयादि और शान्तरक्षितके तत्त्वसंग्रहादिसे मिली लगभग १४ प्रकरण पाये जाते हैं और इन सब जान पड़ती है । बौद्धदर्शनमें धर्मकीर्ति (ई० ६२५)की प्रकरणोंमें अकलङ्कदेवके न्यायविनिश्चयसे, जिसकी सन्तानान्तरसिद्धि, कल्याणरक्षित (ई. ७००)की कारिकाओंका प्रमाण ४८० है, २१ कारिकाएँ अधिक बाह्यार्थसिद्धि, धर्मोत्तर (ई० ७२५)की परलोकसिद्धि अर्थात् ५०१ जितनी कारिकाएँ सन्निबद्ध हैं। इससे तथा क्षणभङ्गसिद्धि, और शङ्करानन्द (ई० ८००) इस ग्रन्थकी महत्ता और विशालता जानी जा सकती की अपोहसिद्धि, प्रतिबन्धसिद्धि जैसे सिद्धथन्त है। यदि यह अपने पूर्णरूप में होता तो कितना विशाल नामवाले ग्रन्थ रचे गये हैं। और इनसे भी पहले होता, यह कल्पना ही बड़ी सुखद प्रतीत होती है। स्वामी समन्तभद्रकी जीवसिद्धि रची गई है। दुर्भाग्यसे यह अभी तक विद्वत्संसारके सामने नहीं संभवतः ग्रन्थकारने अपनी 'स्याद्वादसिद्धि' भी उसी आ सका और इसलिये अप्रकाशित एवं अपरिचित तरह सिद्धयन्त नामसे रची है। . दशामें पड़ा चला आ रहा है। ग्रन्थका मङ्गलाचरण और उद्देश्य ग्रन्थकी भाषा और रचना शैली ग्रन्थको प्रारम्भ करनेके पहले ग्रन्थकारने अपनी यद्यपि दार्शनिक प्रन्थोंकी भाषा प्रायः दुरूह और पूर्वपरम्परानुसार एक कारिकाद्वारा ग्रन्थका मङ्गला For Personal & Private Use Only Jain Education Interational Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२] - अनेकान्त [वर्ष चरण और दूसरी कारिकाद्वारा ग्रन्थका उद्देश्य निम्न द्वादसिद्धौ क्षणिकवादिनं प्रति युगपदनेकान्तसिद्धिः।' प्रकार प्रदर्शित किया है -पद्य ६६-१४२ । ... " द्वनाय स्वामिने विश्ववेदिने । (४) 'इति श्रीमद्वादीभसिंहसूरिविरचितायां स्यानित्यानन्द-स्वभावायः भक्त-सारूप्यदायिने ॥१॥ द्वादसिद्धौ क्षणिकवादिनं प्रति क्रमानेकान्तसिद्धिः।' सर्व सौख्यार्थितायां च तदुपाय-पराङ्मुखाः । -कारिका १४३-२३१ । तदुपायं ततो वक्ष्ये न हि कार्यमहेतुकम् ॥२॥". (५) 'इति नित्यवादिनं प्रति धर्मकर्तुर्भोक्तृत्वा__ यहाँ पहली मङ्गल-कारिकामें प्रथम पाद त्रुटित है भावसिद्धिः।' -का० २३२-२६३ । और जो इस प्रकार होना चाहिए–'नमः श्रीवर्द्ध ___(६) इति नित्यैकान्तप्रमाणे सर्वज्ञाभावसिद्धिः ।' मानाय' । अक्षर और मात्राओंकी दृष्टिसे यह पाठ -का० २६४-२८५। ठीक बठ जाता है। यदि यही शुद्ध पाठ हो तो इस ___(७) 'इति जगत्कर्तुरभावसिद्धिः ।' कारिकाका अर्थ इस प्रकार होता है -का०२८६-३०७। ____ श्री अन्तिम तीर्थङ्कर वर्द्धमानस्वामीके लिये ____(E) इति भगवदहंन्नेव सर्वज्ञ इति सिद्धिः।' नमस्कार है जो विश्ववेदी (सर्वज्ञ) हैं. नित्यानन्द स्वभाव -का०३०८-३२६ । (अनन्तसुखात्मक) हैं और अपने भक्तोंको समानता (6) 'इत्यर्थापत्तेर प्रामाण्यसिद्धिः । . (बराबरी) देनेवाले हैं जो उनकी उपासना करते हैं -का०३३०-३५२ । वे उन जैसे बन जाते हैं।' (१०) 'इति वेदपौरुषेयत्वसिद्धिः।' का० ३५३-३६२ दूसरी कारिकामें कहा गया है कि 'समस्त प्राणी (११) 'इति परतः प्रामाण्यसिद्धिः।' का. ३६३-४१६ सुख चाहते हैं, परन्तु वे सुखका सच्चा उपाय नहीं (१२) 'इत्यभावप्रमाणदूषणसिद्धिः।' का.४२०-४२४ . जानते । अतः इस ग्रन्थद्वारा सुखके उपायका कथन (१३) 'इति तर्कप्रामाण्यसिद्धिः।' का. ४२५-४४५ (१४) यह प्रकरण का० ४४६ से का० ५०१ तक करूँगा; क्योंकि बिना कारणके कार्य उत्पन्न नहीं होता।' उपलब्ध है और अधूरा है । जैसा कि उसकी निम्न विषय-परिचय अन्तिम कारिकासे स्पष्ट हैजान पड़ता है कि ग्रन्थकार इस ग्रन्थकी रचना न संबध्नात्यसंबद्धः परत्रैवमदर्शनात् । बौद्धविद्वान् शान्तरंक्षितके तत्त्वसंग्रहकी तरह विशाल समवेतो हि संयोगो द्रव्यसंबन्धकृन्मतः ॥१०॥ रूपमें करना चाहते थे और उन्हींकी तरह इसके इन प्रकरणोंमें पहले 'जीवसिद्धि' प्रकरणमें अनेक प्रकरण बनाना चाहते थे। यही कारण है कि चार्वाकको लक्ष्य करके सहेतुक जीव-आत्माकी जो उपलब्ध रचना है और जो समग्र ग्रन्थका संभवतः सिद्धि की गई है और आत्माको भूतसंघातका कार्य भाग है उसमें प्रायः १४ प्रकरण ही उपलब्ध है। माननेका निरसन किया गया है। जैसाकि इन प्रकरणोंके समाप्तिसूचक पुष्पिकावाक्योंसे प्रकट है और जो निम्न प्रकार हैं: दूसरे ‘फलभोक्तत्वाभासिद्धि' प्रकरणमें क्षणिक वादी बौद्धोंके मतमें दूषण दिया गया है कि क्षणिक (१) इति श्रीवादीभसिंहसूरिविरचितायां स्या चित्तसन्तानरूप आत्मा धर्मादिजन्य स्वर्गादि फलका द्वादसिद्धौ चार्वाकं प्रति जीवसिद्धिः ।'-पद्य १से २४। (२) 'इति- श्रीमद्वादीभसिंहसूरिविरचितायां स्या भोक्ता नहीं बन सकता; क्योंकि धर्मादि करनेवाला चिंत्त क्षणध्वंसी है-वह उसी समय नष्ट हो जाता है द्वादसिद्धौ बौद्धवादिन प्रति स्याद्वादानभ्युपगमे धर्मकर्तुः फलभोक्तृत्वाभावसिद्धिः। -पद्य २५से ६८। १ 'सत्येवाऽऽत्मनि धर्म च सौख्योपाये सुखार्थिभिः । . (३) 'इति श्रीमद्वादीभसिंहसूरिविरचितायां स्या- धर्म एव सदा कार्यो न हि कार्यमकारणे ॥२४॥ For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण८] यह नियम है कि 'कर्ता ही फलभोक्ता होता है ।' - अतः आत्माको कथञ्चित् नाशशील - सर्वथा नाशशील नहीं— स्वीकार करना चाहिए । और तब कर्तृत्व और फलभोक्तृत्व दोनों एक (आत्मा) के बन सकते हैं। तीसरे 'युगपदनेकान्तसिद्धि' और चौथे 'क्रमानेकान्तसिद्धि' नामके प्रकरणों में वस्तुको युगपत् और से वास्तविक अनेकधर्मात्मक सिद्ध किया गया है और बौद्धाभिमतं संतान तथा संवृतिकी युक्तिपूर्ण मीमांसा करते हुए चित्तक्षणोंको निरन्वय एवं निरंश स्वीकार करने में एक मार्केका दूषण यह दिया गया है कि जब चित्तक्षणोंमें अन्वय नहीं है - वे सर्वथा भिन्न हैं तो दाताको ही स्वर्ग हो और वधकको ही नरक हो' यह नियम नहीं बन सकता । प्रत्युत : इसके विपरीत भी सम्भव है — दाताको नरक और aasai स्वर्ग क्यों न हो ? वादी सिंहसूरकी एक अधूरी अपूर्व कृति स्याद्वादसिद्धि पाँचवें भोक्तृत्वाभावसिद्धि, छठे सर्वज्ञाभावसिद्धि, सातवें जगत्कर्तृ त्वाभावसिद्धि, आठवें अर्हत्सर्वज्ञसिद्धि, नवें अर्थापत्ति प्रमाणसिद्धि, दशवें वेदपौरुपेयत्वसिद्धि, ग्यारहवें परतः प्रामाण्यसिद्धि, बारहवें अभावप्रमाणदूषणसिद्धि और तेरहवें तर्कप्रामाण्यसिद्धि नामक प्रकरणों में अपने-अपने नामानुसार विषय चर्णित है । चउदहवें प्रकरण में वैशेषिकके गुण-गुणीदाद और समवायादि पदार्थोंका समालोचन किया गया है । सम्भव है ग्रन्थका जो शेष भाग अनुपलब्ध थकाने सांख्य, नैयायिक आदि दर्शनोंकी होवा करनेका विचार रखा हो। अस्तु • [ २९३ अन्य ग्रन्थकारों और उनके ग्रन्थवाक्योंका उल्लेख ग्रन्थकारने इस रचनामें अन्य ग्रन्थकारों और उनके ग्रन्थवाक्योंका भी उल्लेख किया है। प्रसिद्ध मीमांसक कुमारिलभट्ट और प्रभाकरका नामोल्लेख करके उनके वेदवाक्यार्थका खण्डन किया है । यथा नियोग-भावनारूपं भिन्नमर्थद्वयं तथा । भट्ट-प्रभाकराभ्यां हि वेदार्थत्वेन निश्चितम् ||६-२८२॥ इसी तरह अन्य तीन जगहोंपर कुमारिलभट्टके मीमांसाश्लोकवार्तिकसे 'वार्त्तिक' नामसे अथवा बिना उसके नामसे निम्न तीन कारिकाएँ उद्धत हुई हैं और उनकी आलोचना की गई है (क) स्वतः सर्वप्रमाणानां प्रामाण्यमिति गम्यताम् । न हि स्वतोऽसती शक्तिः कर्तुं मन्येन शक्यते ॥ [मी० लो० सू० २, का० ४७ ] इति वार्तिकसद्भावात् । ११-३६३ ।। (ख) शब्दे दोषोद्भवस्तावद्वक्तृयधीन इति स्थितिः । तदभावः कचित्तावद्गुणवद्वक्तृकत्वतः ॥ [मी० लो० सू० २, का० ६२ ] इति वार्तिकतः शब्द " । ११-४११।। (ग) यद्वेदाध्ययनं सर्वं तदध्ययनपूर्वकम् । तदध्ययनवांच्यत्वादमने भवेदिति ( दधुनाध्यनं यथा ) ॥ [मी० लो० अ० ७ का० ३५५] इत्यस्मादनुमानात्स्याद्वेदस्या पौरुषेयता |१०-३७६ ।। इसी तरह प्रशस्तकर, दिग्नाग, धर्मकीर्ति जैसे विद्वानोंके पद- वाक्यादिक्रोंके भी उल्लेख इसमें पाये जाते हैं । १ ' ततः कथञ्चिन्नाशित्वे कर्त्रा लब्धं फलं भवेत् । तन्नाशो नेष्यते तस्माद्धर्मो कार्योऽस्तु सौगतैः ||६८||' २ ' तथा च दातुः स्वर्गः स्यान्नरको हन्तुरित्ययम् । नियमो न भवेत् किन्तु विपर्यासोऽपि सम्भवेत् ॥ ३-११६' ३ 'गुणाद्यभेदो गुण्यादेस्तथा निर्बाधबोधतः । तद्वत्तस्यान्यथा हानेगुणादेखि संख्यया ॥ १४-४४६॥ समवायान्न तद्बुद्धिरिहेदं प्रत्ययो ह्यतः । (१) आदिपुराणके कर्ता जिनसेनस्वामीने, जिनका समय ई०८३८ है, अपने आदिपुराण में एक 'वादिसिंह' दृष्टान्ते तददृष्टेश्च तत्सम्बन्धेऽप्ययोगतः ॥ १४-४४७ ॥' नामके आचार्यका स्मरण किया है और उन्हें उत्कृष्ट ग्रन्थकर्ता और उनका समय ग्रन्थकर्ता और उनके समयपर भी कुछ विचार कर लेना आवश्यक है । ये ग्रन्थकार वादीभसिंहसूरि कौनसे वादीभसिंहसूर हैं और कब हुए हैं- :- उनका क्या समय है ? नीचे इन्हीं दोनों बातोंपर विचार किया जाता है । For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ ] कोटिका कवि, उत्कृष्टकोटिका वाग्मी तथा उत्कृष्ट कोटिका गमक बतलाया है । यथा कवित्वस्य परा सीमा वाग्मितस्यं परं पदम् । - मत्वस्य पर्यन्तो वादिर्सिंहोऽर्च्यते न कैः ॥ (२) पार्श्वनाथ चरितकार वादिराजसूरि (ई. १०२५) ने भी पार्श्वनाथचरितमें 'वादिसिंह' का समुल्लेख किया है और उन्हें स्याद्वादवाणीकी गर्जना करनेवाला (स्याद्वादविजेता) तथा दिग्नाग और धर्मकीर्तिके अभिमानको 'चूर-चूर करनेवाला प्रकट किया है । यथास्याद्वादगरमाश्रित्य वादिसिंहस्य गर्जिते । दिङ्नागस्य मदध्वंसे कीर्तिभङ्गो न दुर्घटः ' ॥ (३) श्रवणबेलगोलाकी मल्लिषेणप्रशस्ति (ई० ११२८) में एक वादीभसिंहसूरि अपरनाम गणभृत् (आचार्य) अजितसेनका गुणानुवाद किया गया है और उन्हें स्याद्वादुद्विद्या के पारगामियोंका आदरपूर्वक सतत वन्दनीय और लोगोंके भारी आन्तर तमको नाश करनेके लिये पृथिवीपर आया दूसरा सूर्य बतलाया गया है । इसके अलावा, उन्हें अपनी गर्जनाद्वारा वादि-गजोंको शीघ्र चुप करके निग्रहरूपी जीर्ण गड्ढे में पटकनेवाला तथा राजमान्य भी कहा गया है । यथा 1 वन्दे वन्दितमादरादहरहस्स्याद्वादविद्या - विदां । स्वान्तः ध्वान्त-वितान धूनन- विधौ भास्वन्तमन्यं भुवि । भक्त्या त्वाऽजितसेनमानतिकृतां यत्सन्नियोगान्मनःपद्मः सद्म भवेद्विकास-विभवस्योन्मुक्त-निद्रा-भरं ॥ ५४॥ १ इस श्लोकपरसे पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीको कुछ भ्रम हुआ है। श्रुतएव उन्होंने वादिसिंहको दिग्नाग और धर्मकीर्तिका समकालीन समझते हुए लिखा है कि 'वादिराजने इस श्लोकमें बौद्धाचार्य दिङ नाग और कीर्ति (धर्मकीर्ति) का ग्रहण करके वादिसिंहको उनका समकालीन बतलाया है ।' (न्याय कु. प्र. प्र. पू. ११२ ) । पर वास्तवमें वादिराजने वादिसिंहको उक्त बौद्धविद्वानोंका समकालीन नहीं बतलाया । उनके उक्त उल्लेखका इतना ही अभिप्राय है कि दिग्नाग और धर्मकीर्तिको अपनी कृतियोंपर जो अभिमान रहा होगा वह वादिसिंहकी गजना—स्याद्वादविद्यासे भरपूर अपनी (स्याद्वाद सिद्धि जैसी) कृतियोंसे नष्ट कर दिया गया । क मिथ्या -भाषणं भूषणं परिहरेतौद्धत्यमुन्मुञ्चत, स्याद्वादं वदतानमेत विनयाद्वादीभकण्ठीरवं । नो चेत्तद्गुरुगर्जित-श्रुति-भय-भ्रान्ता स्थ यूयं यतस्तूर्ण निग्रहजीर्णकूप- कुहरे वादि - द्विपाः पातिनः।। ५५ सकल-भुवनपालानम्रमूर्द्धावबद्धस्फुरित-मुकुट - चूडालीढ - पादारविन्दः । मदवदखिल - वादीभेन्द्र - कुम्भप्रभेदी, गणद जितसेन भाति वादीभसिंह ॥५७॥ - शिलालेख नं० ५४ (६७) (४) सहस्रके टिप्पणकार लघुसमन्तभद्रने भी अपने टिप्पणके प्रारम्भ में एक वादीभसिंहका उल्लेख निम्न प्रकार किया है विद्यानन्दस्वामिनस्तदादौ . 'तदेवं महाभागैस्तार्किकार्कैरुपज्ञातां श्रीमता वादीभसिंहेनोपलालितामाप्तमीमांसामलं चिकीर्षवः स्याद्वादोद्भासिसत्यवाक्यमाणिक्यमकारिकाघटमदेकटकाराः सूरयो प्रतिज्ञाश्लोकमेकमाह - ' - अष्टसहस्त्री टि० पृष्ठ १ । यहाँ लघु समन्तभद्रने वादीभसिंहको समन्तभद्राचार्य रचित आप्तमीमांसाका उपलालन (परिपोषण) कर्ता बतलाया है । यदि लघुसमन्तभद्रका यह उल्लेख अभ्रान्त है तो कहना होगा कि वादीभसिंहने आप्तमीमांसा कोई महत्वकी टीका लिखी है और उसके द्वारा आप्तमीमांसाका उन्होंने परिपोषण किया है । श्री० पं० कैलाशचंद्रजी शास्त्रीने भी इसकी सम्भावनाकी है' और उसमें आचार्य विद्यानन्दके 'अत्र शास्त्रपरिसमाप्तौ केचिदिदं मङ्गलवचनमनुमन्यन्ते' शब्दोंके साथ उद्धृत किये ‘जयति जगति' आदि पद्यको प्रस्तुत किया है । कोई आश्चर्य नहीं कि विद्यानन्दके पूर्व आप्तमीमांसापर लघु समन्तभद्रद्वारा उल्लिखित वादीभसिंहनेही टीका रची हो और जिससे हो लघुसमन्तभद्रने उन्हें आप्तमीमांसाका उपलालनकर्ता कहा है और विद्यानन्द ने 'केचित्' शब्दोंके साथ उन्होंकी टीका के उक्त 'जयति' आदि समाप्तिमङ्गलको अष्टसहस्रीके अन्तमें अपने तथा अलङ्कदेव के समाप्तिमङ्गल के पहले उद्धृत किया है । १ न्यायकु० प्र० भा० प्र० पृ० १११ । For Personal & Private Use Only [ वर्ष - Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ८] वादीभसिंहसूरिकी एक अधूरी अपूर्व कृति स्याद्वादसिद्धि [ २६५ (५) क्षत्रचूडामणि और गद्यचिन्तामणि काव्य- वादीभसिंहके होना चाहिए, जिनका दूसरा नाम ग्रन्थोंके कर्ता वादीभसिंहसूरि विद्वत्समाजमें अति- मल्लिषेणप्रशस्ति और निर्दिष्ट शिलालेखोंमें अजितसेन विख्यात और सुप्रसिद्ध हैं। मुनि अथवा अजितसेन पंडितदेव भी पाया जाता है ___ (६) पं० के० भुजबलीजी शास्त्री' ई० १०६० तथा जिनके उक्त प्रशस्तिमें शान्तिनाथ और पद्मनाभ और ई० ११४७ के नं० ३ तथा नं० ३७ के दो शिला- अपरनाम श्रीकान्त और वादिकोलाहल नामके दो लेखोंके आधारपर एक वादीभसिंह (अपर नाम शिष्य भी बतलाये गये हैं। इन मल्लिषेणप्रशस्ति अजितसेन) का उल्लेख करते हैं। और शिलालेखोंका लेखनकाल ई० ११२८, ई० १०६० (७) श्रुतसागरसूरिने भी सोमदेवकृत यशस्तिलक और ई० ११४७ है और इस लिये इन वादीभसिंहका (आश्वास २, १२६) की अपनी टोकामें एक वादीभ- समय लगभग ई० १०६५ से ई० ११५० तक हो सिंहका निम्न प्रकार उल्लेख किया है और उन्हें सोम- सकता है । बाकीके चार उल्लेख-पहला, दूसरा, देवका शिष्य कहा है: चौथा और पाँचवाँ–प्रथम वादीभसिंहके होना 'वादीभसिंहोऽपि मदीयशिष्यः चाहिए, जिन्हें 'वादिसिंह' नामसे भी साहित्यमें श्रीवादिराजोऽपि मदीयशिष्यः । इत्युक्तत्वाच्च ।' ___ उल्लेखित किया गया है । वादीभसिंह और वादिसिंहवादिसिंह और वादीभसिंहके ये सात उल्लेख के अथमें कोई भेद नहीं है--दोनोंका एक ही अर्थ है। है जो अबतककी खोजके परिणामस्वरूप विद्वानोंको चाहे वादीरूपी गजोंके लिये सिंह' यह कहो. चाहे जैनसाहित्यमें मिले हैं। अब देखना यह है कि ये 'वादियोंके लिये सिंह' यह कहो-एक ही बात है। सातों उल्लेख भिन्न भिन्न हैं अथवा एक ? अब यदि यह निष्कर्ष निकाला जाय कि क्षत्रअन्तिम उल्लेखको प्रेमीजी', पं० कैलाशचन्द्रजी' चूडामणि और गद्यचिन्तामणि इन प्रसिद्ध काव्यग्रंथोंआदि विद्वान अभ्रान्त और विश्वसनीय नहीं मानते। के कर्ता वादीभसिंहसूरि ही स्याद्वादसिद्धिकार हैं और इसमें उनका हेतु है कि न तो वादीभसिंहने ही अपने- इन्हींने आप्तमीमांसापर विद्यानन्दसे पूर्व कोई टीका को सोमदेवका कहीं शिष्य प्रकट किया और न वादि- अथवा वृत्ति लिखी है जो लघुसमन्तभद्रके उल्लेख राजने ही अपेनेको उनका शिष्य बतलाया है। प्रत्युत परसे जानी जाती है नथा इन्हीं वादीभसिंहका वादीभसिंहने तो पुष्पसेन मुनिको और वादिराजने 'वादिसिंह' नामसे जिनसेन और वादिराजने बड़े " ' मतिसागरको अपना गुरु बतलाया है। दूसरे, सोम- सम्मानपूर्वक स्मरण किया है। तथा 'स्याद्वादगिरा देवने उक्त वचन किस ग्रन्थ और किस प्रसङ्गमें कहा, माश्रित्य वादिसिंहस्य गर्जिते' वाक्यमें वादिराजने यह सोमदेवके उपलब्ध ग्रन्थोंपरसे ज्ञात नहीं होता। 'स्याद्वादगिर' पदके द्वारा इन्हींकी प्रस्तुत स्याद्वादसिद्धि अतः जबतक अन्य प्रमाणोंसे उसका समर्थन नहीं जैसी स्याद्वादविद्यासे परिपूर्ण कृतियोंकी ओर होता तबतक उसे प्रमाणकोटिमें नहीं रखा जा सकता। इशारा किया है तो कोई अनौचित्य नहीं प्रतीत होता। अवशिष्ट छह उल्लेखोंमें, मेरा विचार है कि तीसरा इसके औचित्यको सिद्ध करनेके लिये नीचे कुछ और छठा ये दो उल्लेख अभिन्न हैं तथा उन्हें एक दूसरे प्रमाण भी उपस्थित किये जाते हैं। (१) क्षत्रचूडामणि और गद्यचिन्तामणिके मङ्ग१ देखो, जैनसिद्धान्तभास्कर भाग ६, कि० २, पृ० ७८ । लाचरणोंमें कहा गया है कि जिनेन्द्र भगवान भक्तोंके २ देखो, ब्र० शीतलप्रसादजी द्वारा सङ्कलित तथा अनुवादित समीहित (जिनेश्वरपदप्राप्ति)को पुष्ट करें-देवें । यथा'मद्रास व मैसूर प्रान्तके प्राचीन स्मारक' नामक पुस्तक । (क) श्रीपतिर्भगवान्पुष्याद्भक्तानां वः समीहितम् । १.देखो, जैनसाहित्य और इतिहास पृ० ४८०। यद्भक्तिः शुल्कतामेति मुक्तिकन्याकरग्रहे ॥१॥ ४ देखो, न्यायकुमुद प्र० भा प्रस्ता० पृ० ११२ । -क्षत्रचू०१-१। For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ ] जिनेश्वरः ! (ख) श्रियः पतिः पुष्यतु वः समीहितं त्रिलोकरक्षारितो यदीयपादाम्बुजभक्तिशीकरः सुरासुराधीशपदाय अनेकान्त. जायते ॥ - गद्यचिं० पृ० १ । यही प्रस्तुत स्याद्वादसिद्धि के मङ्गलाचरण में कहा गया है(ग) नमः श्रीवर्द्धमानाय (?) स्वामिने विश्ववेदिने । नित्यानन्द-स्वभावाय भक्त - सारूप्य - दायिने ॥१-१॥ (२) जिस प्रकार क्षत्रचूडामणि और गद्यचिन्ता - मणिके प्रत्येक लम्बके अन्त में समाप्ति-पुष्पिकावाक्य दिये हैं वैसे ही स्याद्वादसिद्धिके प्रकरणान्तमें वे दिये हैं; यथा । (क) ‘इति श्रीमद्वादीभसिंहसूरिविरचिते क्षत्रचूडासरस्वतीम्भो नाम प्रथमो लम्बः । - क्षत्रचूडा (ख) इति श्रीमद्वादीभ सिंहसूरिविरचिते गद्य चिन्तामणौ सरस्वतीलम्भो नाम प्रथमो लम्बः ।' -गद्य चिन्तामणि (ग) ' इति श्रीमद्वादीभ सिंहसूरिविरचितायां स्याद्वादसिद्धौ चार्वाकं प्रति जीवसिद्धि । स्याद्वादसिद्धि । (३) जिस तरह क्षत्रचूडामणि और गद्यचिन्ता - मणिमें यत्र क्वचित् नीति, तर्क और सिद्धान्त की पुट उपलब्ध होती है उसी तरह प्रायः स्याद्वादसिद्धिमें वह उपलब्ध होती है । यथा(क) अतर्कितमिदं वृत्त ं तर्करूढं हि निश्वलम् ||१-४२॥ `इत्यूहेन विरक्तोऽभूद्गत्यधीनं हि मानसम् ।।१-६५ ॥ - क्षत्र चूडामणि । : (ख) ' ततो हि सुधियः संसारमुपेक्षन्ते ।' - गद्य चिन्तामणि पृ० ७८ । ' एवं परगतिविरोधिन्या :- " "चार्वाकमत सब्रह्मचारिण्या राज्यश्रिया परिगृहीताः क्षितिपतिसुताः नैयायिकनिर्दिष्टनिर्वाणपदप्रतिष्ठिता इव कापिलकल्पित पुरुषा इव "प्रकृतिविकारं वचं पादयन्ति ।' - द्यचि० ० ६६ | 'यतोऽभ्युदयनि यससिद्धिः स धर्मः । स च सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मकः । अधर्मस्तु तद्विपरीतः ।' -गद्य० पृ० २४३ । [ वर्ष (ग) तदुपायं ततो वच्ये न हि कार्यमहेतुकम् ॥१-२॥ न वास्तवतः कार्यं कल्पिताग्नेश्च दाहवत् ॥२-४८॥ न हि स्वान्यार्तिकृत्वं स्याद्विरागे विश्ववेदिनि ॥ ७-३०७॥ सत्येवात्मनि धर्मे च सौख्योपाये सुखार्थिभिः । धर्म एव सदा कार्यो न हि कार्यमकारणे ॥१-२४|| For Personal & Private Use Only ! - स्याद्वाद० । इन प्रमाणों एवं तुलनात्मक उद्धारणोंपरसे हम अनुमान कर सकते हैं कि क्षत्रचूडामणि तथा गद्यचिन्तामणिके कर्ता वादीभसिंहसूर और स्याद्वाद - सिद्धिके कर्ता वादीभसिंहसूरि दोनों अभिन्न हैं - एक ही विद्वानकी ये तीनों कृतियाँ हैं । इन कृतियोंसे उनकी उत्कृष्ट कवि, उत्कृष्ट वादी और उत्कृष्ट दार्शनिककी ख्याति और प्रसिद्धि हमें यथार्थ जँच जाती है। द्वितीय वादीभसिंहकी भी जो इसी प्रकार - की ख्याति और प्रसिद्धि शिलालेखों में पाई जाती है। और जिससे विद्वानोंको यह भ्रम हो जाता है कि वे दोनों एक हैं वह मुझे प्रथम वादीभसिंहकी छाया (कृति) जान पड़ती है। इस प्रकार के प्रयत्नके जैनसाहित्य में अनेक उदाहरण मिलते हैं । तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक आदि महान् दार्शनिक प्रन्थोंर्ता प्रसिद्धि है वैसी ही ख्याति और प्रसिद्धि ईसाकी विद्यानन्दकी जैन साहित्यमें जो भारी ख्याति और १६वीं शताब्दीमें हुए एक दूसरे विद्यानन्दकी भत्त्यादिमहाशास्त्र में वर्णित मिलती है और जिससे हुम्बु शिलालेखों और वर्द्धमानमुनीन्द्रके 'दशविद्वानोंको इन दोनोंके ऐक्यमें भ्रम हुआ है, जिसका निराकरण हमने विद्यानन्दकी 'आप्त-परीक्षा' की विस्तृत प्रस्तावना में किया हैं। हो सकता है कि प्रथम नामवाले विद्वान्की तरह उसी नामवाले दूसरे विद्वान् भी प्रभावशाली रहे हों । पर इससे दोनोंका ऐक्य सिद्ध नहीं होता । फिर एक बाधा यह भी है कि वीं, हवीं शताब्दीसे १२वीं शताब्दी तक एक ही विद्वानका सद्भाव कैसे सम्भव हो सकता है ? अतः विभिन्न कालीन दो वादीभसिंहोंका अस्तित्व मानना ही पड़ेगा । अब नीचे इनके समयपर विचार किया जाता है। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ८] वादीभसिंहसूरिकी एक अधूरी अपूर्व कृति स्याद्वादसिद्धि [२९७ १. स्वामीसमन्तभद्ररचित रत्नकरण्डक और का समय राहुल सांकृत्यायनने ई०८०० निर्धारित आप्तमीमांसाका क्रमशः क्षत्रचूड़ामणि और स्याद्वाद- किया है । शङ्करानन्दके उत्तरकालीन अन्य विद्वान् सिद्धिपर स्पष्ट प्रभाव है। यथा की आलोचना अथवा विचार स्याद्वादसिद्धिमें नहीं श्वाऽपि देवोऽपि देवः श्वा जायते धर्म-किल्विषात् पाया जाता । अतः वादीभसिंहके समयकी पूर्वावधि -रत्नकरण्ड० श्लोक २६ । शङ्करानन्दका समय जानना चाहिए। अर्थात् ईसाकी देवता भविता श्वापि देवः श्वा धर्म-पापतः । ८वीं शती इनकी पूर्वावधि मानने में कोई बाधा नहीं है। -क्षत्रचूडामणि ११-७७ । अब उत्तरावधिके साधक प्रमाण दिये जाते हैंकुशलाकुशलं कर्म परलोकश्च न क्वचित् ।। आप्त. ८। १. तामिल-साहित्यके विद्वान् पं० स्वामिनाथय्या कुशलाकुलत्वं च न चेत्ते दातृहिंस्रयोः॥ .. और श्रीकुप्पूस्वामी शास्त्रीने अनेक प्रमाणपूर्वक यह -स्या०३-११८। सिद्ध किया है कि तामिलभाषामें रचित तिरुत्तक्कदेव अतः वादीभसिंहसूरि स्वामी समन्तभद्रके पश्चा- कृत 'जीवकचिन्तामणि' ग्रन्थ क्षत्रचूडामणि और गद्यद्वर्ती अर्थात् ईसाकी दूसरी-तीसरी शताब्दीके बादके चिन्तामणिकी छाया लेकर रचा गया है और जीवकविद्वान हैं। चिन्तामणिका उल्लेख सर्वप्रथम तामिलभाषाके पेरिय२. अकलङ्कदेवके न्यायविनिश्चयादि ग्रन्थोंका भी पुराण में मिलता है जिसे चोल-नरेश कुलोत्त ङ्गके अनुस्याद्वादसिद्धिपर असर है, जिसका एक नमूना इस रोधसे शेक्किलार नामक विद्वान्ने रचा माना जाता है। प्रकार है कुलोत्तु ङ्गका राज्य-काल वि० सं० ११३७से ११७५ अप्रमत्ता विवक्षेयं अन्यथा नियमात्ययात् । (ई० १०८०से ई० १११८) तक है । अतः वादीभसिंह इष्ट सत्यं हितं वक्तुमिच्छा दोषवती कथम् ॥ . इससे पूर्ववर्ती हैं-बादके नहीं। न्यायवि० का० ३५६ । .. २. श्रावकके आठ मूलगुणोंके बारेमें जिनसेनासार्वज्ञसहजेच्छा तु विरागेऽप्यस्ति, सा हि न । चार्यके पूर्व एक ही परम्परा थी और वह थी स्वामी रागाद्य पहता तस्माद्भवेद्वक्त व सर्ववित् ।। समन्तभद्रकृत रत्नकरण्डकश्रावकाचार प्रतिपादित । " -स्या०८-३१७। जिसमें तीन मकार (मद्य, मांस और मधु) तथा अतः वादीभसिंह अकलङ्कदेवके अर्थात् ईसाकी हिंसादि पाँच पापोंका त्याग विहित है। जिनसेनाचार्यने सातवीं शताब्दीके उत्तरवर्ती विद्वान हैं। . उक्त परम्परामें कुछ परिवर्तन किया और मधुके ३. प्रस्तुत स्याद्वादसिद्धिके छठे प्रकरणकी २८२वीं .स्थानमें जुआको रखकर मद्य, मांस, जुआ तथा पाँच कारिकामें भट्ट और प्रभाकरका नामोल्लेख करके पापोंके परित्यागको अष्ट मूलगुण बतलाया। उसके उनके. अभिमत भावना-नियोगरूप वेदवाक्यार्थका बाद सोमदेवने तीन मकार और पाँच उदुम्बर फलोंदिर्देश किया गया है। इसके अलावा कुमारिलभट्टके के त्यागको अष्ट मूलगुण कहा, जिसका अनुसरण मीमांसाश्लोकवार्तिकसे कई कारिकाएँ भी उद्धृत करके पं० आशाधरजी आदि विद्वानोंने किया है। परन्तु उनकी आलोचना की गई है। कुमारिलभट्ट और वादीभसिंहने क्षत्रचूडामणिमें स्वामी समन्तभद्र प्रभाकर समकालीन विद्वान हैं तथा ईसाकी सातवीं प्रतिपादित पहली परम्पराको ही स्थान दिया है और शताब्दी उनका समय माना जाता है। अतः वादीभ- और जिनसेन आदिकी परम्पराओंको स्थान नहीं सिंह इनके उत्तरवर्ती हैं। १ देखो, 'वादन्याय'का परिशिष्ट A I .. ४. बौद्धविद्वान् शङ्करानन्दकी अपोहसिद्धि और २ देखो, जैनसाहित्य और इतिहास । प्रतिबन्धसिद्धिकी आलोचना स्याद्वादसिद्धिके तीसरे- ३ अहिंसा सत्यमस्तेयं स्वस्त्री-मितवसु-ग्रही। .. चौथे प्रकरणोंमें की गई मालूम होती है । शङ्करानन्द- . मद्यमांसमधुत्यागैस्तेषां मूलगुणाष्टकम् ||क्षत्र०७-२३। For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८] . अनेकान्त [वर्ष दिया । यदि वादीभसिंह जिनसेन और सोमदेवके किया हैं; जो प्राचीन परम्पराका द्योतक है' -भारतउत्तरकालीन होते तो वे, बहुत सम्भव था कि उनकी का एक भी जगह उल्लेख नहीं किया। इसस हम इस परम्पराको देते अथवा साथमें उन्हें भी देते। जैसा नतीजेपर पहुंचते हैं कि यदि वादीभसिंह न्यायकि पं० आशाधरजी आदि विद्वानोंने किया है। इसके मञ्जरीकार जयन्तभट्टके उत्तरवर्ती होते तो वे उनका अलावा वादीभसिंहने गुणवतों और शिक्षाव्रतोंके अन्य उत्तरकालीन विद्वानोंकी तरह जरूर अनुसरण सम्बन्धमें भी स्वामी समन्तभद्राचार्यकी रत्नकरण्डक- करते-'भारताध्ययनं सर्व' इत्यादिको अपनाते । श्रावकाचार वर्णित परम्पराको ही अपनाया है। इन और उस हालतमें 'पिटकाध्ययनं सर्व' इस नई बातोंसे प्रतीत होता है कि वादीभसिंह, जिनसेन और कारिकाको जन्म न देते। इससे ज्ञात होता है कि सोमदेव, जिनका समय क्रमशः ईसाकी नवमी और वादीभसिंह न्यायमञ्जरीकारके उत्तरवर्ती विद्वान नहीं दशमी शताब्दी है, पश्चाद्वर्ती नहीं हैं-पूर्ववर्ती हैं। हैं। न्यायमञ्जरीकारका समय ई० ८४० माना जाता .. ३.. न्यायमञ्जरीकार जयन्तभट्टने कुमारिलकी है । अतः वादीभसिंह इससे पहलेके हैं। .. मीमांसाश्लोकवार्तिकगत 'वेदस्याध्ययनं सर्व' इस, वेद- ४. प्रा. विद्यानन्दने आप्तपरीक्षामें जगत्कर्तृत्व पौरुषेयताको सिद्ध करनेके लिये उपस्थित की का खण्डन करते हुए ईश्वरको शरीरी अथवा गई, अनुमान-कारिकाका न्यायमञ्जरीमें सम्भवतः सर्व अशरीरी माननेमें दूषण दिये हैं और विस्तृत मीमांसा प्रथम भारताध्यनं सर्वं' इस रूपसे खण्डन किया है, की है। उसका कुछ अंश टीका सहितं नीचे दिया जिसका अनुसरण उत्तरवर्तो प्रभाचन्द्र', अभयदेव२, जाता हैदेवसूरि', प्रमेयरत्नमालाकार अनन्तवीर्य' प्रभृति 'महेश्वरस्याशरीरस्य स्वदेहनिर्माणानुपपत्त । तथा हिताकिंकोंने किया है। न्यायमञ्जरीकारका वह खण्डन देहान्तराद्विना तावत्स्वदेहे जनयद्यदि । इस प्रकार है ' तदा प्रकृतकार्येऽपि देहाधानमनर्थकम् ॥१८॥ - भारतेऽप्येवमभिधातुं शक्यत्वात्'. - देहान्तरात्स्वदेहस्य विधाने चानवस्थितिः। भारताध्ययनं सर्व गुर्वध्ययनपूर्वकं । तथा च प्रकृतं कार्य कुर्यादीशो न जातुचित् ॥१६॥ भारताध्ययनवाच्यत्वादिदानीन्तनभारताध्ययनवदिति ॥ यथैव हि प्रकृतकार्यजननायापूर्व शरीरमीश्वरो निष्पा -न्यायमं० प्र०२१४। दयति तथैव तच्छरीरनिष्पादनायापूर्व शरीरान्तरं निष्पापरन्तु वादीभसिंहने स्याद्वादसिद्धिमें कुमारिलको दयेदिति कथमनवस्था विनिवार्येत ? उक्त कारिकाकै खण्डनके लिये अन्य विद्वानोंकी तरह. यथाऽनीशः स्वदेहस्य कर्ता देहान्तरान्मतः । न्यायमञ्जरीकारका अनुगमन नहीं किया । अपितु पूर्वस्मादित्यनादित्वानानवस्था प्रसज्यते ॥२१॥ स्वरचित एक भिन्न कारिकाद्वारा उसका निरसन किया तथेशस्यापि पूर्वस्माइ हाइ हान्तरोद्भवात् । है जो निम्न प्रकार है: नानवस्थेति यो ब यात्तस्याऽनीशत्वमीशितुः ॥२२॥ पिटकाध्ययनं सर्व तदध्ययनपूर्वकम । अनीशः कर्मदेहेनानादिसन्तानवर्तिना । तदध्ययनवाच्यत्वादधुनेव भवेदिति ॥ .. यथैव हि सकर्माणस्तद्वन्न कथमीश्वरः ।।२३॥ -स्या. १०-३८२। यही कथन वादीभसिंहने स्याद्वादसिद्धिमें सिर्फ इसके अतिरिक्त वादीभसिंहने कोई पाँच जगह ढाई कारिकाओं में किया है और जिसका पल्लवन एवं और भी इसी स्याद्वादसिद्धिमें 'पिटक'का ही उल्लेख १ अष्टशती और अष्टसहस्री (पृ. २३७) में अकलङ्कदेव १ देखो, न्यायकुमुद पृ. ७३१, प्रमेयक. पृ. ३६६ ।। तथा उनके अनुगामी विद्यानन्दने भी इसी (पिटकत्रय) २ देखो, सम्मति टी. पृ.४१।३ देखो, स्या. र. पृ. ६३४। का उल्लेख किया है। ४ देखो, प्रमेयरत्न. पृ. १३७ । २ देखो, न्यायकु. द्वि भा. प्र. पृ. १६। For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ८] वादीभसिंहसूरिकी एक अधूरी अपूर्व कृति स्याद्वादसिद्धि [२६६ विस्तार ही उपयुक्त जान पड़ता है। वे ढाई कारिकाएँ निःसारभूतमपि बन्धनतन्तुजातं, मूर्ना जनो वहति हि प्रसवानुषङ्गात् । देहारम्भोऽप्यदेहस्य वक्तृत्ववदयुक्तिमान् । जीवन्धरप्रभवपुण्यपुराणयोगा - देहान्तरेण देहस्य यद्यारम्भोऽनवस्थितिः॥ द्वाक्यं ममाऽप्युभयलोकहितप्रदायि ॥६॥ अनादिस्तत्र बन्धश्चत्त्यक्तोपात्तशरीरता । अतएव वादीभसिंह गुणभद्राचार्यसे पीछेके हैं। अस्मंदादिवदेवाऽस्य जातु नैवाऽशरीरता ॥ २. सुप्रसिद्ध धारानरेश भोजकी झूठी मृत्युके देहस्यानादिता न स्यादेतस्यां च प्रमात्ययात् ॥ शोकपर उनके समकालीन सभाकवि कालिदास, जिन्हें -६-२७३, २७४३। परिमल अथवा दूसरे कालिदास कहा जाता है, द्वारा ___ इन दोनों उद्धरणोंका सूक्ष्म समीक्षण करनेपर कहा गया निम्न श्लोक प्रसिद्ध हैकोई भी सूक्ष्म-समीक्षक यह कहे बिना न रहेगा कि अद्य धारा निराधारा निरालम्बा सरस्वती । वादीभसिंहका कथन जहाँ मौलिक और संक्षिप्त है पण्डिता खण्डिताः सर्वे भोजराजे दिवंगते ॥ वहाँ विद्यानन्दका कथन विस्तारयुक्त है और जिसे ।। और इसी श्लोकके पूर्वार्धकी छाया सत्यन्धर वादीभसिंहके कथनका खुलासा कहना चाहिए । अतः महाराजके शोकके प्रसङ्गमें कही गई गद्यचिन्तामणिविद्यानन्दका समय वादीभसिंहकी उत्तरावधि है। की निम्न गद्यमें पाई जाती हैयदि ये दोनों विद्वान् समकालीन भी हों जैसा कि 'अद्य निराधारा धरा निरालम्बा सरस्वती।' सम्भव है तो भी एक दूसरेका प्रभाव एक दूसरेपर अतः वादीभसिंह राजा भोज (वि० सं० १०७३से पड़ सकता है और एक दूसरेके कथन एवं उल्लेखका वि० १११२)के बादके विद्वान हैं। आदर दर एक दसरा कर सकता है। विद्यानन्दका समय ये दो बाधक प्रमाण हैं जिनमें पहलेके उद्धावक हमने अन्यत्र ई० ७७५से ई० ८४० निर्धारित किया पं० नाथूरामजी प्रेमी हैं और दूसरेके स्थापक श्रीकुप्पुहै । अतः इन प्रमाणोंसे वादीभसिंहसूरिका समय स्वामी शास्त्री तथा समर्थक प्रेमीजी हैं । इनका ईसाकी ८वीं और हवीं शताब्दीका मध्यकाल (ई० ७७० समाधान इस प्रकार है- . से ई० ८६०) अनुमानित होता है। १. कवि परमेष्ठी अथवा परमेश्वरने जिनसेन और बाधकोंका निराकरण गुणभद्रके पहले 'वागर्थसंग्रह' नामका जगत्प्रसिद्ध पुराण रचा है। और जिसमें वेशठशलाका पुरुषोंइस समयके स्वीकार करने में दो बाधक प्रमाण का चरित वर्णित है तथा जिसे उत्तरवर्ती अनेकों उपस्थित किये जा सकते हैं और वे ये हैं पुराणकारोंने अपने पुराणोंका आधार बनाया है। १. क्षत्रचूडामणि और गद्यचिन्तामणिमें जीवन्धर- खद जिनसेन और गुणभद्रने भी अपने आदिपुराण स्वामीका चरित निबद्ध है जो गुणभद्राचार्यके उत्तर- तथा उत्तरपुराण उसीके आधारसे बनाये हैं इनका पुराण' (शक सं० ७७०, ई०८४८) गत जीवन्धर मूलस्रोत कवि परमेष्ठी अथवा परमेश्वरका 'वागर्थचरितसे लिया गया है । इसका संकेत भी गद्यचिन्ता- संग्रह' पुराण है, यह प्रेमीजी स्वयं स्वीकार करते हैं । मणिके निम्न पद्यमें मिलता है तब वादीभसिंहने भी जीवन्धरचरित जो उक्त प्रमाण१ प्रेमीजीने जो इसे 'शक सं. ७०५ (वि.सं.४०)की में निबद्ध होगा, उसी (पुराण)से लिया है, यह रचना' बतलाई है (देखो, जैनसा, और इति. प्र.४१) कहनेमें कोई बाधा नहीं जान पड़ती। गद्यचिन्तावह प्रसादिकी गलती जान पड़ती है। क्योंकि उन्हींने उसे १देखो, डा. ए. एन. उपाध्येका 'कवि परमेश्वर या अन्यत्र शक सं. ७७०, ई.८४८के लगभगकी रचना परमेष्ठी' शीर्षक लेख, जैन सि. भा. भाग १३, कि. २। सिद्ध की है, देखो, वही पृ. ५१४ । २ देखो, जैनसाहित्य और इतिहास पृ. ४२१. । For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० ] कारने यह कहीं नहीं लिखा कि उन्होंने गुणभद्रके उत्तरपुराणसे अपने ग्रन्थोंमें जीवन्धरचरित निबद्ध किया । गद्य चिन्तामणिका जो पद्य प्रस्तुत किया गया है उसमें सिर्फ इतना ही कहा है कि 'इसमें जीवन्धरस्वामीके चरितके उद्भावक पुण्यपुराणका सम्बन्ध होने अथवा मोक्षगामी जीवन्धरके पुण्यचरितका कथन होनेसे यह (मेरा गद्यचिन्तामणिरूप - समूह) भी उभय लोकके लिये हितकारी है।' और वह पुण्यपुराण उपर्युक्त 'वागर्थसंग्रह भी हो सकता है । वह गुणभद्रका उत्तरपुराण है, यह उससे सिद्ध नहीं होता । इसके सिवाय, गद्य चिन्तामणिकारने वस्तुतः उस जीवन्धरचरितको गद्यचिन्तामणिमें कहने की प्रतिज्ञा को है जिसे गणधर कहा और अनेक सूरियों (आचार्यो) द्वारा— न कि केवल गुणभद्रद्वारा - जगतमें ग्रन्थरचनादिके रूप में प्रख्यापित हुआ है । यथा अनेकान्त इत्येवं गणनायकेन कथितं पुण्यास्रवं शृण्वतां तज्जीवन्धरवृत्तमत्र जगति प्रख्यापितं सूरिभिः । विद्यास्फूर्तिविधायि धर्मजननीवाणीगुणाभ्यर्थिनां वक्ष्ये गद्यमयेन वाङ्मयसुधावर्षेण वाक्सिद्धये ॥ २५॥ अतः वादीभसिंहको गुणभद्राचार्यका उत्तरवर्ती सिद्ध करनेके लिये जो उक्त हेतु दिया जाता है वह युक्तियुक्त न होनेसे वादीभसिंहके उपरोक्त समयका बाधक नहीं है । . २. दूसरी बाधाको उपस्थित करते हुए उसके उपस्थापक श्रीकुप्पुस्वामी शास्त्री और उनके समर्थक प्रेमीजी दोनों विद्वानोंको एक भ्रान्ति हुई है, जिसका अनुसरण अन्य विद्वानों द्वारा आज भी होता जारहा है और इस लिये उसका परिमार्जन होजाना चाहिए । वह भ्रान्ति यह है कि गद्यचिन्तामणिकी उक्त जिस गद्यको सत्यन्धर महाराजके शोकके प्रसङ्गमें कही गई बतलाई है वह उनके शोकके प्रसङ्ग में नहीं कही गई । पितु काष्ठाङ्गारके हाथीको जीवन्धरस्वामीने कड़ा मारा था. उससे क्रुद्ध हुए काष्ठाङ्गारके निकट जब जीवन्धरस्वामीको गन्धोत्कटने बाँधकर भेज दिया और काष्ठाङ्गारने उन्हें वधस्थान में लेजाकर फाँसी देनेकी सजाका हुकुम दे दिया तो सारा नगर में सन्नाटा [ वर्ष छा गया और समस्त नगरवासी सन्तापमें मग्न हो गये तथा शोक करने लगे । इसी समयकी उक्त गद्य है। और जो पाँचवें लम्बमें पाई जाती है जहाँ सत्यन्धर-. का कोई सम्बन्ध नहीं है— उनका तो पहले लम्ब तक ही सम्बन्ध हैं । वह पूरी प्रकृतोपयोगी गद्य इस प्रकार है 'अ निराश्रया श्रीः, निराधारा धरा, निरालम्बा सरस्वती, निष्फलं लोकलोचनविधानम्, निःसारः संसारः, नीरसा रसिकता, निरास्पदा वीरता इति मिथः प्रवर्तयति प्रणयोद्गारिणीं वाणीम् - पृ० १३१ । इस गद्यके पद-वाक्योंके विन्यासको देखते हुए यही प्रतीत होता है कि यह गद्य मौलिक है और वादीभसिंहकी अपनी रचना है। हो सकता है कि उक्त परिमल कविने इसी गद्यके पदोंको अपने उक्त श्लोक में समाविष्ट किया है । यदि उल्लिखित पद्यकी इसमें छाया होती तो अद्य' और 'निराधारा धरा' के बीच में 'निराश्रया श्रीः' यह पद न आता । छायामें मूल ही तो आता है । यही कारण है कि इस पदको शास्त्रीजी और प्रेमीजी दोनों विद्वानोंने पूर्वोल्लिखित गद्यमें उद्धृत नहीं किया -- उसे अलग करके और 'अद्य' को 'निराधारा धरा' के साथ जोड़कर उपस्थित किया है ! ऋतः यह दूसरी बाधा भी निर्बल एवं अपने विषयकी साधक है । पुष्पसेन और देव वादीभसिंहके साथ पुष्पसेनमुनि और प्रोडयदेवका सम्बन्ध बतलाया जाता है । पुष्पसेनको उनका गुरु और ओडयदेव उनका जन्म-नाम अथवा वास्तवनाम कहा जाता है। इसमें निम्न पद्य प्रमाणरूपमें दिये जाते हैं पुष्पसेनमुनिनाथ इति प्रतीतो, दिव्यो मनुर्हृदि सदा मम संनिदध्यात् । यच्छक्तितः प्रकृतमूढमतिर्जनोऽपि, वादीभसिंहमुनिपुङ्गवतामुपैति ॥ श्रीमद्वादी सिंहेन गद्यचिन्तामणिः कृतः । स्थेयादोडयदेवेन चिरायास्थानभूषणः ॥ For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ८ ] स्थेयादोडयदेवेन वादीभहरिणा कृतः । गद्यचिन्तामणिलोंके चिन्तामणिरिवापरः ॥ इनमें पहला पद्य गद्यचिन्तामणि की प्रारम्भिक पीठिकाका छठा पद्य है और जो स्वयं ग्रन्थकारका रचा हुआ है। इस पद्यमें कहा गया है कि वे प्रसिद्ध पुष्पसेन मुनीन्द्र दिव्य मनु— पूज्य गुरु — मेरे हृदय में सदा आसन जमायें रहें - वर्तमान रहें जिनके प्रभावसे जैसा निपटमूर्ख साधारण आदमी भी 'वादीभ सिंह - मुनिश्रेष्ठ' अथवा वादीभसिंहसूरि बन गया ।' अतः यह तो सर्वथा असंदिग्ध है कि वादीभसिंहसूरि - के गुरु पुष्पसेन मुनि थे - उन्होंने उन्हें मूर्खसे विद्वान् और साधारणजनसे मुनिश्र ेष्ठ बनाया था और इस लिये वे वादीभसिंहके दीक्षा और विद्या दोनोंके गुरु थे। aratसंहरिकी एक अधूरी अपूर्व कृति स्याद्वादसिद्धि अन्तिम दोनों पद्य, जिनमें प्रोडयदेवका उल्लेख है, मुझे वादीभसिंहके स्वयंके रचे नहीं मालूम होते; प्रथम तो जिस प्रशस्तिके रूपमें वे पाये जाते हैं वह प्रशस्ति गद्यचिन्तामणिकी सभी प्रतियोंमें उपलब्ध नहीं हैं— सिर्फ तञ्जोर की दो प्रतियोंमेंसे एक ही प्रतिमें वे मिलते हैं। इसी लिये मुद्रित गद्यचिन्ता - १ पं० के० भुजबलीजी शास्त्रीने जो यह लिखा है कि 'पसेन वादीभसिंह विद्यागुरु नहीं थे; किन्तु दीक्षागुरु । अन्यथा इनकी कोई कृति मिलती और साहित्य-संसार में इनकी भी ख्याति होती | मगर साहित्य-संसार में ही नहीं यो भी वादीभसिंहकी जितनी ख्याति हुई है, उतनी इनके गुरु पुष्पसेनकी नहीं हुई अनुमित होती है ।' (भा. भा. ६, किरण २, पृ. ८४) । वह ठीक नहीं जान पड़ता; क्योंकि वैसी व्याप्ति नहीं है। रविभद्र - शिष्य अनन्तवीर्य, वर्द्धमानमुनि-शिष्य अभिनव धर्म भूषण और मतिसागर - शिष्य वादिराजकी साहित्य-संसारमें कृतियाँ तथा ख्याति दोनों उपलब्ध हैं पर उनके इन गुरुत्रोंकी न कोई साहित्य-संसार कृतियाँ उपलब्ध हैं और न ख्याति । वर्तमान में भी ऐसा देखा जाता जिसके अनेक उदाहरण प्रस्तुत किये ना सकते हैं । [ ३०१ मणिके अन्त में वे अलगसे दिये गये हैं और श्रीकुप्पूस्वामी शास्त्रीने फुटनोटमें उक्त प्रकारकी सूचना की है। दूसरे, प्रथम लोकका पहला पाद और दूसरे श्लोकका दूसरा पाद पहले लोकका दूसरा पाद और दूसरे श्लोकका तीसरा पाद, तथा पहले लोकका तीसरा पाद और दूसरे श्लोकका पहला पाद परस्पर अभिन्न हैं— पुनरुक्त हैं— उनसे कोई विशेषता जाहिर नहीं होती और इस लिये ये दोनों शिथिल पद्य वादीभसिंह जैसे उत्कृष्ट कविकी रचना ज्ञात नहीं होते। तीसरे, वादीभसिंहसू रिकी प्रशस्ति देनेकी प्रकृति और परिणति भी प्रतीत नहीं होती। उनकी क्षत्रचूडामणिमें भी वह नहीं है और स्याद्वादसिद्धि अपूर्ण है, जिससे उसके बारेमें कुछ कहा नहीं जा सकता । अतः उपर्युक्त दोनों पद्य हमें अन्यद्वारा रचित प्रक्षिप्त जान पड़ते हैं और इस लिये प्रोडयदेव वादीभसिंहका जन्म - नाम अथवा वास्तव नाम था, यह बिना निर्बाध प्रमाणोंके नहीं कहा जा सकता । हाँ, वादीभसिंहका जन्मनाम व असली नाम कोई रहा जरूर होगा। पर वह क्या होगा, इसके साधनका कोई दूसरा पुष्ट प्रमाण ढूँढना चाहिए | उपसंहार संक्षेपतः 'स्याद्वादसिद्धि' जैनदर्शनकी एक प्रौढ और अपूर्व अभिनव रचना है । जिन कुछ कृतियोंसे जैनदर्शनका वाङ्मयाकाश देदीप्यमान है और मस्तक उन्नत हैं उन्हींमें यह कृति भी परिगणनीय है । यह अभीतक अप्रकाशित है और इसी लिये अनेक विद्वान् इससे अपरिचित हैं । हम उस दिनकी प्रतीक्षा में हैं जब वादीभसिंहकी यह अमर कृति प्रकाशित होकर विद्वानोंमें अद्वितीय आदरको प्राप्त करेगी और जैनदर्शनकी गौरवमय प्रतिष्ठाको बढ़ावेगी । क्या कोई महान साहित्य - प्रेमी इसे प्रकाशित कर महत् श्रयका भागी बनेगा और ग्रन्थ- ग्रन्थकारकी तरह अपनी उज्ज्वल कीर्तिको अमर बना जायेगा ? For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं० शिवचन्द्र देहलीवाले देहलीमें पं. शिवचन्द्र नामके एक अच्छे साहित्य-प्र ेमी विद्वान् होगये हैं जिन्होंने पञ्चायती मन्दिरके भण्डारमें ग्रन्थोंका बहुत अच्छा संग्रह किया है और स्वयं भी हिन्दी - साहित्यका कितना ही निर्माण किया है । इनका उल्लेख श्रद्धय पंडित नाथूरामजी प्र ेमीने अपनी 'हिन्दी जैनसाहित्यका इतिहास' नामक पुस्तकमें किया है । उक्त भण्डारकी सूचीका निरीक्षण करते हुए हमें उनके निम्न ग्रन्थोंका पता चला है । इनमें कौन अनुवादित और कौन स्वनिर्मित हैं, इसका निर्णय विज्ञ पाठक ही इन ग्रन्थोंका पूर्णतः अवलोकनकर कर सकेंगे । यहाँ तो सिर्फ उनकी सूची दी जारही है । आशा है कोई विद्वान् इनपर पूरा प्रकाश डालेंगे । ४६ पत्र (१) भक्तामर स्तोत्र (२) कल्याणमन्दिरस्तोत्र (३) एकीभावस्तोत्र - (४) विषापहारस्तोत्र (५) भूपालचौबीसी (६) स्वयम्भू स्तोत्र (७) जिनसहस्रनाम (८) तत्वार्थटीका (c) सर्वार्थसिद्धिटीका (१०) नीतिवाक्यामृतटीका (११) दशलक्षणधर्मटीका (१२) सोलह कारणधर्मंटीका (१३) त्रिवर्णाचार-टीका (१४) धर्मप्रश्नोत्तरश्रावकाचारटीका (१९) दशलक्षणपूजा (२०) कलिकुण्डपूजा (२१) पचमेरुपूजा (२२) सप्तऋषिपूजा 35 " 35 "" (२५) 35 (२६) लोकचर्चावच निका (२७) दायभागप्रकरण भाषा (१५) देवशास्त्रगुरुपूजासार्थं (सं० १९६०) (१६) बीसमहाराज (१७) सिद्धपूजा (१८) सोलहकारण 22 "" " 23 " "" ," 39 ११ 35 ५७ पत्र 35 १० पत्र ३ पत्र १६ पत्र ६५ पत्र ६८ पत्र (४५) अनादि दिगम्बर (४६) जैनसभाव्याख्यान (४७) (४८) चैत्यवदना (२३) इतिहासरत्नाकर २ भाग पूर्ण (सं. १९२०) ५५ पत्र (४९) शास्त्रपूजा साथ (२४) तीसरा अपूर्ण (५०) गुरुपूजा सार्थ चौथा भाग ६ पत्र १० पत्र ४ पत्र ४ पत्र ४ पत्र १७ पत्र १६ पत्र (३८) गृहस्थचर्या २७४ पत्र १३६ पत्र (२८) भक्तिपाठसप्तक स.टि. (सं. १६४८) (२९) नीतिवाक्यामृतवचनिका षट्द्रव्यकथनादिधार्मिकचर्चा (३०) ध्यानकी विधि (३१) जैनउद्योत पत्रिका (सं० १६२७) ५ पत्र १०१ पत्र ५६ पत्र १६ पत्र (३२) अलौकिकगणित (३३) शिक्षा चन्द्रिका (३४) अन्यमतके ग्रन्थोंमें जैनधर्म सम्बन्धी श्लो. ४ पत्र (३५) प्रश्नोत्तर ११ पत्र ७ पत्र (३६) षट्मतव्यवस्थावर्णन (३७) मतखण्डन विवाद ८ पत्र (३९) जैनमतप्रबोधिनी (४०) गुणस्थानचर्चा (४१) विवाहपद्धति (४२) सत्यार्थप्रकाशकी समालोचना (४३) पंचेन्द्रिय विषयवर्णन (४४) आर्यसमाजियोंसे प्रश्न .१४ पत्र (५१) यात्राप्रबन्ध (सं० १९२७) (५२) अष्टाह्नकापूजा For Personal & Private Use Only ७१ पत्र ४ पत्र ६ पत्र ३७ पत्र ३ पत्र १३ पत्र ६ पत्र ८ पत्र पैंतीसी (निर्माण सं० १९२०) २५ पत्र १४ पत्र - पन्नालाल जैन अप्रवाल Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मका रहस्य ( लेखक - पं० फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री ) धर्मी चर्चा करना जितना सरल है उसके रहस्य (सत्यरूप) को हृदयङ्गम करना उतना ही कठिन है । यों तो अहिंसा, सत्य अस्तेय, ब्रह्मचर्य और परिग्रहपरिमाणको सबने धर्म माना है । पर क्या इतने मात्र हम धर्मका निर्णय कर सकते हैं ? यह एक सामान्य प्रश्न है जो प्रत्येक विचारशीलके हृदय में उठा करता है। और जबकि इन सब बातोंके रहते हुए भी इनके माननेवाले परस्पर में घात-प्रत्याघात करते हैं. बात-बातमें झूठ बोलते हैं, नफा-नुकसानको न्यूनाधिक बताकर चोरी करते हैं. अब्रह्मके सहायक साधनोंके जुटाने में लगे रहते हैं और जितना अधिक परिग्रह जुड़ता जाता है उतना ही अपना बड़प्पन समझते हैं तब उसका हृदय सन्तापसे जलने लगता है और वह क्रमशः धर्मकी निःसारताको जीवनमें अनुभव करने लगता है । वह यह मानने लगता है कि ईश्वरवादके समान यह भी एक वाद है जो व्यक्तिकी स्वतन्त्रताका शत्रु है और सब अनर्थोंकी जड है । परन्तु विचार करनेपर ज्ञात होता है कि यह सब धर्मका दोष नहीं है । किन्तु जिस धर्मका त्याग करनेके लिये धर्मकी उत्पत्ति हुई है यह उसीका दोष है । इस लिये मानवमात्रका कर्तव्य है कि वह धर्मका अनुसन्धान कर उसके सत्यरूपको समझनेका प्रयत्न करे । धर्म शब्द 'धृ' धातुमें 'मप्' प्रत्यय जोड़नेसे बनता है जिसका अर्थ धारण करनेवाला होता है । इसके अनुसार धर्म जीवनकी वह परिणति है जिसके धारण करनेसे प्रत्येक प्राणी अपनी उन्नति करने में सफल होता है । धर्म सब पदार्थों में व्याप रहा है । वह व्यापक सत्य है । जिसका जो स्वभाव है वही उसका धर्म है । जीवका स्वभाव ज्ञान, दर्शन है । वह रूप, रस, गन्ध और स्पर्शसे रहित है। राग, द्वेष, ईर्षा, मद, मात्सर्य, अज्ञान, अदर्शन आदि दोष भी उसमें नहीं हैं । घर, स्त्री, सन्तान, कुटुम्ब, धन, दौलत, शरीर, वचन, मन, इन्द्रियाँ, स्वदेश, विदेश, स्वराज्य, परराज्य आदि तो उसके हो ही कैसे सकते हैं । वह इनमें ममकार तथा अहङ्कार भी नहीं करता है । वह वर्णभेद तथा जातिभेदसे भी परे है । छूत, अछूतका भी भेद उसमें नहीं है । वह किसीका आदर ही करता है और न अनादर ही । स्वयं भी वह किसीसे पूजा - सत्कार नहीं चाहता । इच्छा और वासना तो उसे छू तक नहीं गई हैं। उसे न भूख लगती है और न प्यास ही । जन्म, जरा, मरण, आधि-व्याधि, आदि भी उसके नहीं होते । वह न तो शस्त्रसे काटा ही जा सकता है और न अनिसे जलाया ही जा सकता है । वह किसी अन्य वस्तुका कर्ता भोक्ता भी नहीं है । यदि कर्ता भोक्ता है भी तो प्रति समय होनेवाले अपने परिणामोंका ही कर्ता भोक्ता है । विश्व अनादि और अविनश्वर है । उसका बनानेवाला भी वह नहीं है । ऐसा सर्व शक्तिमान् ईश्वर भी नहीं है जिसने इसे बनाया हो । यह हमारा बुद्धि-दोष है जिससे हम सर्वशक्तिमान् ईश्वरकी कल्पना कर उसे विश्वका कर्ता मानते हैं। यद्यपि जीव ऐसा है किंतु अनादि कालसे मोह और अज्ञानवश वह अपने इस स्वभावसे च्युत हो रहा है। जैसे भोजनमें नमक मिला देनेपर उसका रस बदल जाता है या जैसे वर्षाका शुद्ध जल पात्रों के भेदसे अनेक रसवाला हो जाता है वैसे ही जीवके साथ कर्मका बन्धन होनेसे उसमें अनेक विकारी भाव पैदा होगये हैं । जिसके धारण करनेसे जीवके ये विकारी भाव दूर होते हैं उसीका नाम धर्म है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । धर्मका विचार मुख्यतः दो दृष्टियोंसे किया जाता है । पहली आध्यात्मिक दृष्टि है और दूसरी व्याव For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ अनेकान्त हारिक । जिसमें आत्माकी विविध अवस्थाओंका कर्ता स्वयं आत्माको बतलाकर अपनी शुद्ध अवस्थाकी प्राप्तिके लिये आत्म-पुरुषार्थको जागृत किया जाता है वह अध्यात्म दृष्टि है और जिसमें अशुद्धताका कारण निमित्तको बतलाकर उसके त्यागका उपदेश दिया जाता है वह व्यावहारिक दृष्टि है। इस हिसाब से धर्म दो भागों में बँट जाता है - अध्यात्म धर्म और व्यवहार धर्म | अध्यात्म धर्मका दूसरा नाम निश्चय धर्म है और व्यवहार धर्मका दूसरा नाम उपचार धर्म है । पुराणों में एक कथा आई है। उसमें बतलाया है कि श्रमण भगवान महावीरके समय में वारिषेण और पुष्पडाल नामक दो मित्र थे । वारिषेण राजपुत्र था और पुष्पडाल वैश्यपुत्र । एक समय वारिषेण श्रमण भगवान महावीरका उपदेश सुनकर साधु हो गया 'जब यह बात पुष्पडालको ज्ञात हुई तो मित्रस्नेहवश वह भी दीक्षित होगया । पुष्पडाल साधुधर्ममें तो दीक्षित होगया किन्तु वह अपनी एकमात्र कानी स्त्रीको न भुला सका । । जब वारिषेणने इस बातको जाना तो वह विचारमें पड़ गया और गृहस्थ अवस्थाकी अपनी बत्तीस स्त्रियोंको दिखाकर उसका मोह दूर किया । यद्यपि इस कथानकमें पुष्पडालके सच्चे साधु न बन सकनेका कारण व्यवहारसे उसकी एकमात्र कानी स्त्रीको बतलाया गया है किन्तु आध्यात्मिक पहलू इससे भिन्न है । इस दृष्टिसे तो साधु बनने में बाधक ममताको ही माना जा सकता है। स्त्रियाँ दोनोंके थीं फिर भी एक साधु बन जाता है और दूसरा नहीं बन पाता है, इसका मुख्य कारण उनकी आन्तरिक परिगति ही है । बाह्य निमित्त तो उपचारसे ही किसी कार्यके होने या न होनेमें साधक बाधक माने जाते हैं। निश्चयसे जिस वस्तुकी जिस कालमें जैसी योग्यता होती है तदनुकूल कार्य होता है । निश्चय धर्म और व्यवहार धर्म इसी अन्तरको बतलाते हैं । इसीसे निश्चय हटि उपादेय मानी गई है और व्यवहार दृष्टि । इस प्रकार यद्यपि दृष्टि-भेद से धर्म दो बतलाये [ वर्ष ह गये हैं किन्तु धर्म दो नहीं हैं। यह तो एक ही वस्तुको दो पहलुओं से समझनेका तरीका है । प्रकृतमें धर्म है जीवका स्वभाव और अधर्म है जीवमें विकारी भाव । जहाँ अधर्मका त्याग कर धर्मको धारण करना चाहिये, ऐसा उपदेश दिया जाता है वहाँ इसका यह अर्थ लिया जाता है कि काम, क्रोध, ईर्ष्या, मद, मात्सर्य आदि विकारी भावोंका त्याग कर क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि भावोंको धारण करना चाहिये । अधिकतर लोक बाह्य क्रियाकाण्डपर अधिक जोर दिया है और उसे ही धर्म माना जाता है । आन्तरिक परिणतिके सुधारपर कदाचित् भी ध्यान नहीं दिया जाता है । यह स्थिति उत्तरोत्तर बढ़ती ही जा रही है। जीवनके प्रत्येक क्षेत्र में इसका एकाधिकार है । जो अपनेको साधु, त्यागी या व्रती मानते हैं उनमें भी इस अवस्थाका बोलबाला है। हमने अपनेको साधु, त्यागी या व्रती माननेवाले ऐसे कई मनुष्य देखे हैं जो स्वभावसे क्रोधी हैं, मायावी हैं. दम्भी हैं या झूठ बोलते हैं और भोजनके समय आकाशपातालको एक कर देते हैं। उनका दावा है कि पिण्डशुद्धि ( शरीर शुद्धि) के बिना आत्म शुद्धि हो ही नहीं सकती। इसके लिये वे गायको नहला कर उसका दूध दुहाते हैं। चौकेमें धुले हुए कपड़े पहने ऐसे आदमी को, जिसे दूसरेने स्पर्श कर लिया हो, घुसने नहीं देते । हर किसीको पानी नहीं भरने देते । सिजाए हुए भोजनको चौकेसे बाहर नहीं लाने देते । छूताछूतको मानकर जिन्हें वे छूत समझते हैं उन सबके हाथका भोजन नहीं लेते। गृहत्यागी होकर भी पैसे रखते हैं और इस बातको अच्छा समझते हैं कि हम किसीका न खाकर अपना ही खाते हैं। स्वयं अपने हाथसे दाल, चावल आदि सोधते हैं । दिनका बहुभाग इसीमें निकाल देते हैं । धर्मको स्वीकार करने - कराने में भेद करते हैं । यह अवस्था केवल इन्हींकी नहीं हैं ऐसे कई गृहस्थ हैं जो इनका अन्धानुसरण करते है । " किन्तु जैनधर्म ऐसे क्रियाकाण्डको स्वीकार नहीं करता । भोजन शुद्धि एक बात है और भोजन शुद्धिके नामपर घृणा और अहङ्कारका प्रचार करना दूसरी For Personal & Private Use Only • Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ८] धर्मका रहस्य बात है। मनुष्य मनुष्यमें पर्यायगत ऐसी कोई वस्तुओंपर रंचमात्र अवलम्बित नहीं है । मन्दिर, अयोग्यता नहीं है जिससे एक बड़ा और दूसरा छोटा मूर्ति और धर्मपुस्तक आदि यद्यपि धर्मके साधन माने समझा जाय । श्राजीविकाके अनुसार कल्पित किये जाते हैं किन्तु इनसे धर्मकी प्राप्ति नहीं होती। जो गये वोंके आधारसे माने गये उच्च-नीच भेदको आत्मशुद्धिके सन्मुख होता है उसके लिये आत्मशुद्धिमें जीवनमें कोई स्थान नहीं । कदाचित् जीवन-शुद्धिके ये निमित्त हो जाते हैं इतना अवश्य है। धर्ममें आधारभूत आचारके अनुसार स्थूल वर्गीकरण किया प्रधानता आत्मशुद्धिकी है । आत्मशुद्धिको लक्ष्यमें भी जा सकता है पर यह वर्गीकरण उन दोषोंसे रहित रखकर जो भी क्रिया की जाती है वह सब धर्म है है जिनको जन्म देकर ब्राह्मणधर्म सर्वत्र उपहासका और आत्मशुद्धिके अभावमें राग, द्वेष या अहङ्कारवश पात्र बना है। धर्मका जन्म आत्मशुद्धिके लिये हुआ की गई वही क्रिया अधर्म है। यह धर्म और अधर्मका था और इसका उपयोग इसी अर्थमें होना चाहिये। विवेक है। जो आत्मार्थी इस दृष्टिसे जीवन यापन करता है वह इस दृष्टिसे विचार करनेपर यह स्पष्टतः अनुभवन तो स्वयं गलत रास्तेपर जाता है और न कभी में आता है कि धर्मका अर्थ मत-मतान्तर नहीं। धर्मदूसरोंको गलत रास्तेपर जानेके लिये उत्साहित ही का अर्थ धर्मशास्त्रके नामसे प्रचलित पुस्तकोंका पढ़ करता है। यह एक विचित्र-सी बात है कि मनुष्य जाना या कण्ठस्थ कर लेना भी नहीं। धर्मका अर्थ होनेपर एक धर्मका अधिकारी माना जाय और दूसरा मन्दिरमें जाकर वहाँ बतलाई गई विधिके अनुसार न माना जाय । वह जन्मसे इस अधिकारसे वञ्चित प्रभुकी उपासना करना भी नहीं। धर्मका अर्थ अपने कर दिया जाय । भला एक आत्मशुद्धि कर सके और अपने मतके अनुसार तिथि-त्यौहारोंका मानना या दूसरा न कर सके यह कैसे सम्भव है। पर्यायगत विविध प्रकारके क्रियाकाण्डोंका करना भी नहीं। धर्मअयोग्यता तो समझमें आती भी है पर पर्यायगत का अर्थ जनेऊ, दाढ़ी या चोटीका धारण करना भी अयोग्यताके न रहते हुए ऐसी सीमा बाँधना उचित महीं । धर्मका अर्थ नदीमें स्नान करना, सूतक-पातकका नहीं है । तीर्थङ्करोंने इस रहस्यको अच्छी तरहसे मानना, अष्टमी और चतुर्दशीके दिन उपवास करना जान लिया था इसलिये उन्होंने आत्म-शुद्धिका या अनध्याय रखना, एकान्तमें निवास करना. कायदरवाजा सबके लिये समानरूपसे खोल दिया था। क्लेश करना आदि भी नहीं। ये सब क्रियाएँ धर्म उनकी सभामें सब मनुष्योंको समानरूपसे आत्मधर्म समझकर की तो जाती है पर आत्मशुद्धिके अभावमें का उपदेशं दिया जाता था और वे उसे बिना रुकावट- ये धर्म नहीं हैं इतना उक्त कथनका सार है। के धारण भी कर सकते थे। जो श्रमण होना चाहता . जैनधर्मने ऐसे पाखण्डका सदा ही निषेध किया है था वह श्रमण हो जाता था और जो गृहस्थ अवस्था जिसका आत्म-शुद्धिमें रंचमात्र भी उपयोग नहीं में रहकर ही जीवन-शुद्धिका अभ्यास करना चाहता होता या जिसे लौकिक लाभकी दृष्टिसे स्वीकार किया था उसे वैसा करने दिया जाता था। किन्तु जो इन जाता है। अवस्थाओंको धारण करने में अपनेको असमर्थ पाता जिन' शब्दका अर्थ ही 'जीतनेवाला' है । जिसने था उसे बाधित नहीं किया जाता था । वह अपने परि- विषय और कषायपर विजय पाई है वह भला थोथे णामोंके अनुसार जीवन यापन करनेके लिये पाखण्डको प्रश्रय कैसे दे सकता है ? यद्यपि जैनधर्मने स्वतन्त्र था। बाझ क्रियाकाण्डका निर्देश किया है अवश्य और धर्ममें अधिकार और सत्ता नामकी कोई वस्तु उसका आत्मार्थी धर्म समझकर पालन भी करते हैं, नहीं है । वह तो व्यक्तिके जीवनमेंसे आकर जीवनके पर उसने बाह्म क्रियाकाण्डको धर्मरूपसे स्वीकार निर्माणद्वारा इनका ध्वंस करता है । वह बाह्य करनेका कभी भी दावा नहीं किया है। वह मानता है For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्मृतिकी रेखाएँ Hist IFPRATI HTTES चामान HPTH . (लेखक-श्रीअयोध्याप्रसाद गोयलीय) मनुष्यके निजी व्यक्तित्त्वसे उसके देश, धर्म, वंश सम्बन्धमें वहाँ वालोंकी बहुत ही भ्रामक धारणाएँ | आदिका परिचय मिलता है । अमुक देश, धर्म, बन गई । और वहाँ कुली शब्द ही भारतीयताका ' समाज और वंश कितना सभ्य, सुसंस्कृत, द्योतक होगया । हर भारतीयको अफ्रीकामें कुली विनयशील, सेवाभावी और सच्चरित्र है, यह उस सम्बोधित किया जाने लगा । यहाँ तक कि महात्मा देशके मनुष्योंके व्यक्तित्त्वसे लोग अनुमान लगाते . गान्धी भी वहाँ इस अभिशापसे नहीं बच पाये। हैं। कहाँ कैसे-कैसे महापुरुष हुए हैं, किस धर्मके ___ कलकत्तेमें अक्सर मोटर-ड्राइवर सिक्ख हैं। कितने उच्च सिद्धान्त हैं, इस पुरातत्त्वका ज्ञान सर्व एकबार वहाँ गुरु नानकके जुलूसको देखकर किसी साधारणको नहीं होता । वह तो व्यक्तिक वतमान अंग्रेजने बंगालीसे पूछा तो जवाब मिला-"यह व्यक्तित्त्वसे खरे-खोटेका अनुमान लगाते हैं। डाइवरोंके मास्टरका जुलूस है। सुना है यह मोटर ___दक्षिण अफ्रीकामें शुरू-शुरूमें भारतसे बहुत ही चलानेमें बहुत होशियार था।” जवाब देनेवालेका क्या निम्न कोटिके मनुष्योंको लेजाया गया और उनसे कुसूर ? वह सिक्ख मोटर-ड्राइवरोंकी बहुतायत और कुलीगीरीका काम लिया गया । उनकी घटिया मौजूदा व्यवहारके परे कसे जाने कि सिक्खोंमें बड़े-बड़े मनोवृत्ति और महनत-मजदूरीके कार्योंसे भारतके त्यागी, तपस्वी, शूरवीर, राजे-महाराजे हुए हैं कि जो आत्मधर्मसे विमुख है वह तो मिथ्यादृष्टि है और हैं। ही किन्तु जो आत्मधर्म समझकर इस क्रियाकाण्डका - यूरुपका व _.. यूरुपकी किसी लायब्रेरीमें एक भारतीय पहलेपालन करता है वह भी मिथ्यादृष्टि है। जैनधर्मने पहल गया और वहाँ किसी पुस्तकसे चित्र निकाल भावोंकी शुद्धिपर जितना अधिक जोर दिया है उतना लाया। दूसरे दिन ही बोर्ड लगा दिया..... ..... क्रियाकाण्डपर नहीं। यह इसीसे स्पष्ट है कि परिपूर्ण (भारतीयोंका प्रवेश निषिद्ध है)। सन् १९१७में अपने धर्मकी प्राप्ति वह सब प्रकारकी क्रियाके अभाव में ही रिश्तेदार महावीरजी होते हुए भरतपुर भी उतरे । मैं स्वीकार करता है। भी उनके साथ था। महाराज भरतपुरके रंगमहल. यह धर्मका रहस्य है जो आत्मार्थी इस रहस्यको मोतीमहल आदि देखने गये तो एक स्थानमें औरतोंको जानकर जीवनमें उसे उतारता है वास्तवमें उसीका नहीं जाने दिया गया। पूछनेपर मालूम हुआ कि जीवन सफल है। क्या वह दिन पुनः प्राप्त होगा जब कोई औरत कुछ सामान चुराकर लेगई थी, तबसे हम आप सभी धर्मके इस रहस्यको हृदयङ्गम करनेमें औरतोंका प्रवेश वर्जित कर दिया गया है। सफल होंगे ? जीवनका मुख्य आधार आशा है । हम विदेशों में भारतियोंके लिये उनकी परतन्त्रता तो आशा करते हैं कि हम आप सभीको वे दिन पुनः अभिशाप थी ही, कुछ कुपूतोंने भारतीयताके उच्च प्राप्त होंगे। धरातलका परिचय न देकर जघन्य ही परिचय दिया। For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ८ ] व्यक्तित्व [३०७ इससे समस्त यूरुपमें भारतके प्रति बड़ी भ्रामक पूञ्जीपतिके सामानको छोड़कर कुली इंग्रेजका सामान धारणाएँ बन गई। उठायेगा, ताँगेवाले टैक्पीवाले भी पहले इंग्रेजको ही अधिकांश यहाँके राजे-महाराजे वहाँ रङ्ग-रेलियाँ तरजीह देंगे। यहाँतक कि मँगते भी पहले उन्हींके करने गये तो, आमलोगोंको विश्वास होगया कि आगे हाथ पसारेंगे। भारतीय ऐय्याश और पैसेवाले होते हैं। और इसा इंग्रेजोंके उस व्यक्तित्वका जहाँ प्रभाव पड़ा, वहाँ विश्वासके नात यूपियन महिलाएँ इण्डियन्सके पीछे उनके अवगुणासे भी लोग शङ्कित हुए टामी लोगोंमें मक्खियोंकी तरह भिनभिनाने लगीं। सच्चरित्र और विश्वस्त भी रहे होंगे; परन्तुइनका किसी ___ अमेरिका-कनाडामें ग़रीब तबके सिक्ख महनत- ने विश्वास नहीं किया। ये हमेशा यूरुपके कलङ्क समझे मजदूरी करने पहुंचने लगे तो वहाँ समझा गया कि गये। यूरुपियन महिलाओंकी स्वच्छन्दतासे भारतीय इण्डियन बहुत निर्धन होते हैं. अतः नियम बना दिया इतना घबराते थे कि कोई भी भला आदमी उनके गया कि निर्धारित निधि दिखाये बिना कोई भी सम्पर्कमें आनेका साहस नहीं करता था। लोगोंका भारतीय अमरीकन-सीमामें प्रवेश नहीं कर सकेगा। विश्वास था: भारतमें जब इंग्रेजोंका प्रभुत्व जमने लगा तो 'काजरकी कोठरीमें कैसो हू सयानो जाय , उन्होंने नीति निश्चित कर ली कि भारतमें उच्च श्रेणी काजरकी एक रेख लागे पर लागे है।' के इंग्रेज ही जाने पाएँ। ताकि शासित जातिपर एक बार एक उद्योगपतिने मुझसे कहा था कि शासकवर्गका अधिकाधिक प्रभाव जम सके । उक्त यदि मेरे बराबरके डिब्बेमें भी कोई यूरुपियन महिला नीतिके अनुसार भारतमें जबतक इंग्रेज उच्चकोटि- सफर कर रही हो तो में तत्काल उस डिब्बेको छोड़ के आते रहे उनके सम्बन्धमें भारतीयोंकी धारणा देता हूं। यह लोग कब क्या प्रपञ्च रच दें अनुमान उच्चसे उच्चतर बनती गई। लोगोंका विश्वास दृढ़ नहीं लगाया जा सकता। एक ही आदमीके अच्छेहोगया कि हिन्दुस्तानी न्यायाधीश, हाकिम. व्यापारी बुरे व्यक्तित्वसे लोग अच्छे-बुरे अनुमान लगाते और मित्रसे कहीं अधिक श्रेष्ठ इंग्रेज न्यायाधीश, रहते हैं। हाकिम. व्यापारी और मित्र होते हैं। ये बातके धनी, २-४ आदमियोंकी तनिक-सी भूल उनके देश, धर्म, वक्तके पाबन्द. उदार हृदय और ईमानदार होते हैं। समाजवंशके मार्गमें पहाड़ बनकर खड़ी होजाती है। __परिणाम इस धारणाका यह हुआ कि इंग्रेज १०-५ ब्राह्मणोंने लोगोंको विष दे दिया तो लोग कह बैठते जज, हाकिम, डाक्टर, वकील इञ्जानियर, व्यापारी हैं ब्राह्मणोंका क्या विश्वास ? नाथूराम विनायक आदि हिन्दुस्तानियोंकी नज़रोंमें हिन्दुस्तानियोंसे गोडसेके कारण-विदेशोंमें हिन्दुओंको और भारतमें अधिक निष्पक्ष, योग्य और चतुर बन गये। यहाँ ब्राह्मणों महाराष्टों, विनायकों और गोडसोंको कितना तक कि विलायती वस्तुके सामने हम स्वदेशी वस्तुको कलङ्कित होना पड़ा है ? हेच समझने लगे। हमारा अभीतक विश्वास भी है ईसाईयोंने अपने सेवाभावी व्यक्तित्वकी ऐसी कि विलायती वस्तु खालिस और उत्तम होती है। छाप मारी है कि उनके सायेसे भी घृणा करनेवाले स्वदेशी नकली, मिलावटी और घटिया होती है। बड़े-बड़े तिलकधारी अपनी बहू-बेटियोंको बच्चा प्रसत्रलिखा कुछ होगा और माल कुछ और होगा। ऊपर के लिये मिशनरी हॉस्पिटल्समें निःशङ्क अकेली छोड़ कुछ और अन्दर कुछ और होगा । हिन्दुस्तानीके आते हैं । सबका अटूट विश्वास है कि उतनी सेवाव्यापार-व्यवहारमें स्वयं हिन्दुस्तानीको नैतिकताकी परिचर्या घरवालोंसे हो ही नहीं सकती। आशङ्का बनी रहती है। इंग्रेजोंकी उदारता-नैतिकता- मुसलमानोंमें अनेक सदाचारी. तपस्वी. और की यहाँ तक छाप पड़ी कि बड़ेसे बड़े भारतीय मुन्सिफ हुए हैं। परन्तु यहाँ जो उन्होंने अपने For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ ] व्यक्तित्वका असर डाला है, उसको देखते हुए कोई हिन्दू स्त्री केली उनके मुहल्लोंसे निकलनेका साहस नहीं कर सकती । जनता तो व्यक्तियोंके वर्तमान व्यक्तित्व से अपनी धारणा बनाती हैं। उनके पूर्वज बादशाह थे या पैग़म्बर, इससे उसे क्या सरोकार ? अनेकान्त अलीगढ़के ताले और लुधियानेकी नक़ली सिल्क एजेण्टोंके धोखोंसे तङ्ग आकर, अलीगढ़ी और लुधियानवी लोगोंपर से ही जनताका विश्वास उठ गया । कई धर्मशालाओं में उनके ठहरनेपर भी आपत्ति होती देखी गई है। I कुछ मारवाड़ी फूहड़ और लीचड़ होते हैं। फर्स्ट क्लासमें सफ़र करें तो बाथरूम के बेसिनको मिट्टी से भरदें, डिब्बेमें पानीकी बाल्टी छलका छलका कर सिल बल- सिलबिल कर दें । मारवाड़ी औरतें घूँघट मारे रहेंगी. पर लेटफार्मपर बारीक धोती पहन कर नहाएँगी और धोती जम्पर बदलते हुए नङ्गी भी ज़रूर होंगी । कलकत्तेसे बीकानेर जाते-जाते बाबुओं और कुलियोंको घूंसके पचासों रुपये देते जाएँगे परन्तु दो रुपये देकर लगेज़ रसीद नहीं लेंगे। इन १००-५० फूहड़ोंके कारण अच्छे-अच्छे प्रतिष्ठित नैतिक मार वाड़ियोंको भी कुली और बाबूसे तन होना पड़ता है। चुङ्गीका जमादार गैर क़ानूनी वस्तुओं के आयात-निर्यात करनेवाले बदमाशोंको तो नजरन्दाज कर देगा, परन्तु सुसभ्य सुसंस्कृत मारवाड़ीका ट्रक विस्तर जरूर खुलवायेगा। क्योंकि उसकी धारणा बन गई है कि मारवाड़ीको तङ्ग करनेपर पैसा जरूर मिलता है । एक सम्प्रदाय और प्रान्त विशेषके नौकरीके इच्छुकों को कलकत्ते - बम्बई में यह कहकर टाल दिया जाता है - "नौकरी तो है परन्तु छोकरी नहीं" । अर्थात् जहाँ छोकरी नहीं. वहाँ तुम नौकरी करोगे नहीं और जहाँ छोकरी होगी तुम लेकर ज़रूर भागोगे | भारत में कई जातियाँ ऐसी हैं कि लोग राह चलते रात होनेपर जङ्गलोंमें पड़ रहना तो ठीक समझते हैं किन्तु उनके गाँवमेंसे गुजरना मंजूर नहीं करते 1 [ वर्ष दो-चारके खरे-खोटे आचरण और व्यक्तित्वके कारण समूचा देश, धर्म, समाज. वंश कलङ्कित हो जाता है । और यह कलङ्क ऐसे हैं कि नानीके पाप धेवतोंको भुगतने पड़ते हैं । एक बार एक सज्जन (सम्भवतया मुनि तिलकविजय) वर्मा गये। वहाँ दो वर्मियोंने उनका यथेष्ट सत्कार किया । प्रवासयोग्य उचित सहायता पहुँचाई । जब वे वर्मासे प्रस्थान करने लगे तो वर्मी मेजवानों का आभार मानते हुए, बार-बार अपने लिये कोई सेवाकार्य बतलाने आग्रह करनेपर वर्मियोंने सकुचाते हुए कहा - यदि वर्मा - प्रवासमें आपको वर्मियोंकी ओरसे कोई क्लेश पहुंचा हो या उनके स्वभावआचरण आदिके प्रति कोई आपने धारणा बना ली हो तो कृपाकर आप उसे समुद्र में डालते जाएँ । अपने देशवासियोंको इसका आभास तक भी न होने दें । क्यों ? यही तनिक-तनिक-सी धारणाएँ देशसमाज के लिये पहाड़ जैसी कलङ्क बनकर उभर आती हैं । बनियेके यहाँ लोग बिना, रसीद लिये रुपया दे आते हैं। जो देना -पावना उसकी बहो बतलाती है. ठीक मान लेते हैं; परन्तु बैङ्कके बड़ेसे बड़े अफसरको बिना रसीद एक पाई भी कोई नहीं देता न पाई-टू-पाई हिसाब मिलाये बिना कोई विश्वास ही करता है । इसका भी कारण यही है कि बनिया लेन-देनमें अधिक प्रामाणिक समझ लिया गया है । जितनाजितना वह पतनकी ओर जारहा है, उतना ही वह बदनाम भी होता जारहा है। शिकारपुर, भोगाँव, बलिया के निवासी मूर्ख और बिहारी बुद्ध क्यों कहलाते हैं ? क्या इन जगहोंमें सारे भारतके मूर्ख इकट्ठे कर दिये गये हैं, अथवा यहाँ मूर्ख और बुद्ध पैदा ही होते हैं ? नहीं, इन शहरोंके १०-५ गधोंने बाहर जाकर इस तरहकी हरकतें कीं कि लोगोंने उनसे उनके प्रान्त और शहर के सम्बन्धमें उपहासास्पद धारणाएँ बना लीं। वे गधे तो न जाने कबके मर गये होंगे, पर उनके गधेपनका प्रसाद वहाँ वालोंको बराबर मिल रहा है । For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ८ ] भूमिका तनिक लम्बी होगई । प्रत्येक व्यक्तिको यह ध्यान रखना आवश्यक है कि उसके कारण उसके देश-समाज आदि प्रतिष्ठित न हो सकें तो बदनाम भी न होने पाएँ । प्रसङ्गवश आपबीती कुछ घटनाएँ दी जारही हैं । ( १ ) दिल्ली में १९३० के नमक सत्याग्रहके पहले जत्थे में ५ सत्याग्रहियोंमें हम दो जैन थे । बाक़ी तीनमेंसे १ मुसलमान और दो बाहरके मज़दूरवर्गसे थे । ७०-८० हजारकी भीड़, हमें देहलीसे सत्याग्रह स्थल (सलीमपुर-शाहदरा ) की ओर पहुंचाने चली तो मार्ग में क़िलेके सामने जैन लालमन्दिर आया । प्रत्येक शुभ कार्यों में जैनी मन्दिर जाते ही हैं । अतः हम दोनों भी मन्दिरको देखते ही भीड़को रोककर दर्शनार्थं गये । इस तनिक-सी बातसे देहलीमें यह बात फैल गई कि देहली के दोनों सत्याग्रही जैन हैं । जैनोंने सबसे आगे बढ़कर अपनेको भेट चढ़ाया है । हाँ, भेट ही, क्योंकि उस समय किसीको गवर्नमेण्टके इरादेका पता नहीं था । हमें जब जत्थे में लिया गया तब काँग्रेस अधिकारियोंने स्पष्ट चेतावनी दे दी थी — “सम्भव है तुमपर घोड़े दौड़ाएँ जाएँ, गोलियाँ चलाई जाएँ, लाठियाँ बरसाई जाएँ, अङ्गहीन या अपाहिज बनाये जायें" । हर तरह के खतरोंको ध्यान में रखकर ही साबुत क़दम और पूर्ण अहिंसक बने रहने की हमने एक लाख जन-समूहमें प्रतिज्ञा की थी । अतः लोगोंको जब मालूम हुआ कि दोनों जैन हैं तो लोग अश-श करने लगे और जैन तो गले मिल मिलकर रोने लगे । “भाई तुम लोगोंने हमारी पत रखली” | नमक-सत्याग्रह हुआ। पुलिसने अण्डकोष पकड़कर घसीटे ; नमकका गरम पानी छीनाझपटीमें - शरीरोंपर गिरा । परन्तु सदैव इसी पत' का ध्यान बना रहा । व्यक्ति तो हमारे जैसे अनगिनत पैदा होंगे, पर 'पत' गई तो फिर हाथ न आयेगी । इसी भावनाने लहमेभरको विचलित नहीं होने दिया । ( २ ) व्यक्तित्व [ ३०६ बन्दियोंके लिये शामके भोजनकी व्यवस्था दिनमें न होकर रात्रिमें होती है। हालाँकि जेल -नियमानुसार सूर्यास्त से पूर्व सब क़ैदी भोजन कर लेते हैं । परन्तु राजनैतिक बन्दी अपना भोजन रात्रिको ही बनवाते थे । रात्रिको भोजन न लेनेपर एक नेता बोले-“यहाँ दिन -विनका नियम नहीं चल पायेगा. इस पाखण्डबाजीको अब धता बताओ" । मैंने प्रकट में तो कुछ नहीं कहा, पर मनमें संकल्प किया - यह नियम अब की चोट निभेगा । हायरे हम, और हमारे नियम ! किसीसे मैंने कुछ कहा नहीं; उन लोगोंके भोजन-समय चुपचाप टल गया। परन्तु फिर भी पाखण्डीका फतवा नाजिल हो ही गया ! होना तो यह चाहिये था कि हमारे भूखे रहनेपर हमारे साथी भी रात्रिमें भोजन करते हुए कुछ सङ्कोच अनुभव करते और व्रतकी विशेषता और दृढ़ताकी प्रशंसा करते। इसके विपरीत हमारे मुँहपर ही इसे पाखण्ड बताया जा रहा है। मालूम होता है कोई न कोई त्रुटि हममें दिखाई अवश्य देती है : नियाज़े इश्क़में खामी कोई मालूम होती है । तुम्हारी बरहम क्यों बरहमीं मालूम होती है ॥ भाई नन्हेमलका जेल में साथ छूट गया। हम दोनों जुदा-जुदा गिरफ्तार किये गये थे । अतः मैं अकेला ही उस समय जेल में जैन था ! मैंने गोयलीय के बजाय अपनेको तब जैन लिखना प्रारम्भ कर दिया था । २-४ रोज़ शामको भूखा रहना पड़ा होगा कि दिल्ली जेलवालोंने हम सी-क्लास बन्दियोंके लिये भोजनका प्रबन्ध हमारे सुपुर्द कर दिया । और हमने ऐसा प्रबन्ध किया कि सब सूर्यास्त से पूर्व भोजन कर लेते । हमारी भोजन-व्यवस्था, स्वच्छता, प्रेम-व्यवहारको देखकर सभी प्रसन्न हुए । यहाँ तक कि उन नेता महोदय के मुँह से भी अनायास निकल ही गया— "भई जैनोंकी भोजन-व्यवस्था और स्वच्छताको कोई नहीं पहुँच सकता ! इन लोगोंका दिनमें भोजन करना और पानी छानकर पीना तो अनुकरणीय है । रात्रिमें लाख प्रयत्न करो कुछ न कुछ जीव-जन्तु पेटमें जेल पहुंचने पर मालूम हुआ कि राजनैतिक चले ही जाते हैं और भोजन ठीक नहीं पचता" | 1 For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० ] ( ३ ) दिल्ली टिम जेल भेज दिया गया । अण्डमानमें स्थान रिक्त न होनेके कारण पंजाबके जीवन - पर्यन्तके सजायाफ्ताक़दी यहीं रक्खे जाते थे । हमें भी यहाँ एक वर्ष रहनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ । ४ बजेका समय था, मैं अपना बान बाँटकर बैठा ही था कि लाल बनारसीदास ( जेलबाबू ) आये और किताबका पार्सल दिखाकर बोले "यह पार्सल आपका है ?" " जी ।" "क्या आप जैन हैं ?” "aft 1" "आप लोग, सुना है गोश्त नहीं खाते" ? (व्यंग्यात्मक हँसी) "जी, हम लोग गोश्त नहीं खाते" । "क्यों ?” "जैनोंका विश्वास जो किसीमें जान नहीं डाल सकता वह किसीकी जान नहीं ले सकता । हमें दूसरों के साथ वही व्यवहार करना चाहिये, जिस व्यवहार के लिये हम उनसे इच्छुक हैं । जैसी करनी वैसी भरनीके जैन क़ायल हैं। आज जो शक्तिके मदमें दूसरों को कष्ट पहुँचाते हैं, उन्हें एक न एक रोज़ अपराधियोंखड़ा होना होगा । दादा के लिये का मैदाँ होगा । हाथ मक़तूलका क़ातिलका गिरेबाँ होगा ॥ “ओह, माफ करना, मैंने आपसे जो आपके ज़मीर के खिलाफ थी । " “नहीं, यह तो आपका सौजन्य है जो आपने एक कैदीसे बात की, वर्ना यहाँ कौन किसीसे बात करता है ?" ऐसी बात की “सुना है, जैन झूठ नहीं बोलते ?” “हाँ, बोलना तो नहीं चाहिये । पर, कलङ्क तो चन्द्रमामें भी होता है । क्या कहा जासकता है, पाँचों कान्त [ वर्ष aai हीं होती ।" "इस पार्सल में किताबें कैसी आई हैं ? राजनैतिक या सरकारविरोधी तो नहीं हैं ?" " "जी, मैं देखकर अभी बतलाये देता हूं। आप विश्वास रखें जेल - नियम विरुद्ध किताब मैं एक भी नहीं रखूँगा।" किताबें धर्मबन्धु लाला पन्नालालजी अग्रवालने दिल्ली से सब धार्मिक भेजी थीं । किताबें लाला बनारसीदासको भी पढ़ने दी गईं तो उन्हें गोश्त से घृणा होने लगी। उन्होंने कई बार कहा कि इन किताबों के पढ़नेसे हम पति-पत्नी के दिलपर बड़ा असर हुआ है । वह अक्सर मुझसे तत्वचर्चा करने आता था । (8) जेल में साग-दाल में प्याज-लहसन इतना पड़ता था कि खाना तो दरकिनार उसकी गन्धसे हो जी ऊपर-ऊपरको आने लगता था । अत: क़रीब ५-६ माह रूखी रोटी, पानी या गुड़के सहारे पेटमें उतरती । एक रोज़ भोजन करते समय लाला बनारसीदास पहुँचे। इस तरह रूखी रोटी खाते देखकर सबबपूछा तो साथियोंने बतला दिया कि यह प्याज लहसन नहीं खा सकते । सुना तो बेहद बिगड़े | तुम लोगोंने मुझे क्यों नहीं कहा ? ये रूखी रोटी खाते रहते हैं और तुम लोग मजेसे इनके सामने दाल - साग खाते रहते हो। यदि तुम लोग ५० आदमी तैयार हो जाओ तो आजसे ही प्याज-लहसनरहित दाल - सागका ऐतराज होता. वह तो मजबूरन खाते थे। दूसरे दिन प्रबन्ध किया जा सकता है। साथियोंको इसमें क्या ६०-७० के लिये प्याज-लहसनरहित भोजन लगा। मिष्टगुमरीमें भोजन जेलका बना ही मिलता था । दिल्लीकी तरह हमारा प्रबन्ध नहीं था । (शेष हवी किरण में) For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँच प्राचीन दि० जैन मूर्तियाँ ता० २५-७-४८ रविवारका दिन था, मैं कुछ लेटे हुए डॉ. भांडारकरका जैन मूर्तिशास्त्रका वह नोट पढ़ रहा था जो 'आयलोजिक सर्वे ऑफ इंडिया' इतिवृत्तमें प्रकट हुआ है । था भी निश्चिन्त, रविवारके दिन मैं भी अपनी लेखनीको कष्ट नहीं देता । यों तो “आराम ” जैनमुनियोंकी जीवन-विषयक डिक्शनरीमें नहीं होता, भगवान महावीरने स्पष्ट शब्दोंमें बारबार कहा है “समयं गोयम मा पमाए" हे गौतम क्षणमात्र भी प्रमाद न कर । उपर्युक्त नोट पूरा करके आँखें बन्द होना ही चाहती थीं, रोकना भी मैंने उचित नहीं समझा. इतनी देर में मेरे सामने एक सज्जन आ पहुंचे जो पुरातत्वमें ही एम० ए० हैं, इसी विषयपर आचार्यत्व के लिये थीसिस - महानिबन्ध — भी लिखी है । मेरा मन तो था कि कह दूं कल आइये परन्तु आपने आते ही मेरे सम्मुख छह चित्र उपस्थित कर दिये। मुझे तो अत्यानन्द हुआ; क्योंकि पुरातत्त्व संशोधनका रोग जिसे लगा हो वह तो अपनी गवेषणा - विषयक रुचिकी पूर्तिके लिये पहाड़ों और खण्डहरों में घूमता ही रहता है उसके लिये मार्गमें आनेवाली बाधाएँ कोई मूल्य नहीं रखतीं, जब मुझे तो घर बैठे ही ये चीजें प्राप्त होगईं और वह भी जैन पुरातत्त्वसे सम्बन्ध रखने वाली, फिर प्रसन्नता क्यों न हो ? दिल उछलने लगा। मैंने बहुत चेष्टा की कि मैं इन्हें अभी अपने पास ही रखूँ कल लौटा दूंगा, पर जो सज्जन ये चित्र लाये थे उनके स्वामीकी आज्ञा रखनेकी न थी. न वे मुझे अभी नोट्स लेने देना ही चाहते थे। मैंने इन्हें खूब गौर से देखा कि इनकी कला वगैरहका ठीकसे अध्ययन करलूँ और बादमें कुछ पंक्तियाँ लिख लूँगा जिससे और अपरिचित जन भी इनके परिचयसे लाभान्वित हों, परन्तु मेरा अनुभव है कि जब तक मूल वस्तु – अवशेष — सम्मुख उपस्थित न हो तब तक उनका वास्तविक परिचय उचितरूपेण लिपि नहीं किया जा सकता, क्योंकि कलाकार (पाठक भूलसे मुझे ही कलाकार न समझ बैठे) जब सामनेकी वस्तु देखता है और कलम हाथमें उठाता है तब उसकी "मनोवृत्तियाँ केन्द्रित होकर उसके भीतर प्रवेश करने ( लेखक -- मुनि कान्तिसागर ) की चेष्टा करती हैं। वह सफल कहाँ तक होता है इसका निर्णय करना एतद्विषयक रुचि रखनेवाली जनताका काम है । सफल कलाकारका जीवन भी कई विलक्षणताओंका एक समन्वयात्मक केन्द्र है। उसके मस्तिष्ककी रेखाएँ ही इसका सूचनात्मक प्रतीक हैं। वह कभी तो शान्त - मुद्रा में रहता है, कभी गांभीर्य भावोंकी मूर्तिसम प्रतीत होने लगता है और सबसे बड़ी विशेषता है वह अप्रसन्न कभी नहीं होता, जैसे कोई शिकारी शिकार न मिलनेपर भी - निराश होना मानो उसके जीवनके बाहर की ही वस्तु हो । यदि स्पष्ट कह दिया जाय तो कलाकारका हृदय एक समुद्रके समान गम्भीर होता है । नदी-नाले जैसे एकत्र होकर रत्नाकरमें विलीन होजाते हैं ठीक उसी प्रकार ज्ञान-विज्ञानकी समस्त धाराएँ उसके हृदयमें समा जाती हैं, बिना इनके संगमके वह सफल कलाकार माना ही नहीं जासकता; तभी तो वह प्रस्तर और धातुओं पर प्रवाहित भावोंको समझकर विवेचना करनेको उद्यत रहता है । भावनाशील हृदय प्रत्येक स्थानको अपने विशेष दृष्टिकोण से देखता है । यही कारण है जहाँ कीचड़ भी न हो वहाँ वह उत्तम सरोवर देखता है । कहनेका तात्पर्य यह कि जहाँपर पाषाणोंका या कलात्मक अवशेषोंका ढेर हो वे हैं तो प्रस्तर पर कलाकारके लिये वे तात्कालिक सांस्कृतिक प्रवाहोंका प्रधान केन्द्र मालूम देते हैं । कलाकारको दुनिया ही निराली है। इसमें जो कुछ क्षण विचरण करनेका सौभाग्य प्राप्त करता है वही उपर्युक्त पंक्तियोंका साक्षात् अनुभव करनेकी क्षमता रखता है । हाँ तो अब मैं अपने मूल विषयपर आजाऊँ, मुझे नोट्स न लेने दिये तब कुछ रञ्ज-सा अवश्य हुआ इसलिये कि इतनी सुन्दर जैनकलात्मक कृतिएँ होते हुए भी आज जैनी इनसे क्यों अपरिचित रहें ? क्या प्रतिमा निर्माण करवानेवालोंका यही उद्देश्य था ? बिल्कुल नहीं। परन्तु जब मैंने जाना कि उसके स्वामीके यहाँ दो दिन चित्र रह सकते हैं और मैं वहाँ जाकर नोट कर लूँ तो उन्हें आपत्ति नहीं होगी, तब मैंने भी स्वीकार कर लिया । बादमें मैंने अपने दिल में For Personal & Private Use Only . Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ ] यही अन्दाज लगाया कि चित्र उसने इस भयसे शायद न रखें होंगे कि मैं कहीं उनकी प्रतिकृति उतरवा लूँ या ब्लॉक बनवा लूँ, अस्तु । चित्र चले गये पर मेरा मन उन्हींमें लगा रहा, सोच रहा था क्या ही अच्छा हो यदि रात छोटी होजाये और दिन निकलते ही मैं अभिलषित कार्यको कर डालूँ, पर अनहोनी बात थी । अनेकान्त तारीख २६-७-४८ को मैं बिहार प्रान्तके बहुत बड़े कलात्मक वस्तुसंरक्षकके यहाँपर सहयोगी बाबू पदमसिंह बललियाको लेकर पहुंचा ही । १२ बजनेका समय रहा होगा, मैं तो चाहता था कि वे श्रीमन्त मुझे चित्र अवलोकनार्थ देकर आरामकी नींद ले लें ताकि मैं शान्ति पूर्वक अपना काम निपटालूं, पर वे भी थे धुनके पक्के, बहुत धूप-छाँह देख चुके थे, मैं तो उनके सामने बच्चा था । चित्र मेरी टेबिलपर या गये और पाँच-सात मिनट के बाद वापिस लेनेकी भी तैयारी करने लगे । मैंने कहा, देखिये, ये काम उतना आसान नहीं कि पाँच-दस मिनटमें इनको समुचित रूपसे समझ लिया जाय । वे फिर अपने कामपर गये | मैं अपना और सारा काम छोड़कर प्रतिमा-चित्रोंका परिचय लिखने लगा, बीच-बीचमें वे आये और उनके मस्तिष्ककी रेखाओंमें मैं पढ़ रहा था कि जो कुछ काम मैं कर रहा हूँ वह आपको मान्य नहीं है । पर मैं भी मुँह नीचे दबाये लिखता ही गया, जो कुछ भी लिखा वही आपके सामने समुपस्थित करते हुए मैं आनन्दका अनुभव करता हूं। हो सकता है इनके परिचयसे और संस्कृतिप्रेमी भी मेरे आनन्दमें भाग बटावें । 1 १ – यह प्रतिमा भगवान् पार्श्वनाथजीकी है जैसा कि मस्तकोपरि सप्त फनोंसे सूचित होता है । निम्न भागमें सर्पाकृति नहीं है । यह प्रथा ही प्राचीन कालीन प्रतिमाओंमें नहीं थी या कम रही होगी । उपयुक्त ने इतने सुन्दर बने हैं कि मध्य भागकी रेखाएँ भी सुस्पष्ट हैं । सर्पाकृति पृष्ठ भागीय चरण से प्रारम्भ हुई है जैसा कि ढङ्कगिरिमें प्राप्त प्रतिमाओं में पाई जाती है। प्रतिमा सर्वथा नम है । इसका शारीरिक [ वर्ष ह 1 गठन और तदुपरि जो पालिशकी स्निग्धता है उससे सौंदर्य स्वाभाविकतया खिल उठता है । हाथ घुटने तक लगते हैं और इस प्रकारसे अङ्गुलियाँ रखी हुई हैं मानो यह सजीव है । प्रतिमाका मुखमण्डल बहुत ही आकर्षक और शान्तभावोंको लिये हुए है । होठोंसे स्मितहास्य फरक उठता । मस्तकपर घुंघरवाले. केशो कीर्णित हैं । उष्णीश भी है । आँखें कायोत्सर्ग मुद्राकी स्मृति दिलाती हैं। वाम और दक्षिण भाग में यक्षिणी - यक्ष चामर लिये अवस्थित हैं । चामर जटिल हैं। दोनोंकी प्रभावलि और मुखमुद्रा शान्त है परन्तु यक्षिणीकी जो मुद्रा कलाकारने अङ्कित की है उसमें स्त्री-सुलभ स्वाभाविक चाञ्चल्य विद्यमान । उभय प्रतिमाओं के उत्तरीय वस्त्र बहुत स्पष्ट हैं । गले में माला, कर्ण में केयूर और भुजदण्डमें बाजूबन्ध हैं । यक्षिणीकी जो प्रतिमा है उसके वाम चरण के पास एक स्त्री स्त्रियोचित समस्त आभूषणोंसे विभूषित होकर अंजली धारे भक्तिपूर्वक नमस्कार - वन्दना करती हुई बनाई गई है । मुखमण्डल पर सूक्ष्म दृष्टि डालने अवभासित होता है कि उनके हृदय में प्रभुके प्रति कितनी उच्च और आदर्शमय भावनाएँ अन्तर्निहित हैं । ऐसी प्राकृतिक मुद्राएँ कम ही देखने में आती हैं। प्रश्न यह उपस्थित होता है कि यह स्त्री कौन हो सकती है ? मेरे मतानुसार तो यह मूर्तिनिर्माण करवानेवाली श्राविका ही होनी चाहिए; क्योंकि प्राचीन और मध्यकालीन कुछ प्रतिमाएँ मैंने ऐसी भी देखी हैं जिनमें निर्मापकयुगल रहते हैं । उभय प्रतिमाओंके उपरि भागमें पद्मासनस्थ दोनों ओर दो जिन - प्रतिमाएँ हैं । तदुपरि दोनों ओर आकाशकी आकृतिपर देवियाँ हस्तमें पुष्पमाला लिये खड़ी हैं. उनका मुखमण्डल कहता है कि वे अभी ही भगवानको मालाओं से सुशोभित कर अपने भक्तिसिक्त हृदयका सुपरिचय देंगी। मालाओंके पुष्प भी बहुत स्पष्ट हैं । मस्तकपर छत्राकृति है । मूल प्रतिमाका निम्न भाग उतना आकर्षक और कलापूर्ण नहीं । मध्यमें धर्मचक्र और उभय तरफ विपरीतमुखवाले ग्रास हैं । परन्तु प्रतिमापर निर्माणकाल सूचक खास संवत् या वैसा For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ८] पाँच प्राचीन दि. जैन मूर्तियाँ [ ३१३ कोई उल्लेख नहीं है । अतः प्रतिमाकी निर्माणकलापर- इस प्रकार पाँचों खडगासनस्थ दिगम्बर मूर्तियाँ हैं। से ही इसकी शताब्दी निर्णीत करनी होगी। मैं और इस प्रकार पाँच चित्र प्रतिमाओंके मेरे सम्मुख चित्रवाहक सज्जन इसे अन्तिम गुप्तकालीन कृतियोंमें आये, जैसा मुझपर प्रभाव पड़ा और समझा वह समाविष्ट करते हैं। पूर्वीय कलाका प्रभाव है। इस आपके सामने है। छठवाँ चित्र एक ताम्र पत्रका था, टाइपकी और भी अनेक शिल्पकृतियाँ मगधमें फोटू इतना रद्दी और अस्पष्ट था कि उनको ठीकसे उपलब्ध होचुकी हैं। पढ़ना असम्भव था। कार्डसाइजमें ३४ पंक्तियोंकी ___ लम्बाई, चौड़ाई और मुटाई इस प्रकार चित्रके कृतिको कैसे पढ़ा जासकता था, परन्तु इतना अवश्य पृष्ठ भागमें उल्लिखित थीं- २२।।, १९।। ४ इंच है। प्रतीत हुआ कि समय १२३० आषाढ़ कृष्णा अमावस्या___ २–प्रस्तुत प्रतिमा उपर्युक्त प्रतिमाके अनुरूप है। का है । चन्द्रदेव नृप, गोबिन्दचन्द, मदनपाल और विदित होता है कि एक ही कलाकारकी दो कतियाँ हैं। नृपचन्ददेवके नाम पढ़े गये। उपर्युक्त सभी सामग्री अन्तर केवल इतना ही है कि ऊपर वाली मूर्तिमें विक्रयार्थ ही किसीके संग्रहमें रखी है। नामका मुझे पद्मासनस्थ २ प्रतिमाएँ हैं जब इसमें चार हैं और स्वयं पता नहीं । सुना है ६०० रुपये मूल्य है। ताम्रनिम्नभागमें भी धर्मचक्रके दोनों ओर पद्मासनस्थ २ पत्र अलग ६०० रुपये। प्रतिमाएँ हैं। ग्रास नहीं हैं। परन्तु भव्यतामें कुछ मेरे ही सदृश और भी पुरातत्त्वप्रेमियोंको ऐसे उतरती हुई है। समय वही प्रतीत होता है। नाप. अनुपलब्ध प्रतिमाओं तथा संस्कृतिकी सभी शाखाओं१२. १२ ॥३. ३।। इंच है। से सम्बन्ध रखनेवाले अवशेष या चित्र दृष्टिमें आते ३-एक लघुतम प्रस्तर चद्रानपर उत्कीर्णित है। हा होंगे। मेरा उनसे अनुरोध है कि वे इस प्रकारके इसकी रचना दोनोंसे सर्वथा भिन्न है। उभय स्कंध- नोट्स ही-यदि होसके तो चित्र भी-'अनेकान्त में प्रदेशसे सटी हुई २ प्रतिमाएँ और निम्न भागमें यक्ष- प्रकाशनार्थ अवश्य ही भेजकर सांस्कृतिक उत्थानमें यक्षिणिएँ हैं । ग्रास, धर्मचक्र समान हैं। मूलका मुख सहयोग दें। वरना सामग्री यों ही संसारसे विदा हो बड़ा शान्त है. पर इसकी नासिका कुछ चपटी है जो जायगी। यद्यपि इस प्रकारके शाब्दिक चित्रोंसे कलाबुद्ध धर्मकी आंशिक देन है क्योंकि बौद्ध कलावशेषों- कारोंको उसके रहस्योंका सूक्ष्म परिज्ञान भले ही न में चपटी नाक आती है जैसाकि बुद्धदेवकी जातिका हो पर पुरातत्त्वके मुझ जैसे सामान्य व्यक्तियोंको ही गुण है। नेपालका प्रभाव माना जाय तो आपत्ति अग्रिम अध्ययनमें बड़ी सहायता मिलती है। यों तो नहीं। नाप १३।. ६, ३।। इञ्च है । नग्न है। इसे मैं बिहार प्रान्तके खण्डहरोंमें और पटना म्यूजियममें पाल कालीन प्रतिमा मानता हूँ। भी अनेकों सुन्दर कलापूर्ण जैन प्रतिमाएँ पाई जाती ४-यह प्रतिमा कलाकौशलकी दृष्टिसे उतनी हैं जिनका विस्तृत सचित्र परिचय मैं "बिहारकी तीर्थ महत्वपूर्ण भले ही न हो पर मूर्तिनिर्माणशास्त्रके भूमिमें" शीर्षक निबन्धमें दूंगा। उल्लेखोंके सर्वथा अनुरूप है । इसकी उठी हुई छाती पटना सिटी, ता० २७-७-४८ एक सैनिकका स्मरण दिलाती है। मुझे तो कहते १ जैन समाजका एक भी सार्वजनिक पुरातत्वविषयक तनिक भी संकोच नहीं कि इसके निर्माणपर गोम्म- संग्रहालय नहीं है । यह अफसोसकी बात है । वरना ऐसी टेश्वर महाराजकी प्रतिमाका असर स्पष्ट है । मुख और सामग्रियाँ भटकती न फिरतीं। परन्तु अब ४-५ लाख शारीरिक रचनासे एवं हस्तोंपर बिखरी हुई लताएँ रुपयेका चन्दा करके क्यों न इस ओर कदम बढ़ाया भी इसकी पुष्टि करती हैं। रचनाकाल १२ शती होगा। जाता, थोड़ा-थोड़ा संग्रह भी आगे विशाल संग्रहका रूप ५-यह प्रतिमा खडगासनस्थ है। मोटी आकृति । धारण कर लेता है । 'भारतीयज्ञानपीठ' के कार्यकर्ताओंहै। काल १३ शती है। का ध्यान मैं इन पंक्तियों द्वारा आकृष्ट करना चाहता हूँ। For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'संजद' शब्दपर इतनी आपत्ति क्यों ? ( लेखक - श्री नेमचन्द बालचन्द गांधी, वकील) प्रो० हीरालालजीने कोई ७ वर्ष पूर्व षट्खंडागमके प्रथम भाग जीवट्टारकी प्रथम पुस्तक प्रसिद्ध की थी । इसके ३३२वें पृष्ठपर ह३ वाँ सूत्र छपा है, जो नीचे उद्धृत किया जाता है ॥६३॥ " सम्मामिष्ठाट्ठि - संजमसम्माइट्ठि - संजादासंजद'-द्वाणे णियमा पज्जतिया इस सूत्रपर सम्पादकों द्वारा दीगई ' १ अत्र “संजद” इति पाठशेषः प्रतिभाति' इस टिप्पणीको देखते ही दिगम्बर जैन समाजमें एक धूम मच गई । उसका यह खयाल हुआ कि प्रोफेसर साहबका इस सूत्रमें “संजद” शब्दको बढ़ाने में कुछ हेतु है । क्योंकि इस शब्द बढ़ानेसे दिगम्बर आम्नायके विरुद्ध द्रव्यको मुक्ति प्राप्त होना सिद्ध होगा । इस भयके कारण पं० मक्खनलालजी शास्त्री मोरेना और पं० रामप्रसादजी शास्त्री बम्बईने लेख और ट्रैक्ट लिखे और 'संजद' शब्दको हटानेकी प्रेरणा की । यह धूम सिर्फ समाज तक ही महदूद (सीमित) नहीं रही. किन्तु परमपूज्य आचार्य श्री १०८ शांतिसागर महाराजजी तक पहुँचा दी गई । और उनको यह सुझाया गया कि अगर सूत्रमें यह 'संजद' शब्द बढ़ाया जाय तो बड़ा अनर्थ होगा, और श्वेताम्बर आम्नाय-सम्मत स्त्री-मुक्तिकी पुष्टि होकर दिगम्बरा नाय नेस्तनाबूद हो जायगा । पं० मक्खनलालजीने जो ट्रैक्ट लिखा वह १७० पेजोंका है। उसका नाम है - " सिद्धांतसूत्र समन्वय" इसे आपने बड़ी भक्तिसे श्रीशांतिसागरजी महाराजके करकमलोंमें समर्पित किया है। प्रो० हीरालालजीने "संजद" पदकी आवश्यकता को अपनी टिप्पणी में दिखाकर एक प्रकारसे प्रशस्त कार्य ही किया। लेकिन उसके बाद समाजकी ओरसे उसपर टीका होनेपर भी उसका जब मूलप्रतिसे मुक़ाबिला कराया गया और मूलप्रतिमें संजद' शब्द का होना निर्णीत होगया तब वस्तुस्थितिसे सब परिचित होगये | इतना होनेपर भी श्री पं. मक्खनलालजी शास्त्री प० पू० आचार्य महाराजजी से निवेदन करते हैं कि “ताम्रपत्र निर्मापक कमेटीको आदेश देकर 'संजद' पद जिस ताम्रपत्रपर खुदा हो उसको अलग करा देवें ।” मूल ताडपत्रकी प्रतिमें 'संजद' पद है और उसी के अनुसार ताम्रपत्रपर भी खोदा गया है । ऐसी हालतमें उस ताम्रपत्रको ही अलग करा देनेका अनुरोध कुछ समझमें नहीं आता । ग़नीमत है कि मूल ताडपत्रके अलग करा देनेका अनुरोध नहीं किया गया । सिद्धान्तसूत्रसमन्वयके खण्डनपर विद्वद्वर पं० पन्नालालजी सोनी न्यायसिद्धान्त - शास्त्राने "षट्खण्डागम रहस्योद्घाटन " नामकी एक पुस्तिका २३२ पेजकी लिखकर प्रकाशित की है, जिसमें बहुत ही स्पष्टतासे यह साधार सिद्ध किया है कि सूत्र ६२-६३ का सम्बन्ध भाव स्त्रीसे है, न कि द्रव्यस्त्रीसे । जो जीव द्रव्यपुरुष होकर भावस्त्री हो उसके चौदह गुणस्था हो सकते हैं और जो जीव द्रव्यस्त्री हो वह पाँचवे गुणस्थानके श्रागे नहीं जासकता । इसलिये सूत्र ह३ में स्थित " संजद" पद किसी प्रकार द्रव्यस्त्रीकी मुक्ति नहीं सिद्ध कर सकता । अतएव उसे दूर करनेका आग्रह निष्प्रयोजन है । प्रत्युत उस पदके दूर होजानेपर ही दिगम्बर आम्नाय तथा षट्खण्डागममें विसङ्गति आदि अनेक दोष खड़े होजाते हैं, जोकि अनर्थकारी ही सिद्ध होते हैं। ये सब बातें पण्डितप्रवर सोनीजीने अपने ट्रैक्टमें 1 For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ८] 'संजद' शब्दपर इतनी आपत्ति क्यों ? [३१५ इतनी विशद रीतिसे स्पष्ट की हैं कि उस विषयमें और हैं, यह क्यों ? कुछ लिखना पिष्टपेषण करना होगा। पुरिसिच्छिसंढवेदोदयेण पुरिसिच्छिसंढो भावे । __पं० मक्खनलालजीने अपने “सिद्धान्तसूत्रसम- णामोदयेण दव्वे पायेण समा कहिं विसमा ॥ न्वय" ट्रैक्टमें "निर्णय देनेके आचार्य महाराज ही गोम्मटसार - जीवकाण्डकी इस गाथासे वेदअधिकारी हैं" इस शीर्षकका एक प्रकरण लिखकर वैषम्य स्पष्टतया सिद्ध होनेपर भी उसे न मानना यह सिद्ध करना चाहा है कि 'संजद' पदका विवाद अनुचित है। सिद्धान्तशास्त्र-सम्बन्धी है । अतः इसके निर्णयका गोम्मटसारग्रन्थ श्रीनेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती अधिकार प० पू० चारित्रचक्रवर्ती श्री १०८ शांति- जीकी अनुपम कृति है, जो षट्खण्डागमग्रन्थराजका सागरजी महाराजको ही है। कारण कि वे वर्तमानके पूर्णमन्थन करके ही उसके साररूपमें तय्यार की गई समस्त साधुगण एवं आचार्य-पदधारियोंमें सर्वोपरि है । नेमिचन्द्राचार्यने भी इस बातको गोम्मटसारशिरोमणि हैं । इत्यादि। कर्मकाण्ड गाथा ३९७में बड़े गौरवसे कहा हैलेकिन सुना जाता है कि प० पू० आचार्यश्रीने “जह चक्केण य चक्की छक्खंडं साहियं अविग्घेण । फर्माया है कि इसका निर्णय हम नहीं कर सकते। तह मइचक्केण मया छक्खंडं साहियं सम्मं ॥" यह काम पंडित लोगोंका है। संस्कृत और प्राकृत ____ "जिस प्रकार चक्रवर्ती अपने चक्रके द्वारा षट्भाषाके जानकार पंडित लोग ही होते हैं। अतः वे खण्ड पृथ्वीको सिद्ध कर लेता है । उसी प्रकार मतिही लोग इसका निर्णय करलें। रूपी चक्रके द्वारा मैंने छह खण्ड अर्थात् षट्खंडागम मातृप्रतिसे मिलान करनेके बाद 'संजद' पदको को सम्यकरूपसे साध लिया है।" ताम्रपत्रसे निकलवा देनेका पू० आचार्यजीसे अनुरोध श्रीनेमिचन्द्राचार्यको “सिद्धान्तचक्रवर्ती" यह करना व्यर्थ ही नहीं किन्तु अनर्थकारक होगा। मातृ- उपाधि भी इसी हेतुसे प्राप्त हुई, जो उनके सिद्धान्तप्रतिके विरोधी ताम्रपत्रको कोई भी पसन्द नहीं करेगा। विषयक पारगामित्वकी द्योतक है । अतएव उनके मैं तो पं० मक्खनलालजीसे सविनय अनुरोध करता गोम्मटसारादि ग्रन्थोंके प्रति अविश्वास प्रकट करना है कि अब आप एक पत्रक निकालकर यह प्रकट कर उचित नहीं है। दीजिये कि "सिद्धान्तसूत्रसमन्वयमें हमने जो विचार प० पू० आचार्य श्री शान्तिसागर महाराजजीके 'प्रकट किये हैं वे 'षट्खण्डागम रहस्योद्घाटन' को चरणोंमें भी सविनय विनती है कि मातृप्रतिमें विचारपूर्वक पढ़नेके बाद अब कायम नहीं रहे हैं। 'संजद' पदका होना सिद्ध हो चुका है और उक्त ९३वाँ सूत्र वस्तुतः भावस्त्रीसे सम्बन्ध रखता है, सूत्रमें उसका स्थिर रहना टीकादिपरसे सङ्गत और द्रव्यस्त्रीसे नहीं।" आवश्यक है। तथा विद्वत्परिषद्ने भी अपना यही प्रो० हीरालालजीसे भी सविनय विनती है कि निर्णय दिया है तो अब उस ताम्रपत्रको बदल देने भगवान् श्रीकुन्दकुन्दाचार्य, श्रीसमन्तभद्राचार्य, श्री या उसपर कुछ टिप्पणी देनेका आग्रह अथवा प्रयत्न पूज्यपाद, भट्टाकलङ्कदेव, वीरसेनाचार्य, नेमिचन्द्र अनुचित ही होगा। सिद्धान्तचक्रवर्ती आदिकोंको क्या आप आधुनिक पं० मक्खनलालजीने जो यह लिखा है कि ६३वें आचार्य अतएव अप्रमाण समझते हैं। षट्खण्डागम सूत्रमें 'संजद' पदको कायम रखनेसे द्रव्यस्त्रीको मुक्ति की प्रस्तावनामें तो इन आचार्यप्रवरोंकी स्तुति करके सिद्ध होगी सो बिलकुल गलत है । पं० सोनीजीने आपने उनके ग्रन्थों और वचनोंको प्रमाण माना है। इस आक्षेपका शास्त्राधार पूर्वक अच्छी तरहसे खंडन और अब भाववेद और द्रव्यवेदकी व्यवस्थाके विषयमें किया है। अतएव यह भ्रम दूर होजाना चाहिये। • उनके वचनोंको प्रमाण माननेको आप तय्यार नहीं पं० मक्खनलालजी विद्वान् हैं और इस लिये उन्हें For Personal & Private Use Only Jain Education Interational Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपहरणकी आगमें झुलसी नारियाँ रावण और कसकी कथाएँ जब हमने पढ़ीं. तो कर उसीके पास रहती हैं। पति-वियोग एक पलको हमारा मन सिहर उठा-ओह, ऐसे अत्याचारी थे ये वे पाप समझती हैं। जैसे सीता चुपचाप गर्दन दुष्ट ! पर आज हमारे चारों ओर जो कुछ होरहा है, लटकाये सुबकती हुई रावणके द्वारा हरण कर ली उसे देखकर रावण और कंस दोनों झेप गये हैं। मार- गई. उसी प्रकार आज भी हिन्दू नारियाँ आततायियोंकाट और फूंक- फाँक तो आम बातें हैं, पर सबसे मर्म- के साथ मिमयाती हुई चली जाती हैं और वे उनके बेधी है हमारी बहू-बेटियोंका बलपूर्वक अपहरण। अत्याचारोंको बिलखती हुई, कराहती हुई सहन करती आज जाने कितनी हजार नारियाँ इन रावणोंके पंजेमें हैं। हाँ, यदि सीताने अहिंसात्मक सत्याग्रह (?) का हैं। लज्जाकी बात है कि हम उन्हें बचा न सके और अवलम्बन न लेकर रावणद्वारा हरण किये जानेपर दुःख है कि जो बच रहीं. हम उन्हें सच्चा पथ भी छीना-झपटीमें देर लगाई होती, अंगुलियोंसे आँखें न बता सके। अङ्गारोंसे लिखा यह प्रश्न है कि जो कुचा दी होती, दाँतोंसे नाक कुतर ली होती या लङ्कास्त्रियाँ बलपूर्वक अपहृत होगई या होजायें, क्या वे में जाकर उसे धोखेमें फँसाकर सोते हुए बध कर दिया इसे 'कर्मोंका फल' मानकर चुपचाप उन्हीं राक्षसोंके होता, या महलोंमें आग लगा दी होती, तो बादमें पंजेमें फंसी रहें या उनके लिये भी कोई मार्ग है ? होने वाली ये नारियाँ भी इसी आदर्शका अनुकरण ___ हमारे नेता नारियोंको सीताका आदर्श उपस्थित करतीं। कितने खेदकी बात है कि जिन नारियोंका करनेको कहते हैं। हमारी मूढ बुद्धिमें नहीं आया कि बलात् हरण हो, उन्हीं नारियोंकी सन्तान विधर्मी वह कौनसा आदर्श था, जो सीताने उपस्थित किया होकर अपनी माताओंके अपमानका बदला न लेकर और जिसपर आजकी देवियाँ कार्य नहीं कर रही हैं। दुष्टों और आततायियोंको अपना पूर्वज समझकर हमारी तुच्छ सम्मतिमें तो हिन्दू स्त्रियाँ सदैवसे उल्टा हिन्दू जातिके रक्तकी प्यासी बनी रहती है। भगवती सीताके पथपर चल रहीं हैं। बनोंमें जब हिन्दुओंमें यह बड़ी आत्म-घातक प्रथा रही है पति ही नहीं जाते तब पत्नियाँ उनके साथ कैसे जायें? कि बलात हरण करने वाले आदरकी दृष्टिसे देखे हाँ जेलों. सभाओं, मेलों, सिनेमाओं, थियेटरों, नाच- गये हैं और स्त्रियोंने बिना हील-हुज्जत किये उन्हें पति घरों और क्लबोंमें वे पतिसे कन्धा भिड़ाये रहती ही स्वीकार कर लिया है। हम तो कहते हैं कि यह प्रथा हैं। पति कितनी ही दूर हो, बूढ़े सास-ससुरको छोड़ ही हिन्दू जातिके लिये घातक है। हिन्दू जातिका यदि यह सिद्धान्त हुआ होता कि हरण करनेवाला या एकबार जो मत दिया उसको बदलना नागवार और बलात्कार करनेवाला महानसे महान व्यक्ति क्यों न हो. अपमानास्पद मालूम होता होगा। पर अपने पहले मतमें अपहृता या दूषित की गई नारीद्वारा बध होना ही . प्रमादसे हुई कोई गलती या दोष पीछे मालूम होजाय चाहिये और यदि यह मार्ग सीता या अन्य पतिव्रता तो उसको मान्य करना सम्मान्योंका काम है-उसमें नारियोंने बना दिया होता तो आज किसी भी आतउनकी प्रतिष्ठा और गौरव है। और अपमान समझना तायीको यह साहस न होता कि वह एक भी नारीका दुराग्रह या दुरभिनिवेशका द्योतक है। अपहरण करे । अस्तु ! 'बीती ताहि बिसार दे, आगे- यह सिद्ध हो जानेके बाद कि संजद' पद मूलप्रति- की सुधि लेय', अब भी क्या बिगड़ा है ? हमारे नेता में विद्यमान है और ताम्रपत्रपर भी वह खोदा गया है। व्याख्यानदाता, कथावाचक आज भी घर-घरमें संदेश फिर भी ताम्रपत्रसे उसको निकाल देनेका अनुरोध पहुंचा सकते हैं-आततायी यदि तुम्हें बलात् भ्रष्ट और आग्रह प. पू. आचार्यजीसे हो रहा है, इसीलिये करते हैं या घर लेजाते हैं तो अवसर पाकर बदला यह लेख प्रसिद्ध करनेकी आवश्यकता प्रतीत हुई। लो । खाने में विष मिलाकर उनके परिवारको नष्ट For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ८] अपहरणकी आगमें मुलसी नारियाँ [३१७ कर दो. घरमें आग लगाकर उनका सर्वस्व भस्मीभूत बस गया ही गया । पर जीवन, शत्रुके हाथों में पड़नेकर डालो। भले ही इसके लिए महीना दो महीना पर भी उबर सकता है । यह भी निश्चित् है कि या वर्ष दो वर्ष भी प्रतीक्षा करनी पड़े, पर अपहरण जीवित स्त्रीको शत्रु या आततायी अपहरण कर ले के अपमानको न भूलो। अवसरकी हर घड़ी ताकमें जा सकता है और आजकी भाषामें उसका दुरुपयोग रहो और अवसर मिलते ही बदला लो। हिन्दू समाज भी हो सकता है. पर इस दुरुपयोगको, उस नारीकी के नेता नारियोंको बदलेका यह मन्त्र देकर ही चुप न भ्रष्टता या नैतिक पतन माननेको, हम कदापि तैयार हो जायें, अपनेको कर्तव्य-मुक्त न मान लें। वे यह नहीं हैं। आततायीका शरीरपर अधिकार कर लेना भी ध्यानमें रक्खें कि यदि कोई नारी ऐसा करके नैतिक पतन नहीं होता है। ऐसा होता, तो जेलमें लौटती है, तो उसे यही नहीं कि घरमें अपना स्थान बन्द स्वयं श्रद्धेय महात्माजी, पं. जवाहरलाल नेहरू मिले अपितु समाजमें सार्वजनिक रूपसे उस वीर- और मौलाना अबुलकलाम आजाद नैतिक दृष्टिसे नारीको अभिनन्दन भी मिले। हमारे समाजमें ऐसे पतित माने जाते । हमारी रायमें नैतिक पतन है २-४ भी अभिनन्दनोत्सव हो जायें तो वे अपहरणोंको आततायीके सामने झुक जाना, उसे अपनी आत्मा असम्भव बना दें । तब विरोधियोंके लिए हमारी सौंप देना, उसका हो जाना, उसे (विवशतामें ही सही) बहू-बेटियाँ गुड़की डली न रहेंगी. फास्फोरसकी अपना मान लेना और उस अपमानकोभूल जाना । टिकिया हो जायेंगी, जो हवा लगते ही जल उठती है आज हमें नारीको यह बताना है कि अपहरण और जला डालती है । गाँधीजोने लिखा था- मोर्चेका अन्तिम अध्याय नहीं है। अपह्रत होकर भा "अगर मरनेका सीधा रास्ता ज़हर ही हो तो मैं नारी अपनी लड़ाई जारी रख सकती है और उसे कहँगा कि बेइज्जती करानेके बनिस्बत ज़हर खाकर मर जारी रखनी चाहिये। आज हम नारीको जो सबसे जाना बेहतर है ।...."जिन्हें खञ्जर रखना है वे भले बड़ा वना है किही खञ्जर रखें लेकिन खञ्जरसे एक-दोका सामना अाक्रमणके समय उसे लड़ना है और अपहरणकिया जा सकता है सैकड़ोंका नहीं : खञ्जर तो से बचना हैं । पर यदि अपहरण हो ही जाये, तो उसे कमज़ोरीका निशान है। आखिरकार जानपर खेल अपना युद्ध जारी रखना है, हार नहीं माननी है, जानेकी तैयारी ही हर हालतमें औरतोंकी इजत बचा थकना नहीं है, समयकी प्रतीक्षा करनी है और सकती है और कुछ न कर सकें तो वे अपनी जेबमें निश्चितरूपसे उसे एक दिन अपने घर लौटना है। ज़हर ही रक्खं, जहर खाकर मरना नैतिक-पतनसे . औरना भी को लटका दण्ड देकर और कहीं अच्छा है।" पीढ़ियों तक स्मरण रखने योग्य एक चुभता-सा महात्माजीका यह उपाय निःसन्देह अमोघ है। पाठ पढ़ा कर। और यह उत्सर्गकी उस भावनाका प्रतीक है जो अभी यह धोखा नहीं है, विश्वासघात नहीं है, नैतिक पिछले महायुद्धमें रूसके देशभक्त निवासियोंने बरती। पतन नहीं है, यह शास्त्रोंमें वर्णित और प्रमाणित वे जर्मनोंसे लड़े, जब उनके लिए जमे रहना असम्भव आपद्धर्म है, युद्धकी एक नीति है, रणका एक दाव है हो गया तो वे पीछे हटे, पर उस स्थानका कण-कण और निश्चय ही यह नारीका पवित्र गुरीला युद्ध है। फूंककर पीछे हटे। इस प्रकार जर्मनोंको केवल जले जहाँ खुला युद्ध सम्भव नहीं होता, वहाँ यह गुरीला हुए खण्डहर ही मिले। युद्ध लड़ा जाता है और भारतकी नारीको आज इसी ___ हम इस भावनाका अभिनन्दन करते हैं, पर जड़ गुरीला युद्धकी शिक्षा लेनी है। सम्पत्ति और जीवित सम्पत्तिमें कुछ भेद दिखाई इस युद्ध में उसे टैक, मैशीनगन. राइफिल, बन्दूक देता है । जड़ पदार्थ जब शत्रुके हाथमें गया, तो फिर और तलवार नहीं मिले, तो कोई चिन्ता नहीं। शाक For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ ] बनारनेका दराँत, सब्जी काटनेका चाकू, आग ठीक करनेका चिमटा, पतीली उतारनेकी सिण्डासी, तेज़ किनारेकी थाली या कटोरी, तेलसे भरी लालटैन और छतपरसे धक्का देनेको सधी हथेलियाँ उससे कौन छीन सकेगा ? यदि उसमें भावना हो तो उसके ये अस्त्र अग्निवाण सिद्ध होंगे और देशके इतिहासलेखक आनेवाले दिनोंमें इन अस्त्रोंके प्रयोगकी कलाका ऐसा गुणगान करेंगे कि सेनापति- रोमेल और मैकार्थरकी आत्माएँ ईर्ष्यासे उसे सुनेंगी। गाँधीजीने लिखा था अनेकान्त "भगाई गई लड़कियाँ बेगुनाह हैं। किसीको उनसे नफ़रत न करनी चाहिये । हर सही विचारनेवाले आदमीको उनपर तरस आना चाहिये और उनकी पूरी मदद करनी चाहिये । ऐसी लड़कियोंको अपने घरोंमें खुशी-खुशी और प्यारसे लौटा लेना चाहिये और उनके लायक लड़कोंसे उनकी शादी होनेमें कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिये ।” दिक्कत तो नहीं होनी चाहिये थी, किन्तु ऐसा कठिनाइयाँ हिन्दू नारियोंके उद्धार में बाधक अवश्य रही हैं । हम सनातन पन्थियोंको एक सनातन भूल खाये जा रही है । रावणका वध होजानेपर सीता रामके शिविर में आईं । सीता सोचती थीं - राम मुझे देखकर विह्वल हो उठेंगे, वे मुझे हृदयसे लगानेको दौड़ेंगे और मैं चटसे उनके चरणोंमें गिर जाऊँगी, उठायेंगे तो भी न उहूँगी और रोकर भीख मागूँगी कि नाथ, अब यह चरण सेवा पलभरको भी न छूटने पावे । किन्तु सीताकी यह आशा हवामें तैर गई। रामने सीताकी ओर देखा भी नहीं । गुप्तरूपसे हनुमानसे सीताके पवित्र बने रहनेकी बात पाकर भी उनका हृदय अविश्वासी हो उठा । कहा जाता है कि वे सीता के सतीत्वकी ओर से निश्चित थे, किन्तु लोक-लाजके लिए अग्नि परीक्षा आवश्यक थी । हम कहते हैं यही सबसे बड़ी भूल : रामने की थी । रावणके यहाँसे असती लौटनेपर भी सीताका कोई अपराध नहीं बनता । बलवान आततायियों के आगे शारीरिक सतीत्व रह ही नहीं सकता [ वर्ष फिर सतीत्व तो आत्माकी वस्तु है, उसका कोई भी कुछ नहीं बिगाड़ सकता । अपवित्र पुगलको कोई दुष्ट बलात् अपवित्र करता है, तो इससे सतीका क्या बिगड़ता है ? सीताका सहर्ष स्वागत करके यदि राम यह परिपाटी डाल जाते कि हरण की हुई स्त्रियाँ हर दशामें पवित्र हैं और उन्होंने यदि सीताकी आलोचना करने वाले नीच धोबीकी यह कहकर जिह्वा काट ली होती कि जो निरपराध नारीको दोष लगाता है, उसको यही दण्ड मिलता है, तो आज स्त्रियोंकी जो यह दुरवस्था है, न हुई होती । आज तो स्थिति यह है कि हमारी जो बहन-बेटी गईं, सो गई; क्योंकि यदि उसे लौटने का अवसर मिलता भी है और वह आना भी चाहती है, तो वह सोचतो है कि जहाँ मैं जारही हूँ वहाँ मेरे लिये स्थान कहाँ है ? जूतेमें परसी रोटियाँ मिलेंगी और चारों ओर घृणा भरी आँखोंकी छाया । ऐसे अवसरोंपर पुरुष हैं ही, पर स्त्रियाँ भी अपनी उस बहनको सम्मान या प्यार नहीं दे पातीं । उनके व्यङ्गवाण तो उस समय इतने पैने होजाते हैं कि वे कलेजेको बींधनेमें चूकते ही नहीं । अपहृत होजानेपर भी आज नारीको जहाँ यह सीखना है कि वह हताश न हो और अपना गुरीला युद्ध जारी रक्खे, वहाँ हमें भी तो अपनी मनोवृत्ति में परिवर्तन करना है । यह परिवर्तन ही तो उस योद्धा नारीका असली बल है। प्यार और मानकी दुनिया उजाड़कर ठोकरोंके संसारमें कौन श्राना चाहेगा ? जो काम रामने नहीं किया, वह आजके समाजको करना है, उसे जीना है तो यह करना ही होगा । अपहरणसे लौटी हुई स्त्रियोंको भरपूर सम्मान मिलना चाहिये । उन्हें उनका स्थान मिलना चाहिये । उनके लिये सम्मान और स्थानकी गारण्टी करके ही हम इस युद्ध में विजय पा सकते हैं' । - गोयलीय १ यह लेख मेरी एक लेखमालाका श्रंश है जो सन् ४७के 'नया जीवन में प्रकाशित हुआ था तथा 'महारथी' 'सरिता' आदि कई पत्रोंने जिसे उद्धृत किया था । For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दृष्टिका आत्म-सम्बोधन ( लेखक - श्रीजिनेश्वरप्रसाद जैन ) हे वीर आत्मन् ! तू कितना धीर कितना शक्तिशाली और अखंड ज्ञानचित्र चिन्मूर्तिस्वरूप अनन्त - लक्ष्मीका धनी है और कहां तेरी इस हाड-मांस के अस्थिर गलनरूप शरीरमें मोह-ममकार-बुद्धि ! तेरी इस दशापर खेद होता है कि तू मोहमें कितना अन्ध हो रहा है । सब कुछ जानते हुए भी कुछ नहीं जानता, सब कुछ देखते हुए भी कुछ नहीं देखता । अरे ! अब तो चेत और इस मोहकी श्रृंखलाको तोड़। इस मोहके फन्देमें पड़े-पड़े ही तूने कितना कल्पकाल बिता दिया । कितनी शताब्दियाँ तूने संसारमें जन्मते और मरते बिता दीं। कितनी माताओंका दुग्धपान आज तक तूने किया और कितनी माताको तूने आज तक अपने वियोगमें रुलाया और कितनी पर्यायोंमें तूने जीवन बिताया तथा आज तक कितने संकल्पों और विकल्पों में फंसकर स्वको भूलकर – निजकी सुध-बुधको खोकर गडरियेकी भेड़ोंकी तरह हँकता रहा ! अरे महान् पुरुषार्थी ! । अब पुरुषार्थं कर । पुरुष बनः। जागरूप होकर जाग चेतनस्वरूप होकर चेत और समपूर्वक समझ । अपने निजकुटुम्बमें मिलनेका प्रयास कर । तुझे अवश्य सफलता प्राप्त होगी । वह सफलता बाहर नहीं तेरेमें ही है । मृगकस्तूरी की तरह बाहर मत खोज । अन्दर निरख । शान्त हो । भववासना और पापवासनाओंका अन्त कर । शान्तचित्त और निराकुल दशा तेरा स्वरूप है उसे पहचान । अपनी मस्ती में मस्त हो जा। खुद में समा जा । 'दासोऽहं' का विकल्प काटकर भी आगे बढ़ कर अहं' में गोता लगा । तब ही तू निजमें निजरूप होकर ठहरेगा । संसारमें भटकते हुए किसी जीवको जब कभी कदाचित् - किसी सत् समागम या गुरुकी मुखारविन्द - वाणीसे आत्म-ज्योतिकी झलक आजाती है तब वह जीव आध्यात्मिक कहे, विवेकबुद्धिवाला कहो अथवा स्वरूपमें तल्लीन कहो या सम्यग्दृष्टि कहो आदि अनेक नामोंसे पुकारा जाता है । जब यह जीव सम्यक दर्शन से विभूषित होता है। तब इसकी दशा कुछ पूर्व होजाती है । इसकी समस्त क्रियायें, इसकी समस्त भावनायें ही कुछ अजीब (अद्भुत) होजाती हैं। यह बहिरंग में सब कुछ करते हुए भी अन्तरगमें किसीका स्वामित्व नहीं रखता । वह भोजन करता है परन्तु किसीको भी कष्ट न देकर। वह स्त्री- पुत्रादिके मध्यमें रहता है, उनसे स्नेह करता है, उनका सर्व प्रबन्ध एवं सर्व कार्य करता है फिर भी उसकी मोहबुद्धि नहीं होती, वह अन्तरङ्गमें ज्ञाता-दृष्टा रहता है। शरीरको शरीर पर पदार्थोंको पर और अपनेचिन्मात्र चेतनको उससे भिन्न तथा निज अनुभव करता है । वह संसार के समस्त कार्योंको करता है परन्तु निजउपयोगका ध्यान नहीं छोड़ता । उसका जीवन, उसका व्यवहार, उसकी कार्यकुशलता, उसका सांसारिक प्रेमकुछ विलक्षण ही है । वह खाते हुए भी नहीं खाता, शयन करते हुए भी शयन नहीं करता और विषय भोगते हुए भी विषय नहीं भोगता । वह तो प्रतिसमय आत्मतत्परसावधान रहता है। ऐसे ही जीवका आत्मीय कल्याण होता है, क्योंकि जो भी कार्य वह करता है उसका वह स्वामी नहीं बनता; क्योंकि जब भेद-विज्ञानका रसिक होगया, परसे निजको भिन्न जान लिया, फिर वह अन्य पदार्थोंका कर्ता या स्वामी कैसे होसकता है ? जैसे पत्ता जब तक हरा रहता तभी तक वह रस खींचता है - सूख जानेपर रस नहीं खींचता । इसी तरह वह जब तक अन्य कार्योंमें रचता है तभी तक बँधता है । स्वमें रचनेपर नहीं बँधता है । उसका उपयोग अत्यन्त निर्मल है। हर समय जेलके बन्दीकी तरह विचारता रहता है कि कब मेरा यहाँ For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२०] अनेकान्त [ वर्ष ६ ६० का शेषांश) से छुटकारा होगा। जैसे जेलका बन्दी जेलमें समस्त की कुछ न्यूनता होनेपर दृष्टि नोनपर ही जाती है उसी कार्य करता है, अपनी कोठरीको साफ भी करता है तरहसे सब कुछ करते हुए भी अपने निज आत्मतेज और भी अन्य कार्य करता है परन्तु उनमें रचता पुञ्जपर ही उपयुक्त रहता है। जैसे कि मिह होती नहीं । हर समय छूटना ही चाहता है। उसी तरह है उसे कूटने-छेतनेपर भी वह अपनी हरियाईको नहीं वह सम्यग्दृष्टि जीव भी संसारमें रहते हुये भी समस्त तजती, परन्तु रचनेपर हरियाईको तजकर लाल हो कार्योंके करते हुए भी अपनी दृष्टि अपनी निज . जाती है उसी तरहसे यह आत्मविभोर प्राणी अपनी सम्पत्तिकी ओर लगाये हुए रहता है। वह प्रतिसमय निजघटरूपी लालीमें ही तल्लीन रहता है। यद्यपि जैसे समस्त मसालों सहित भोजन करते हुए भी नोन- बाहरकी हरियाईमें भी वह रहता है परन्तु निजकी (पृष्ठ २६० का शेषांश) लाली इसके घटमें प्रकट होचुकी है इसलिये इसका होना उसी प्रकार विरुद्ध पड़ता है जिस प्रकार कि उपयोग किसी समय भी स्वरूपसे भिन्न नहीं होता। एक परमाणुका युगपत् सर्वगत होना विरुद्ध है, और प्रातःस्मरणीय परमपूज्य आचार्य श्रीकुन्दकुन्द इससे उक्त हेतु (साधन) असिद्ध है तथा असिद्ध भगवानने श्रीसमयसारमें कहा है कि सम्यग्दृष्टि हेतके कारण कत्लविकल्परूप (निरंश) सामान्यका निरबन्ध होता है सोई ठीक है। सर्वगत होना प्रमाणसिद्ध नहीं ठहरता। अरे भैय्या! जिसका अनन्त संसारका बन्ध कट यह कहा जाय कि सत्तारूप महासामान्य गया क्या वह बन्धवाला कहलायेगा ? जिसके सिर तो पूरा सर्वगत सिद्ध ही है, क्योंकि वह सर्वत्र परसे अनन्त भार उतर गया-सिर्फ तिल बराबर भार सत्प्रत्ययका हेतु है. तो यह ठीक नहीं है; कारण ?) रह गया वह क्या भारवाला कहलायेगा ? अरे ! जो अनन्त व्यक्तियोंके समाश्रयरूप है उस एक (सत्ता- जिसके मोहके जहरकी लहर उतर गई वह कहाँका महासामान्य)के ग्राहक प्रमाणका अभाव है क्योंकि मोही? जिसने भव-वासना और पाप-वासनाओंका अनन्त सद्व्यक्तियोंके ग्रहण विना उसके विषयमें अन्त कर दिया उससे ज्यादा सुखिया कौन ? इससे युगपत् सत् इस ज्ञानकी उत्पत्ति असर्वज्ञों(छद्मस्थों)- जाना जाता है कि वही सम्यग्दृष्टि है, वही समस्त के नहीं बन सकती, जिससे सर्वत्र सत्प्रत्ययहेतुत्वकी जीवोंको समान देखनेवाला है, वही परमक्षमावान् सिद्धि हो सके। सर्वत्र सत्प्रत्ययहेतुत्वकी सिद्धि नहोनेपर है, अत्यन्त दयालु है, कृपावान् है, ज्ञानी है, खुद अनन्त समाश्रयी सामान्यका उक्त अनुमान प्रमाण नहीं जीता है और दूसरोंको जीने देता है, जिसने मोह-मदहो सकता। और इसलिये यह सिद्ध हुआ कि कृत्स्न- मानादिको चकना-चूर कर दिया है। जो सदैव अलिप्ती विकल्पी सामान्यकी द्रव्यादिकोंमें वृत्ति सामान्यबहुत्व- रहता है वही जीव धर्मी है, सदा संतोषी है, जीतलोभ। का प्रसङ्ग उपस्थित होनेके कारण नहीं बन सकती। है। जो समस्त बन्धुओंको बन्धनरहित देखना चाहता है यदि सामान्यकी अनन्त स्वाश्रयों में देशतः युगपत् वृत्ति और सदा जागरूप है। निज आत्माका ह मानी जाय तो वह भी इसीसे दूषित होजाता है; क्यों- है, शान्तचित्त है, मौनी है । जो वृथाकी कलहमें नहीं कि उसका ग्राहक भी कोई प्रमाण नहीं है । साथ ही पड़ता वही सच्चा सुखिया आत्मार्थी श्रात्म-हितैषी, सामान्यके सप्रदेशत्वका प्रसङ्ग आता है, जिसे अपने प्रात्मयोगी, परमसंयमी, जितेन्द्री और जिनेश्वरका उस सिद्धान्तका विरोध होनेसे जिसमें सामान्यको लघु नन्दन है; क्योंकि उसके ज्ञान-ज्योतिका उदय निरंश माना गया है, स्वीकार नहीं किया जासकता। होगया है । वह दुतियाका चन्द्रमा है। और इसलिये अमेयरूप एक सामान्य किसी भी हे आत्मन् अगर तुम संसारके आवागमनसे छूटना प्रमाणसे सिद्ध न होनेके कारण अप्रमेय ही है- चाहते हो तो सच्चे सम्यग्दृष्टि बननेकी कोशिश करो अप्रामाणिक है।' For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिशय क्षेत्र श्रीकुण्डलपुरजी ( लेखक - श्रीरूपचन्द बजाज ) जी० आई० पी० रेलवेके बीना और कटनी जंकशनके मध्य, दमोह स्टेशनसे २४ मील दूर, पटेरा रोडपर कुण्डलाकार उच्च पर्वतमालाओंमें मध्यके शिखरपर, पृथ्वीके गर्भ में, १४०० वर्षकी सभ्यता, संस्कृति और इतिहास छुपाए समुद्र सतह से करीब ३००० फुट ऊँचाईपर, कुण्डलपुर नामक स्थानमें, ३ फुट ऊँचे सिंहासनपर, १२ फुट ऊँचाईके पद्मासन आकार में ध्यान-मुद्रा लगाए, भगवान महावीर विराजमान हैं और सारे जगतको उपदेश दे रहे हैं कि “हे मनुष्य पृथ्वीके क्षणभङ्गुर सुखोंको छोड़ | सुख आत्माकी वस्तु है जिसे श्रात्मध्यानद्वारा ही पाया जा सकता है । यदि सच्चा सुख चाहता है तो आजा मेरे पास और होजा मेरे समान ।” कुण्डलाकार पर्वतमालाओं के मध्य वर्द्धमानसागर नामक सुन्दर सरोवर है, जिसमें किनारे तथा पर्वतोंपर विद्यमान ५८ जिन - मन्दिर प्रतिविम्बित होते हैं । सौन्दर्यकी श्री द्वितीय तथा विशालकाय पद्मासनप्रतिमाके रूपमें यह स्थान भारतवर्ष में प्रायः प्रथम श्रेणीका है। दमोह श्रीकुण्डलपुरी तक रास्ता कच्चा होनेके कारण फिलहाल यात्रा बैलगाड़ी, ताँगा और निजी मोटरद्वारा की जाती है, परन्तु शीघ्र ही जनपदसभा तथा राष्ट्रीय सरकारद्वारा पक्का रास्ता बनानेकी योजना कार्यरूपमें परिणत होनेवाली है। तब तो यह अछूता स्थान प्रकाशमें आकर इतिहासकारों तथा प्राकृतिक सौन्दर्य प्रेमियोंके लिये एक आश्चर्यजनक पहेली बन जावेगा । यहाँपर कई ऐसे स्थान अभी भी विद्यमान हैं जहाँपर खुदाई तथा प्राचीनताकी खोज करनेकी अत्यन्त आवश्यकता है । छठवीं शताब्दीके एकदो मठ या मन्दिर जीर्णोद्धारके अभावमें मिट्टीके ढेर बन गये हैं तथा उनके निर्माणकाल आदिका पता लगाना बिलकुल ही असम्भव सा होगया है । यहाँका छठवीं शताब्दीसे ग्यारहवीं शताब्दी तक - का इतिहास अन्धकारमें है । संवत् १९८३ की प्रतिष्ठ सिंघई मनसुभाई रैपुरा निवासी द्वारा स्थापित प्रतिमासे फिर हमें कुछ प्रकाश मिलता है जिससे मालूम होता है कि उस समय तक यह स्थान जनसाधारणकी जानकारीमें पूर्णरूपेण था । इसके पश्चात् ४५० वर्षके इतिहासका कुछ पता नहीं चल रहा है। एक शिलालेख संवत् १५०१का एक 'मठमें मिलता है तथा उसके बाद सं० १५३२का प्रतिमालेख | इसी सदीकी अनेक प्रतिमा अभी तक स्थित हैं । बड़े बाबाकी पोछेकी दहलान बन्द है, जिसमें शायद कुछ इतिहास मिलता। बड़े बाबाके नीचे तहखाना भी बन्द है । बड़े बाबाकी बायीं जाँघके ऊपर एक छेद भी था जिसमें रुपया-पैसा डालनेपर वह आवाज करता हुआ अन्दर चला जाता था । इसे अपव्यय समझकर प्रबन्धकोंने बन्द तो कर दिया, परन्तु यह पता लगाने की आजतक कोशिश नहीं की कि आखिर वह सिक्का जाता कहाँ था ? मेरा अनुमान है कि बस छेका सम्बन्ध तहखानेसे है, तथा १ अच्छा होता यदि छठवीं शताब्दीका साधक कोई श्राधार यहाँ प्रदर्शित किया जाता; क्योंकि जब 'मठ और मन्दिर मिट्टी के ढेर होगये और उनके निर्माणकाल आदिका पता लगाना बिल्कुल ही असम्भव सा होगया है ' तो यह निर्द्धारित कैसे किया गया कि वे छठवीं शताब्दीके हैं ? यदि ऐसा कोई शिलालेखादि प्रमाण उपलब्ध है तो लेखक महाशयको उसे प्रकाशमें लाना चाहिये । - कोठिया For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ ] अनेकान्त कुण्डलपुर के बड़े बाबा श्रीमहावीरजी तहखाना खुलवाने पर छठवीं शताब्दीसे आजतकके वे सब सिक्के प्राप्त हो सकते हैं जिनसे यह पता लगाना बिलकुल सरल हो जावेगा कि भारतवर्ष में कौन-कौन शासक यहाँ दर्शनार्थ आचुके हैं और उस समय इस स्थानकी प्रसिद्धि कहाँ-कहाँ तक फैली हुई थी । श्रीकुण्डलपुरजीसे करीब आधा भोल दूर फतेपुर नामक ग्राम है जहाँ रुक्मणीमठ नामक जैनमन्दिरके [ वर्ष ६ भग्नावशेष हैं। श्रीकुर डलपुरजी के जिन-जिन मन्दिरों में छठवीं सदीकी जितनी प्रतिमाएँ पाई जाती हैं वे सब हो रुक्मणीमठसे ही लाकर प्रतिष्ठित की गई हैं। चिह्नस्वरूप रुक्मणीमठमें एक पाषाणपर यक्ष-यक्षिणी खजूर के वृक्ष के नीचे खड़े हैं और उनके सिरपर पार्श्वनाथ भगवानकी प्रतिमा है। रुक्मणीमठके कुछ अवशेष सड़क के किनारे एक चबूतरेपर पीपल के वृक्षके For Peronal & Prints wwwrebralyogy Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . किरण८] अतिशय क्षेत्र श्रीकुण्डलपुरजी भरखे हैं। इतिहासकारों के सम्मुख एक बड़ी पहेली यह है कि आखिर ऐसी कौनसी बात छठवीं शताब्दीमें या इसके पूर्व यहाँपर घटित हुई जिसके कारण यहाँ बड़े बाबाकी ऐसी विशाल प्रतिमाका निर्माण हुआ । ध्यान रहे कि इस कालमें इस स्थानपर गुप्त शासकोंका शासन था जो जैनधर्मानुयायी भी थे । कुछ इतिहास - कार' मानते हैं कि यह वही कुण्डलपुर नामक स्थान है जहाँसे अन्तिम श्रुतकेवली श्रीधर स्वामी मोक्ष गये थे और इसलिये यह निर्वाणभूमि होनेके कारण प्राचीन काल से ही इस तरह पूज्यनीय बना चला आरहा। खैर ! बात जो भी हो, परन्तु निर्णय या अधिकारपूर्वक तभी कुछ कहा जा सकता है जबकि जैन विद्वान् भी इस विषयपर एकमत हों । इस क्षेत्रकी बुन्देल - शासकोंके कालमें अधिक उन्नति हुई, यह निर्विवाद सिद्ध है और इसके प्रमाणस्वरूप बड़े बाबा के प्रवेश द्वार पर लगा शिलालेख अब भी विद्यमान है । सैकड़ों वर्षकी धूप और वर्षाने बड़े बाबा मन्दिर को न मालूम कब जीर्ण-शीर्ण बना दिया और वह ढकर एक टीलेका रूप धारण कर चुका जिससे लोग उसे मन्दिर-टीला नामसे सम्बोधित करने लगे । परन्तु उस टीमें बड़े बाबा पूर्ण सुरक्षित और अखण्ड बने रहे । मन्दिर-टीला नाम शिलालेखमें मिलता है ।" । इस प्रकार बड़े बाबाकी वह कीर्ति और यश कुछ समयके लिये लोप- सा हो गया। उस स्थानपर भीहड़ झाड़ियों वृक्षों और जङ्गली पशुओंका निवास होजानेसे मनुष्यका गमन ही बन्द-सा हो गया । हाँ, कुछ लोग यह जानते रहे कि अमुक ग्राममें मन्दिर - टीले नामक स्थानपर एक विशाल जैन प्रतिमा मौजूद है । इस प्रकार यह प्राचीन मन्दिर करीब २०० वर्ष तक समाधिस्थ बना रहा। संवत् १७७० या इसके करीब श्रीमूलसंघ बलात्कार १ जिनकी यह मान्यता है उनमेंसे एक दोके नाम यहाँ प्रकट कर दिये जाते तो अच्छा होता । - कोठिया [ ३२३ गण सरस्वती भक्तविद्याधीश आचार्य श्रीसुरेन्द्रकीर्तिजी कुन्दस्वामी कुन्दकुन्दाचार्यके वंशज अपने शिष्यों सहित इस स्थानपर दर्शन हेतु पधारे। बड़े बाबाके दर्शनसे वे बड़े प्रभावित हुए और उनके शिष्य श्री सुचन्दगणिजीने मन्दिरके जीर्णोद्धारके हेतु भिक्षा माँगनेकी आज्ञा गुरुसे ली । आप मन्दिरजीका कुछ हिस्सा ही बनवा पाये थे कि दैवदुर्विपाकसे आपकी आयु पूर्ण होगई तब उनके सच्चे मित्र नमिसागरजी ब्रह्मचारीने इस अधूरे कार्यको पूर्ण करनेका बीड़ा उठाया । इसी समय बुन्देलखण्डगौरव शूर-वीर-सम्राट् क्षत्रसाल मुगल- आततायियों द्वारा सताए हुये अपनी राजधानी पन्ना छोड़कर मारे-मारे इधर-उधर सहायता और अपना राज्य वापिस लेनेके प्रयत्नमें फिर रहे थे । मनुष्यका जहाँ वश नहीं चलता वहाँ वह अपने- को भगवानके बलपर छोड़ देता है । यही हाल महाराजाधिराज क्षेत्रसालका हुआ । वे बड़े बाबा के दरबार में आए। नमिसागरजी ब्रह्मचारीसे उनकी भेंट हुई । ब्रह्मचारीजीने उनके सामने भी मन्दिरजी की मरम्मत के लिये हाथ फैला दिये । परन्तु सम्राट् लाचार थे । वे खुद ही विपत्तिके मारे फिर रहे थे। तो भी सम्राट्ने साहस बटोर कर प्रतिज्ञा की कि यदि 'पुनः अपना राज्य वापिस पाऊँ तो इस मन्दिरजीका जीर्णोद्धार कोषकी तरफसे करा दूँगा । मैं आप इसे अतिशय कहिये या सम्राटका पुण्योदय कि उन्हें फिर से अपना राज्य वापिस मिल गया । जीका जीर्णोद्धार कार्य शुरू होगया । साथ ही मध्यवे अपनी प्रतिज्ञा नहीं भूले और शाही - कोष से मन्दिर - स्थित तालाबके चारों ओर घाट बनवाए जाने लगे। संवत् १७५७ मघा नक्षत्र माघ सुदी १५ सोमवार को जीर्णोद्धार कार्य पूर्ण हुआ । इस अवसर पर महाराजाधिराज क्षत्रंसाल मन्दिर - जीकी प्रतिष्ठा हेतु स्वयं श्रीकुण्डलपुरजी पधारे । उन्होंने बड़े बाबाकी पूजन की और द्रव्य, वर्तन तथा सोने-चाँदीके चमर-छत्र भी भेंट किये। उनका दिया पीतलका एक थाल (कोपर) अब भी श्रीकुण्डलपुरजी + For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४] अनेकान्त [ वर्ष ६ के भण्डारमें मौजूद है। उन्होंने उस स्थानका नाम भक्ति प्रकट करते और पुण्य लाभ उठाते हैं। परिवर्तनकर वहाँकी कुण्डलाकार पर्वत-श्रेणियोंके बुन्देलखण्डको इस प्राकृतिक सौन्दर्यपूर्ण महान् आधारपर श्रीकुण्डलपुरजी रखा और तालाबका क्षेत्रके अपनी गोदमें होनेका अभिमान है। मन्दिरजीके नाम वर्द्धमानसागर । तबसे पुनः बाबाकी ख्याति प्रवेशद्वारपर जिनशासनरक्षकदेवता क्षेत्रपाल भी वृहबढ़ने लगी और धीरे-धीरे यह स्थान जनसाधारणकी ताकारमें उसीसमयसे स्थित हैं जबसे कि बड़े बाबा। जानकारीमें फिरसे आगया। श्रीकुण्डलपुरजीके आस- संवत् २०००से श्रीकुण्डलपुरजी क्षेत्रपर बड़े बाबा पासके ग्रामीणोंने भगवान महावीरकी इस विशाल- का एकाधिपत्य होगया है । इस क्षेत्रका प्रबन्ध जनकाय जैनप्रतिमाको बड़े बाबाके सुन्दर नामसे सम्बोधन तन्त्रीय कमेटीद्वारा होता है । क्षेत्रमें यात्रियोंकी करना शुरू कर दिया । इस जीर्णोद्धारकी तिथिकी सुविधा हेतु विशाल धर्मशालाएँ बन गई हैं। क्षेत्रका स्मृतिस्वरूप सम्राटकी आज्ञासे माह सुदी ११से १५ प्रबन्ध सुव्यवस्थित होनेपर भी अर्थाभावके कारण यहाँ तक प्रतिवर्ष यहाँ विशाल मेला भरने लगा जिसका जीर्णोद्धार कार्य इतना पड़ा हुआ है कि यदि लाखों प्रबन्ध राज्यकी तरफसे रहता था। आज भी मेलेमें रुपया भी खर्च किया जावे तो थोडा होगा फिर भी जैन और अजैन श्राकर बड़े बाबाके दर्शनकर अपनी जीर्णोद्धार बारहमासी चालू ही बना रहता है। शिमलाका पर्यषणपर्व इस वर्ष शिमला · जैनसभाके मन्त्री लाला पyषणपर्वके प्रसङ्गसे शिमलाके कई अपरिचित जिनेश्वरप्रसादजी जैनके निमंत्रण और प्रेमपूर्ण आग्रह उत्साही और लंगनशील युवकबन्धुओंसे परिचय हुआ। पर मैं पर्युषणपर्वमें शिमला गया था। ६ सितम्बरको इनमें बा० अयोध्याप्रसादजी, ला० जिनेश्वरप्रसादजी. चलकर ७ सितम्बरको सुबह ८-२० पर शिमला पहुंचा निरञ्जनलालजी, पं० बालचन्दजी, डॉ. एस. सी० स्टेशनपर उतर कर रिम-झिम वर्षा, कुहर और महोच्च जैन आदिके नाम उल्लेखनीय हैं। इनकी शक्ति और पर्वतीय दृश्योंका अवलोकन करता हुआ जैनधर्मशाला उत्साहसे सभाको पूरा लाभ उठाना चाहिये। पहुंचा, जहाँ जैन-अजैन सभी यात्रियोंके ठहरनेकी बड़ी शिमला अखिल भारतवर्षीय और पञ्जाब गवर्नही अच्छी सुख-सुविधा तथा व्यवस्था है। मेण्टकी प्रवृत्तियोंका महत्वपूर्ण स्थान है। दर-दरसे शिमलामें रात्रिको ७३ बजेसे १० बजे तक शास्त्र- सहस्रों व्यक्ति उसे देखने के लिये जाते हैं जो प्रायः प्रवचन होता है। दिनमें प्रायः सभी धर्मबन्धुओंके शिक्षित ही होते हैं, उनमें जैनधमके ज्ञानको अभिरुचि ऑफिसोंमें कामपर जानेके कारण उक्त समय ही धम- पैदा कर जैन-साहित्य और जैन-धर्मका अच्छा प्रचार चर्चा के लिये वहाँ उपयोगी होता है। पञ्चमीसे द्वादशी किया जा सकता है। अतः सभाका ध्यान निम्न तीन तक मेरेद्वारा शास्त्र-प्रवचनादि होता रहा । त्रयोदशीको कार्योंकी ओर आकर्षित कर रहा हूँअस्वस्थ हो जानेपर अन्तिम दोनों दिन शास्त्रप्रवचन- १. जैन-लायब्रेरीकी स्थापना, जिसमें प्रचारयोग्य ला० मिहरचन्दजी खजाञ्ची इम्पीरियलबैंकने किया। जैन-साहित्यके अलावा जैन-ग्रन्थोंका वृहत् संग्रह हो। चतुर्दशीको दिनमें ३ बजे एक आम सभा की गई २. जैनकॉलोनी. जहाँ बाहरसे कामके लिये जिसके अध्यक्ष बा. सन्तलालजी देहली थे। जैनधर्म आये हुए जैन बन्धुओंको किरायेपर स्थान मिल सके। की विशेषताओंपर मेरा करीब एक घण्टा भाषण ३. जैन-पाठशालाकी स्थापना, इसके द्वारा हुआ। मेरे बाद सोनपतके एक धर्मबन्धु और उनकी स्थानीय बालक-बालिकाओंको जैनधर्म तथा अन्य धमपत्नीके भी भाषण हुए। अन्तमें ला० जिनेश्वर- विषयोंकी स्वच्छ वातावरणमें शिक्षा दी जा सकेगी। प्रसादजोने सभाकी वार्षिक रिपाट सुनाई। . . ४-१०-१६४८, -कोठिया। For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खम्पादकीय दि विहार रिलिजियस ट्रस्ट बिल और जैन- देखकर कँपन हो आता है । अचिंतित अनिष्ट तक हुआ _ स्वाधीन भारतकी प्रान्तीय सरकारोंका ध्यान अब - करते हैं, यदि इस सम्पत्तिकी समुचित व्यवस्था हो धार्मिक सम्पत्तिकी ओर आकृष्ट हुआ है। बम्बई तो जानतिक सम्पत्तिका सदुपयोग हो और स्वतन्त्र सरकारने टेंदुलकर कमैटी बैठाई है जो आज जनता भारत जो अपना सांस्कृतिक उत्थान अतिशीघ्र करने का मत प्राप्तकर, उनकी सुविधाओंको ध्यानमें रखकर ज़ारहा है उसमें भी कुछ मदद मिले, ऐसे ही कारणों - के वशीभूत होकर शायद सरकारने कथित सम्पत्तिकी कानून बनाया जाय, परन्तु बिहार सरकारने तो जन सव्यवस्थाके लिये ही कानून बनाया हो, इससे स्पष्ट मत लेना आवश्यक न समझकर सीधा बिल ही तैयार करवा डाला जो कानूनका रूप धारण करने जारहा है प्रतीत होता है, ट्रस्टियोंकी लापरवाहीने ही कानून बनानेका सरकारको एक प्रकारसे मौन निमन्त्रण प्रथम अधिकार स्वीकार करनेपर ही इसका निर्माण .. काँग्रेस सरकारने किया था पर जैनोंके तीव्र विरोधके। दिया, कोई भी सुसंस्कृत हिन्दू इसका सहर्ष स्वागत कारण या तोराजनैतिक या भूमण्डल प्रतिकूल होनेसे करेगा। यह उसे पास न करा सकी, १९४७ में पुनः यह बिल १६ प्रकरण ८० धाराएँ तथा सामान्य या समस्या खड़ी करदी गई है। इसकी प्रतिलिपि हमारे विशेष कई धाराओं में विभाजित है। प्रथम प्रकरणकी सम्मुख है । इसपर सूक्ष्मतासे दृष्टिपात करनेसे अव- दूसरी धारामें हिन्दूकी जो व्याख्याएँ दी हैं उनमें जैन गत होता है कि सरकार "बिहार प्रान्तीय धार्मिक ट्रस्टों बौद्ध और सिखोंको भी सम्मिलित कर लिया है, जो का एक मण्डल" स्थापित करना चाहती है। जो एक सर्वथा अनुचित और न्याय सङ्गत नहीं है। जैनोंके ओर बिहार सरकार और दूसरी ओर धार्मिक सम्पत्ति धार्मिक स्थानों और व्यवस्थापकोंमें हिन्दुओं जैसी के व्यवस्थापकके बीच अधिकारी, उत्तरदायित्वपूर्ण अव्यवस्था नहीं है। जैनी धार्मिक सम्पत्ति-देवद्रव्यको एजेंटके रूपमें काम करेगी, इस प्रकार अधिकारी अत्यन्त पवित्र मानकर उनका उपयोग फिर कभी मण्डल बनेगा, जिसका प्रधान कार्य होगा धार्मिक सामाजिक कार्योंमें नहीं करते, ऐसी स्थितिमें गेहूंके ट्रस्टोंपर सरकारकी ओरसे निगरानी रखना और साथ घुन पीसने जैसी कहावत चरितार्थ करना सरकारकी ओरसे उन्हें समय समयपर सलाह देते सरकारके लिये शोभास्पद नहीं । सांस्कृतिक और रहना, यहाँपर प्रश्न यह उपस्थित होता है कि सरकार सैद्धान्तिक दृष्टियोंसे हिन्दुओंसे जैन सर्वथा प्रथक हैंको किन परिस्थितियोंने कानून बनानेको बाध्य किया ? आकाश-पातालका अन्तर है। गत ८ अप्रैल को क्योंकि पश्चात् भूमिकाको समझ लेनेसे कार्य आसान अखिल भारतवर्षीय जैन-प्रतिनिधि-मण्डल इसके होजाता है और विरोधकी गुंजायश भी कम रहती है विरोधमें बिहार सरकारके प्रधानमन्त्री श्री कृष्णसिंह हमारी समझमें तो यही आता है कि आज हिन्दू और विकास मन्त्री श्री डॉ. सैयदमहमूदसे मिला था, मन्दिर. मठ और तीर्थ स्थानोंमें महंतों. पंडों और आप लोगोंने आश्वासन दिया है। प्रतिनिधि मण्डलमें तथाकथित व्यवस्थापकों द्वारा जनता द्वारा प्रदत्त बाबू इन्द्रचन्दजी सुचन्ती (बिहारशरीफ) और बाबू धार्मिक सम्पत्तिका जैसा दुरुपयोग होता है उसे मेघराज मोदीने अच्छा भाग लिया, सारा यश इन For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ ] अनेकान्त . . [ वर्ष दोनों तथा बाबू मङ्गलचन्दजी सा० भाबकको मिलना उनके वसीयतनामामें लिखा है पाठशाला, अनाथालय. चाहिये। अब पुनः ६ सितम्बरको जब धारासभा और बहनोंको सहायता करना । ट्रस्टकी मूल सम्पत्ति खुलेगी तब यह बिल उपस्थित किये जानेकी संभावना १ लाख २५ हजारसे भी अधिक है। इसके ब्याजसे है, इस प्रसङ्गपर जैनोंको विरोध करना चाहिये । यदि ही यदि काम किया जाय तो बिहार-प्रान्तमें जैनधर्म बिल जैनोंपर लागू हुआ तो जैनोंकी जो धार्मिक और संस्कृतिकी ज्योति जलाई जासकती है। स्व. स्वतन्त्रता है वह सदाके लिये नष्ट हो जायगी, कारण जौहरीजीका तो वही ध्यान था, पर आज तक कुछ भी कि बोर्डको जो अधिकार दिये गये हैं वे जैनोंके लिये काम नहीं हुआ। न जाने कुछेक ट्रस्टी लोग अपने घातक हैं। उदाहरणके लिये बोर्ड में जैन तो एक परिवारवालोंके साथं क्या-क्या कर रहे हैं। आज जैन सदस्य रहेगा और सरकारी ११ रहेंगे, काम बहुमतसे जनता इसे सहायता कर उन्नत बनाना चाहती है तो होंगे और जिस मन्दिरमें अधिक सम्पत्ति है उसका वे सहायता इसलिये नहीं लेते कि उनको हिसाब पेश परिवर्तन भी संभव है। ऐसी परिस्थिति में जैनोंको बड़ा करना पड़ेगा। सामाजिक सम्पत्तिका मनमाना . उप मा पड़ेगा. अतः क्यों नहीं सारे भेदभाव योग करना मुर्खताकी पराकाष्ठा है। जनताको हिसाब भुलाकर एक स्वरसे सरकारका विरोध करते। मुझे न बताना, ऐसे ट्रस्टोंकी व्यवस्थासे जैन युवक स्वाभाअपने धार्मिक और सामाजिक ट्रस्टोंके ट्रस्टियोंसे भी विक रूपसे क्षुब्ध रहते हैं । मैंने तो केवल दो उदाहरण दो बातें कहनी हैं। मान लीजिये कि जैनी उपरि कथित. ही दिये हैं । न जाने कितने जैनट्रस्टोंकी भी वैसी ही. कानूनसे पृथक होगये तो इसका अर्थ यह न होना दुरवस्था होगी। समयका तकाजा है कि अधिकारीगण चाहिये कि आप अपनी दुर्व्यवस्थाकी परम्पराके प्रवाह- अब अपनेको वह सम्पत्तिका स्वामी न समझे, बल्कि को आगे बढ़ाते जायें। यह बड़ी भूल होगी, तीर्थस्थानोंके जनताका सेवक समझे, वरना आगामी युगका वायुरुपयोंका उपयोग यदि अन्य प्राचीन जैन मन्दिरोंके मण्डल उनके सर्वथा प्रतिकूल होगा। जीर्णोद्धारमें व्यय हो तो क्या बुरा है ? बिहारकी ही प्रान्तमें हम सूचित करते हैं कि बिलका विरोध मैं बात करूँगा, उदाहरण रूपमें मैंने यहाँकी कलापूर्ण किया जाय उसकी प्रति सेठ मङ्गलचन्द शिवचन्द प्रतिमाएँ देखीं। मेरा विचार था कि यदि पावापुरी चौक सिटीके पतेपर सूचना दें। भण्डारसे इनका एक सचित्र आल्बम निकल जाय तो ता० २६ को मैं बिहारसरकारके अर्थसचिव कितना अच्छा हो । साथमें बिहार-प्रान्तीय जैन- श्रीअनुग्रहनारायणसे मिला था जैनसंस्कृतिकी दृष्टि संस्कृतिके इतिहासकी आलोकित करनेवाली कुछ से मैंने उनको समझाया कि जैन पृथक.ही रखे जायें। पंक्तियाँ भी रहें, पर मुझे दुःख है कि यह सांस्कृतिक आपने कहा कैबिनेटमें मैं आपके विचार उपस्थित विकासकी बात भी उनकी समझमें नहीं आई यदि करूँगा, आप निश्चिन्त रहें मुझसे बनेगा उतना मैं आई है तो क्यों नहीं उसे क्रियान्वित करते ? यह तो करूंगा। मेरा तो विश्वास है कि वे अवश्य जैनोंको हुई धार्मिक ट्रस्टकी बात । दूसरी बात यह है कि पटना बिलसे पृथक रखेंगे। में स्व० सुराना किसनचन्द जौहरीने १९३४ मार्चमें . २६-6-४८ मुनि कान्तिसागर एक 'जैन श्वेताम्बर सुकृत फण्ड' स्थापित किया था, पटना सिटी . For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय ज्ञानपीठ काशीके प्रकाशन १. महाबन्ध - (महधवल सिद्धान्तशास्त्र) प्रथम भाग | हिन्दी टीका सहित मूल्य १२) । ७. मुक्ति दूत – अञ्जना - पवनञ्जयका पुण्यचरित्र (पौराणिक रौमाँस) मू०४ ||| ८. दो हजार वर्षकी पुरानी कहानियां - ( ६४ जैन कहानियाँ) व्याख्यान तथा प्रवचनोंमें उदाहरण देने योग्य | मूल्य ३) । ९. पथ चिह्न – (हिन्दी - साहित्य - की अनुपम पुस्तक) स्मृति रेखाएँ और निबन्ध | मूल्य २ ) । १०. पाश्चात्यतर्क शास्त्र - (पहला भाग ) एफ० ए० के लॉजिकके पाठ्यक्रमकी पुस्तक | लेखक - भिक्षु जगदीशजी काश्यप, एफ० ए०, पालि – अध्यापक, हिन्दू विश्वविद्यालय, काशी | पृष्ठ ३८४ । मूल्य ४ || | ११. कुन्दकुन्दाचार्य के तीन रत्नमूल्य २) । १२. कन्नडप्रान्तीय ताडपत्र ग्रन्थसूची - (हिन्दी) मूडबिद्रीके जैनमठ, जैनभवन, सिद्धान्तवसदि तथा अन्य ग्रन्थभण्डार कारकल और अलिपूरके अलभ्य ताडपत्रीय ग्रन्थोंके सविवरण परिचय | प्रत्येक मन्दिरमें तथा शास्त्र - भण्डार में विराजमान करने योग्य । मूल्य १०) । २. करलक्खण - (सामुद्रिक शास्त्र) हिन्दी अनुवाद सहित । हस्तरेखा विज्ञानका नवीन ग्रन्थ | सम्पादक - प्रो० प्रफुल्लचन्द्र मोदी एम० ए०, अमरावती । मूल्य १) । ३. मदनपराजय — कवि नागदेव विरचित (मूल संस्कृत) भाषानुवाद तथा विस्तृत प्रस्तावना सहित । जिनदेव के काम के पराजयका सरस रूपक | सम्पादक और अनुवादक - पं० राजकुमारजी सा० । मू०८) ४. जैनशासन - जैनधर्मका परिचय तथा विवेचन करने वाली सुन्दर रचना । हिन्दू विश्वविद्यालय के जैन रिलीजन के एफ० ए० के पाठ्यक्रम में निर्धारित । मुखपृष्ठ पर महावीरस्वामीका तिरङ्गा चित्र | मूल्य ४ | -) ५. हिन्दी जैन - साहित्यका संक्षिप्त इतिहास – हिन्दी जैन - साहित्यका इतिहास तथा परिचय । मूल्य २||| | ६. आधुनिक जैन- कवि - वर्तमान कवियोंका कलात्मक परिचय और सुन्दर रचनाएँ | मूल्य ३||) । वीरसेवामन्दिरके सब प्रकाशन भी यहाँपर मिलते हैं प्रचारार्थ पुस्तक मँगाने वालोंको विशेष सुविधाएँ भारतीय ज्ञानपीठ काशी, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस । For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ asashrearePIC R Regd. No. A-731 esear@या शेर-ओ-शायरी Latestract [उर्दू के सर्वोत्तम 1500 शेर और 160 नज़्म] प्राचीन और वर्तमान कवियोंमें सर्वप्रधान लोक-प्रिय 31 कलाकारों के मर्मस्पर्शी पद्योंका सङ्कलन और उर्दू-कविताकी गति-विधिका आलोचनात्मक परिचय प्रस्तावना-लेखक हिन्दी-साहित्य-सम्मेलनके सभापति महा पंडित राहुल सांकृत्यायन लिखते हैं "शेरोशायरी"के छ सौ पृष्ठोंमें गोयलीयजीने उर्दू - कविताके विकास और उसके चोटीके कवियोंका काव्य-परिचय दिया / यह एक कवि-हृदय, साहित्य-पारखीके आधे जीवनके परिश्रम और साधनाका फल है। हिन्दीको ऐसे ग्रन्थोंकी कितनी आवश्यकता है, इसे कहनेकी आवश्यकता नहीं / उर्दू-कवितासे प्रथम परिचय प्राप्त करनेवालोंके लिये इन बातोंका जानना अत्यावश्यक है। गोयलीयजी जैसे उर्दू-कविताके मर्मज्ञका ही यह काम था, जो कि इतने संक्षेपमें उन्होंने उदू "छन्द और कविता"का चतुर्मुखीन परिचय कराया / गोयलीयजीके संग्रहकी पंक्ति-पंक्तिसे उनकी अन्तर्दृष्टि और गम्भीर अध्ययनका परिचय मिलता है / मैं तो समझता हूँ इस विषयपर ऐसा 5 ग्रन्थ वही लिख सकते थे / " ASSONSISreeNT She 99CSSRA कर्मयोगीके सम्पादक श्रीसहगल लिखते हैं “वर्षोंकी छानबीनके बाद जो दुर्लभ सामग्री श्रीगोयलीयजी भेंट कर रहे हैं इसका जवाब हिन्दी-संसारमें चिराग़ लेकर ढूँढनेसे भी न मिलेगा, यह हमारा दावा है / " SROSHAN सुरुचिपूर्ण मुद्रण, मनमोहक कपड़ेकी जिल्द पृष्ठ संख्या ६४०-मूल्य केवल अाठ रुपए 5 भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड, बनारस ORIGISSIRGEROSHSEERGREEMESiastold प्रकाशक-पं० परमानन्द जैन शास्त्री भारतीय ज्ञानपीठ काशीके लिये आशाराम खत्री द्वारा रॉयल प्रेस सहारनपुरमें मुद्रित E lian Inumatorial Folrersonals Private Use only manjarpane