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किरण ८]
वादीभसिंहसूरिकी एक अधूरी अपूर्व कृति स्याद्वादसिद्धि
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१. स्वामीसमन्तभद्ररचित रत्नकरण्डक और का समय राहुल सांकृत्यायनने ई०८०० निर्धारित आप्तमीमांसाका क्रमशः क्षत्रचूड़ामणि और स्याद्वाद- किया है । शङ्करानन्दके उत्तरकालीन अन्य विद्वान् सिद्धिपर स्पष्ट प्रभाव है। यथा
की आलोचना अथवा विचार स्याद्वादसिद्धिमें नहीं श्वाऽपि देवोऽपि देवः श्वा जायते धर्म-किल्विषात् पाया जाता । अतः वादीभसिंहके समयकी पूर्वावधि
-रत्नकरण्ड० श्लोक २६ । शङ्करानन्दका समय जानना चाहिए। अर्थात् ईसाकी देवता भविता श्वापि देवः श्वा धर्म-पापतः । ८वीं शती इनकी पूर्वावधि मानने में कोई बाधा नहीं है।
-क्षत्रचूडामणि ११-७७ । अब उत्तरावधिके साधक प्रमाण दिये जाते हैंकुशलाकुशलं कर्म परलोकश्च न क्वचित् ।। आप्त. ८। १. तामिल-साहित्यके विद्वान् पं० स्वामिनाथय्या कुशलाकुलत्वं च न चेत्ते दातृहिंस्रयोः॥ .. और श्रीकुप्पूस्वामी शास्त्रीने अनेक प्रमाणपूर्वक यह
-स्या०३-११८। सिद्ध किया है कि तामिलभाषामें रचित तिरुत्तक्कदेव अतः वादीभसिंहसूरि स्वामी समन्तभद्रके पश्चा- कृत 'जीवकचिन्तामणि' ग्रन्थ क्षत्रचूडामणि और गद्यद्वर्ती अर्थात् ईसाकी दूसरी-तीसरी शताब्दीके बादके चिन्तामणिकी छाया लेकर रचा गया है और जीवकविद्वान हैं।
चिन्तामणिका उल्लेख सर्वप्रथम तामिलभाषाके पेरिय२. अकलङ्कदेवके न्यायविनिश्चयादि ग्रन्थोंका भी पुराण में मिलता है जिसे चोल-नरेश कुलोत्त ङ्गके अनुस्याद्वादसिद्धिपर असर है, जिसका एक नमूना इस रोधसे शेक्किलार नामक विद्वान्ने रचा माना जाता है। प्रकार है
कुलोत्तु ङ्गका राज्य-काल वि० सं० ११३७से ११७५ अप्रमत्ता विवक्षेयं अन्यथा नियमात्ययात् । (ई० १०८०से ई० १११८) तक है । अतः वादीभसिंह इष्ट सत्यं हितं वक्तुमिच्छा दोषवती कथम् ॥ . इससे पूर्ववर्ती हैं-बादके नहीं।
न्यायवि० का० ३५६ । .. २. श्रावकके आठ मूलगुणोंके बारेमें जिनसेनासार्वज्ञसहजेच्छा तु विरागेऽप्यस्ति, सा हि न । चार्यके पूर्व एक ही परम्परा थी और वह थी स्वामी रागाद्य पहता तस्माद्भवेद्वक्त व सर्ववित् ।। समन्तभद्रकृत रत्नकरण्डकश्रावकाचार प्रतिपादित ।
" -स्या०८-३१७। जिसमें तीन मकार (मद्य, मांस और मधु) तथा अतः वादीभसिंह अकलङ्कदेवके अर्थात् ईसाकी हिंसादि पाँच पापोंका त्याग विहित है। जिनसेनाचार्यने सातवीं शताब्दीके उत्तरवर्ती विद्वान हैं। . उक्त परम्परामें कुछ परिवर्तन किया और मधुके
३. प्रस्तुत स्याद्वादसिद्धिके छठे प्रकरणकी २८२वीं .स्थानमें जुआको रखकर मद्य, मांस, जुआ तथा पाँच कारिकामें भट्ट और प्रभाकरका नामोल्लेख करके पापोंके परित्यागको अष्ट मूलगुण बतलाया। उसके उनके. अभिमत भावना-नियोगरूप वेदवाक्यार्थका बाद सोमदेवने तीन मकार और पाँच उदुम्बर फलोंदिर्देश किया गया है। इसके अलावा कुमारिलभट्टके के त्यागको अष्ट मूलगुण कहा, जिसका अनुसरण मीमांसाश्लोकवार्तिकसे कई कारिकाएँ भी उद्धृत करके पं० आशाधरजी आदि विद्वानोंने किया है। परन्तु उनकी आलोचना की गई है। कुमारिलभट्ट और वादीभसिंहने क्षत्रचूडामणिमें स्वामी समन्तभद्र प्रभाकर समकालीन विद्वान हैं तथा ईसाकी सातवीं प्रतिपादित पहली परम्पराको ही स्थान दिया है और शताब्दी उनका समय माना जाता है। अतः वादीभ- और जिनसेन आदिकी परम्पराओंको स्थान नहीं सिंह इनके उत्तरवर्ती हैं।
१ देखो, 'वादन्याय'का परिशिष्ट A I .. ४. बौद्धविद्वान् शङ्करानन्दकी अपोहसिद्धि और २ देखो, जैनसाहित्य और इतिहास । प्रतिबन्धसिद्धिकी आलोचना स्याद्वादसिद्धिके तीसरे- ३ अहिंसा सत्यमस्तेयं स्वस्त्री-मितवसु-ग्रही। .. चौथे प्रकरणोंमें की गई मालूम होती है । शङ्करानन्द- . मद्यमांसमधुत्यागैस्तेषां मूलगुणाष्टकम् ||क्षत्र०७-२३।
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