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________________ २६४ ] कोटिका कवि, उत्कृष्टकोटिका वाग्मी तथा उत्कृष्ट कोटिका गमक बतलाया है । यथा कवित्वस्य परा सीमा वाग्मितस्यं परं पदम् । - मत्वस्य पर्यन्तो वादिर्सिंहोऽर्च्यते न कैः ॥ (२) पार्श्वनाथ चरितकार वादिराजसूरि (ई. १०२५) ने भी पार्श्वनाथचरितमें 'वादिसिंह' का समुल्लेख किया है और उन्हें स्याद्वादवाणीकी गर्जना करनेवाला (स्याद्वादविजेता) तथा दिग्नाग और धर्मकीर्तिके अभिमानको 'चूर-चूर करनेवाला प्रकट किया है । यथास्याद्वादगरमाश्रित्य वादिसिंहस्य गर्जिते । दिङ्नागस्य मदध्वंसे कीर्तिभङ्गो न दुर्घटः ' ॥ (३) श्रवणबेलगोलाकी मल्लिषेणप्रशस्ति (ई० ११२८) में एक वादीभसिंहसूरि अपरनाम गणभृत् (आचार्य) अजितसेनका गुणानुवाद किया गया है और उन्हें स्याद्वादुद्विद्या के पारगामियोंका आदरपूर्वक सतत वन्दनीय और लोगोंके भारी आन्तर तमको नाश करनेके लिये पृथिवीपर आया दूसरा सूर्य बतलाया गया है । इसके अलावा, उन्हें अपनी गर्जनाद्वारा वादि-गजोंको शीघ्र चुप करके निग्रहरूपी जीर्ण गड्ढे में पटकनेवाला तथा राजमान्य भी कहा गया है । यथा 1 वन्दे वन्दितमादरादहरहस्स्याद्वादविद्या - विदां । स्वान्तः ध्वान्त-वितान धूनन- विधौ भास्वन्तमन्यं भुवि । भक्त्या त्वाऽजितसेनमानतिकृतां यत्सन्नियोगान्मनःपद्मः सद्म भवेद्विकास-विभवस्योन्मुक्त-निद्रा-भरं ॥ ५४॥ १ इस श्लोकपरसे पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीको कुछ भ्रम हुआ है। श्रुतएव उन्होंने वादिसिंहको दिग्नाग और धर्मकीर्तिका समकालीन समझते हुए लिखा है कि 'वादिराजने इस श्लोकमें बौद्धाचार्य दिङ नाग और कीर्ति (धर्मकीर्ति) का ग्रहण करके वादिसिंहको उनका समकालीन बतलाया है ।' (न्याय कु. प्र. प्र. पू. ११२ ) । पर वास्तवमें वादिराजने वादिसिंहको उक्त बौद्धविद्वानोंका समकालीन नहीं बतलाया । उनके उक्त उल्लेखका इतना ही अभिप्राय है कि दिग्नाग और धर्मकीर्तिको अपनी कृतियोंपर जो अभिमान रहा होगा वह वादिसिंहकी गजना—स्याद्वादविद्यासे भरपूर अपनी (स्याद्वाद सिद्धि जैसी) कृतियोंसे नष्ट कर दिया गया । Jain Education International क मिथ्या -भाषणं भूषणं परिहरेतौद्धत्यमुन्मुञ्चत, स्याद्वादं वदतानमेत विनयाद्वादीभकण्ठीरवं । नो चेत्तद्गुरुगर्जित-श्रुति-भय-भ्रान्ता स्थ यूयं यतस्तूर्ण निग्रहजीर्णकूप- कुहरे वादि - द्विपाः पातिनः।। ५५ सकल-भुवनपालानम्रमूर्द्धावबद्धस्फुरित-मुकुट - चूडालीढ - पादारविन्दः । मदवदखिल - वादीभेन्द्र - कुम्भप्रभेदी, गणद जितसेन भाति वादीभसिंह ॥५७॥ - शिलालेख नं० ५४ (६७) (४) सहस्रके टिप्पणकार लघुसमन्तभद्रने भी अपने टिप्पणके प्रारम्भ में एक वादीभसिंहका उल्लेख निम्न प्रकार किया है विद्यानन्दस्वामिनस्तदादौ . 'तदेवं महाभागैस्तार्किकार्कैरुपज्ञातां श्रीमता वादीभसिंहेनोपलालितामाप्तमीमांसामलं चिकीर्षवः स्याद्वादोद्भासिसत्यवाक्यमाणिक्यमकारिकाघटमदेकटकाराः सूरयो प्रतिज्ञाश्लोकमेकमाह - ' - अष्टसहस्त्री टि० पृष्ठ १ । यहाँ लघु समन्तभद्रने वादीभसिंहको समन्तभद्राचार्य रचित आप्तमीमांसाका उपलालन (परिपोषण) कर्ता बतलाया है । यदि लघुसमन्तभद्रका यह उल्लेख अभ्रान्त है तो कहना होगा कि वादीभसिंहने आप्तमीमांसा कोई महत्वकी टीका लिखी है और उसके द्वारा आप्तमीमांसाका उन्होंने परिपोषण किया है । श्री० पं० कैलाशचंद्रजी शास्त्रीने भी इसकी सम्भावनाकी है' और उसमें आचार्य विद्यानन्दके 'अत्र शास्त्रपरिसमाप्तौ केचिदिदं मङ्गलवचनमनुमन्यन्ते' शब्दोंके साथ उद्धृत किये ‘जयति जगति' आदि पद्यको प्रस्तुत किया है । कोई आश्चर्य नहीं कि विद्यानन्दके पूर्व आप्तमीमांसापर लघु समन्तभद्रद्वारा उल्लिखित वादीभसिंहनेही टीका रची हो और जिससे हो लघुसमन्तभद्रने उन्हें आप्तमीमांसाका उपलालनकर्ता कहा है और विद्यानन्द ने 'केचित्' शब्दोंके साथ उन्होंकी टीका के उक्त 'जयति' आदि समाप्तिमङ्गलको अष्टसहस्रीके अन्तमें अपने तथा अलङ्कदेव के समाप्तिमङ्गल के पहले उद्धृत किया है । १ न्यायकु० प्र० भा० प्र० पृ० १११ । For Personal & Private Use Only [ वर्ष - www.jainelibrary.org
SR No.527258
Book TitleAnekant 1948 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages44
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size13 MB
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