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________________ २८८] अनेकान्त [ वर्ष ६ (इसी तरह) अंशी-धर्मी अथवा अवयवी- तरह परात्मामें भी राग होता है—दोनोंमें कथंचित् अंशोंसे-धर्मों अथवा अवयवोंसे-पृथक् नहीं है; अभेदके कारण, तथा परात्माकी तरह स्वात्मामें भी क्योंकि उसरूपमें उपलभ्यमान नहीं है जो जिस द्वेष होता है-दोनोंमें कथंचित् भेदके कारण, और - रूपमें उपलभ्यमान नहीं वह उसमें नास्तिरूप ही है, राग-द्वेषके कार्य ईर्ष्या, असूया, मद, मायादिक दोष जैसे अग्नि शीततारूपसे उपलभ्यमान नहीं है अतः प्रवृत्त होते हैं, जो कि संसारके कारण हैं, सकल शीततारूपसे उसका अभाव है । अंशोंसे अंशीका विक्षोभके निमित्तभूत हैं तथा स्वर्गाऽपवगके प्रतिबन्धक पृथक् होना सर्वदा अनुपलभ्यमान है अतः अंशोंसे हैं। और वे दोष प्रवृत्त होकर मनके समत्वका निरापृथक् अंशीका अभाव है। यह स्वभावकी अनुपलब्धि करम करते हैं-उसे अपनी स्वाभाविक स्थितिमें स्थित है। इसमें प्रत्यक्षतः कोई विरोध नहीं है, क्योंकि न रहने देकर विषम-स्थितिमें पटक देते हैं-, मनके परस्पर विभिन्न पदार्थों सह्याचल-विन्ध्याचलादि जैसों- समत्वका निराकरण समाधिको रोकता है, जिससे के अंश-अंशीभावका दर्शन नहीं होता। आगम-विरोध समाधि-हेतुक निर्वाण किसीके नहीं बन सकता । और भी इसमें नहीं है; क्योंकि परस्पर विभिन्न अर्थोके अंश- इसलिये जिनका यह कहना है कि 'मोक्षके कारण अंशीभावका प्रतिपादन करनेवाले आगमका अभाव समाधिरूप मनके समत्वकी इच्छा रखने वालेको है और जो आगम परस्पर विभिन्न पदार्थोंके अंश- ‘चाहिये कि वह जीवादि वस्तुको अनेकान्तात्मक न अंशीभावका प्रतिपादक है वह युक्ति-विरुद्ध होनेसे माने' वह भी ठीक नहीं है; क्योंकि) वे राग-द्वेषादिक आगमाभास सिद्ध है।' -जो मनकी समताका निराकरण करते हैं-एकान्त____ 'अंश-अंशीकी तरह परस्परसापेक्ष नय-नैगमा- धर्माभिनिवेश-मूलक होते हैं-एकान्तरूपसे निश्चय दिक-भी (सत्तालक्षणा) असिक्रियामें पुरुषार्थके हेतु किये हुए (नित्यत्वादि) धर्ममैं अभिनिवेश-मिथ्या हैं क्योंकि उस रूपमें देखे जाते हैं-उपलभ्यमान हैं। श्रद्धान' उनका मूलकारण होता है-और (मोही-इससे स्थितिग्राहक द्रव्यार्थिकनयके भेद नैगम, मिथ्यादृष्टि) जीवोंकी अहंकृतिसे--अहंकार तथा उससंग्रह, व्यवहार और प्रतिक्षण उत्पाद-व्ययके ग्राहक के साथी ममकारसे२-वे उत्पन्न होते हैं।' अथात पर्यायार्थिकनयके भेद ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ. - उन अहंकार-ममकार भावोंसे ही उनकी उत्पत्ति है जो एवंभूत ये सब परस्परमें सापेक्ष होते हुए ही वस्तुका मिथ्यादर्शनरूप मोह-राजाके सहकारी हैं-मन्त्री हैं', जो साध्य अर्थक्रिया-लक्षण-पुरुषार्थ है उसके निर्णय- अन्यसे नहीं-दूसरे अहंकार-ममकारके भाव उन्हें । के हेतु हैं-अन्यथा नहीं। इस प्रकार प्रत्यक्ष और जन्म देनेमें असमर्थ हैं। और (सम्यग्दृष्टि-जीवोंके) आगमसे अविरोधरूप जो अर्थका प्ररूपण सतरूप चूकि प्रमाणसे अनेकान्तात्मक वस्तुका ही निश्चय होता है वह सब प्रतिक्षण ध्रौव्योत्पाद-व्ययात्मक है; है और सम्यक् नयसे प्रतिपक्षकी अपेक्षा रखनेवाले अन्यथा सत्पना बनता ही नहीं। इस प्रकार युक्त्यनु एकान्तका व्यवस्थापन होता है अतः एकान्ताभिनिवेशका शासनको उदाहृत जानना चाहिये।' नाम मिथ्यादर्शन या मिथ्याश्रद्धान है, यह प्रायः निर्णीत है। एकान्त-धर्माऽभिनिवेश-मूला २ 'मैं इसका स्वामी' ऐसा जो जीवका परिणाम है वह रागादयोऽहंकृतिजा जनानाम् । 'अहंकार' है और 'मेरा यह भोग्य' ऐसा जो जीवका परिएकान्त-हानाच स यत्तदेव रणाम है वह 'ममकार' कहलाता है। अहंकारके साथ सामर्थ्यसे ममकार भी यहाँ प्रतिपादित है। स्वाभाविकत्वाच्च समं मनस्ते ॥५१॥ ३ कहा भी है-“ममकाराऽहंकारौ सचिवाविव मोहनीयराजस्य | न लोगोंका ऐसा खयाल है कि जीवादिवस्तु- रागादि-सकलपरिकर-परिपोषण-तत्परौ सततम् ॥१॥" का अनेकान्तात्मकरूपसे निश्चय होनेपर स्वात्माकी - -युक्त्यनुशासनटीकामें उद्धत । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527258
Book TitleAnekant 1948 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages44
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size13 MB
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