SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 5
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ किरण८] एकान्तकी हानिसे - एकान्त धर्माभिनिवेशरूप मिथ्यादर्शनके अभाव से वह एकान्ताभिनिवेश उसी अनेकान्तके निश्चयरूप सम्यग्दर्शनत्वको धारण करता है जो आत्मा का वास्तविक रूप है; क्योंकि एकान्ताभिनिवेशका जो अभाव है वही उसके विरोधी अनेकान्तके निश्चयरूप सम्यग्दर्शनका सद्भाव है । और चूँकि यह एकान्ताभिनिवेशका अभावरूप सम्यग्दर्शन आत्माका स्वाभाविक रूप है अतः (हे वीर भगवन्!) आपके यहाँ आपके युक्त्यनुशासन में - ( सम्यग्दृष्टिके) मनका समत्व ठीक घटित होता है । वास्तवमें दर्शनमोहके उदयरूप मूलकारणके होते हुए चारित्रमोहके उदयमें जो रागादिक उत्पन्न होते हैं वे ही जीवोंके अस्वाभाविक परिणाम हैं; क्योंकि वे औदयिक भाव हैं और सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्ररूप जो परिणाम दर्शनमोहके नाश, चारित्रमोहकी उदयहानि और रागादिके अभावसे होते हैं वे आत्मरूप होनेसे जीवोंके स्वाभाविक परिणाम हैं- किन्तु पारिणामिक नहीं; क्योंकि पारिणामिक भाव कर्मोंके उपशमादिकी अपेक्षा नहीं रखते । ऐसी स्थिति में असंयत सम्यग्दृष्टिके भी स्वानुरूप मनः साम्यकी अपेक्षा मनका सम होना बनता है; क्योंकि उसके संयमका सर्वथा अभाव नहीं होता । अतः अनेकान्तरूप युक्यनुशासन रागादिकका निमित्तकारण नहीं, . वह तो मनकी समताका निमित्तभूत है । प्रमुच्यते च प्रतिपक्ष - दूषी जिन ! त्वदीयैः पटुसिंहनादैः । एकस्य नानात्मतया ज्ञ वृत्त े - बन्ध-मोक्ष स्वमतादबाह्यौ ॥५२॥ समन्तभद्र - भारती के कुछ नमूने '( यदि यह कहा जाय कि अनेकान्तवादीका भी अनेकान्तमें राग और सर्वथा एकान्तमें द्वेष होनेसे उसका मन सम कैसे रह सकता है, जिससे मोक्ष बन सके ? मोक्षके अभावमें बन्धकी कल्पना भी नहीं बनती । अथवा मनका सदा सम रहना माननेपर बन्ध नहीं बनता और बन्धके अभाव में मोक्ष घटित नहीं हो सकता, जो कि बन्धपूर्वक होता है । अतः 1 Jain Education International [ २८६ बन्ध और मोक्ष दोनों ही अनेकान्तवादीके स्वमतसे बाह्य ठहरते हैं- मनकी समता और असमता दोनों ही स्थितियोंमें उनकी उपपत्ति नहीं बन सकती-तो यह कहना ठीक नही है; क्योंकि ) जो प्रतिपक्षदूषी है - प्रतिद्वन्द्वीका सर्वथा निराकरण करनेवाला एकान्तायही है - वह तो हे वीर जिन ! आप (अनेकान्तवादी) के एकाऽनेकरूपता जैसे पटुसिंहनादोंसे - निश्चयात्मक एवं सिंहगर्जनॉकी तरह अबाध्य ऐसे युक्ति - शास्त्राविरोधी आगमवाक्योंके प्रयोगद्वारा — प्रमुक्त ही किया जाता है— वस्तुतत्त्वका विवेक कराकर अतत्त्वरूप एकान्ताग्रहसे उसे मुक्ति दिलाई जाती है- क्योंकि प्रत्येक वस्तु नानात्मक है, उसका नानात्मकरूपसे निश्चय ही सर्वथा एकान्त प्रमोचन है । ऐसी दशा में अनेकान्तवादीका एकान्तवादीके साथ कोई द्वेष नहीं हो सकता और चूँकि वह प्रतिपक्षका भी स्वीकार करनेवाला होता है। इसलिये स्वपक्षमें उसका सर्वथा राग भी नहीं बन सकता । वास्तवमें तत्त्वका निश्चय ही राग नहीं होता । यदि तत्त्वका निश्चय ही राग होवे तो क्षीणमोहीके भी का प्रसङ्ग आएगा. जोकि असम्भव है. और न तत्त्वके व्यवच्छेदको ही द्वेष प्रतिपादित किया जा सकता है, जिसके कारण अनेकान्तवादीका मन सम न रहे । अतः अनेकान्तवादीके मनकी समता के निमित्तसे होनेवाले मोक्षका निषेध कैसे किया जा सकता है ? और मनका समत्व सर्वत्र और सदाकाल नहीं बनता, जिससे राग-द्वेषके अभाव से बन्धके अभावका प्रसङ्ग आवे; क्योंकि गुणस्थानोंकी अपेक्षासे किसी तरह, कहींपर और किसी समय कुछ पुण्यबन्धकी उपपत्ति पाई जाती है । अतः बन्ध और मोक्ष दोनों अपने (अनेकान्त) मतसे—जोकि अनन्तात्मक तत्त्व - विषयको लिये हुए है – बाह्य नहीं हैं— उसीमें वस्तुतः उनका सद्भाव है- क्योंकि बन्ध और मोक्ष दोनों ज्ञवृत्ति हैं — अनेकान्तवादियोंद्वारा स्वीकृत ज्ञाता आत्मामें ही उनकी प्रवृत्ति है । और इसलिये सांख्योंद्वारा स्वीकृत प्रधान (प्रकृति) के अनेकान्तात्मक होनेपर भी उसमें दोनों घटित नहीं हो सकते; क्योंकि प्रधान (प्रकृति)के अज्ञता होती है - वह ज्ञाता नहीं माना गया है ।' For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527258
Book TitleAnekant 1948 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages44
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy