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अनेकान्त
[ वर्ष :
आत्मान्तराऽभाव-समानता न
लगाया जासकता-और अश्लिष्ट है-किसी भी प्रकार वागास्पदं स्वाऽऽश्रय-भेद-हीना 1
के विशेष (भेद) को साथमें लिये हुए नहीं है--वह
(सर्वव्यापी, नित्य, निराकाररूप सत्त्वादि) सामान्य • भावस्य सामान्य-विशेषवत्त्वा
मेय-अप्रमेय ही है किसी भी प्रमाणसे जाना 'दैक्ये तयोरन्यतरन्निरात्म ॥५३॥ नहीं जासकता । भेदके माननेपर भी सामान्यको
(यदि यह कहा जाय कि एकके नानात्मक अर्थके स्वाश्रयभूत द्रव्यादिकोंके साथ भेदरूप स्वीकार करने प्रतिपादक शब्द पदसिंहनाद प्रसिद्ध नहीं है: क्योकि पर भी सामान्य प्रमेय नहीं होता; क्योंकि उन बौद्धोंके अन्याऽपोहरूप जो सामान्य है उसके वागा- द्रव्यादिकोंमें उसकी वृत्तिकी अपवृत्ति (व्यावृत्ति)का स्पदता--वचनगोचरता है, और वचनोंके वस्तु- सद्भाव है--सामान्यकी वृत्ति उनमें मानी नहीं गई है, विषयत्वका असम्भव है, तो यह कहना ठीक नहीं है; और जब तक सामान्यकी अपने आश्रयभूत द्रव्यादिक्योंकि) आत्मान्तरके अभावरूप-आत्मस्वभावसे कोंमें वृत्ति नहीं है तब तक दोनोंका संयोग कुण्डीमें भिन्न अन्य-अन्य स्वभावके अपोहरूप-जो समानता बेरोंके समान ही होसकता है; क्योंकि सामान्यके (सामान्य) अपने आश्रयरूप भेदोंसे हीन (रहित) है अद्रव्यपना है तथा संयोगका अनाश्रयपना है और वह वागास्पद-वचनगोचर-नहीं होती; क्योंकि संयोगके द्रव्याश्रयपना है। ऐसी हालतमें सामान्यकी वस्तु सामान्य और विशेष दोनों धर्मोको लिये हुए है।' द्रव्यादिकमें वृत्ति नहीं बन सकती।' . (यदि यह कहा जाय कि पदार्थके सामान्य- . 'यदि सामान्यकी द्रव्यादिवस्तुके साथ वृत्ति विशेषवान् होनेपर भी सामान्यके ही वागास्पदता मानी भी जाय तो वह वृत्ति भी न तो सामान्यको युक्त है; क्योंकि विशेष उसीका आत्मा है, और इस कृत्स्न (निरंश) विकल्परूप मानकर बनती है और तरह दोनोंकी एकरूपता मानी जाय, तो) सामान्य न अंश विकल्परूप । क्योंकि अंशकल्पनासे रहित
और विशेष दोनोंकी एकरूपता स्वीकार करनेपर एकके कृत्स्न विकल्परूप सामान्यकी देश और कालसे भिन्न निरात्म (अभाव) होनेपर दूसरा भी (अविनाभावी व्यक्तियोंमें युगपत्वृत्ति सिद्ध नहीं की जासकती। होनेके कारण) निरात्म (अभावरूप) हो जाता है- उससे अनेक सामान्योंकी मान्यताका प्रसङ्ग आता
और इसतरह किसीका भी अस्तित्व नहीं बन समता. है.जो उक्त सिद्धान्तमान्यताके साथ माने नहीं गये हैं: अतः दोनोंकी एकता नहीं मानी जानी चाहिए।' क्योंकि एक तथा अनंशरूप सामान्यका उन सबके अमेयमश्लिष्टममेयमेव ।
साथ युगपत् योग नहीं बनता। यदि यह कहा जाय
कि सामान्य भिन्न देश और कालके व्यक्तियोंके साथ भेदेऽपि मवृत्यपवृत्तिभावात् ।
युगपत् सम्बन्धवान् है, क्योंकि वह सर्वगत, नित्य वृत्तिश्च कृत्स्नांश-विकल्पतो न
और अमूर्त है, जैसे कि आकाश; तो यह अनुमान मानं च नाऽनन्त-समाश्रयस्य ॥५४॥ भी ठीक नहीं है। इससे एक तो साधन इष्टका '(यदि यह कहा जाय कि आत्मान्तराभावरूप- विघातक हो जाता है अर्थात् जिस प्रकार वह भिन्न अन्यापोहरूप-सामान्य वागास्पद नहीं है, क्योंकि देश-कालके व्यक्तियोंके साथ सम्बन्धिपनको सिद्ध वह अवस्तु है; बल्कि वह सर्वगत सामान्य ही वागा- करता है उसी प्रकार वह सामान्यके आकाशकी तरह स्पद है जो विशेषोंसे अश्लिष्ट है--किसी भी प्रकारके सांशपनको भी सिद्ध करता है जोकि इष्ट नहीं है; भेदको साथमें लिये हुए नहीं है तो ऐसा कहना ठीक क्योंकि सामान्यको निरंश माना गया है। दूसरे, नहीं है; क्योंकि) जो अमेय है-नियत देश, काल सामान्यके निरंश होनेपर उसका युगपत् सर्वगत . और आकारकी दृष्टिसे जिसका कोई अन्दाजा नहीं
[शेषांश पृष्ठ ३२० पर]
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