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________________ किरण ८] 'संजद' शब्दपर इतनी आपत्ति क्यों ? [३१५ इतनी विशद रीतिसे स्पष्ट की हैं कि उस विषयमें और हैं, यह क्यों ? कुछ लिखना पिष्टपेषण करना होगा। पुरिसिच्छिसंढवेदोदयेण पुरिसिच्छिसंढो भावे । __पं० मक्खनलालजीने अपने “सिद्धान्तसूत्रसम- णामोदयेण दव्वे पायेण समा कहिं विसमा ॥ न्वय" ट्रैक्टमें "निर्णय देनेके आचार्य महाराज ही गोम्मटसार - जीवकाण्डकी इस गाथासे वेदअधिकारी हैं" इस शीर्षकका एक प्रकरण लिखकर वैषम्य स्पष्टतया सिद्ध होनेपर भी उसे न मानना यह सिद्ध करना चाहा है कि 'संजद' पदका विवाद अनुचित है। सिद्धान्तशास्त्र-सम्बन्धी है । अतः इसके निर्णयका गोम्मटसारग्रन्थ श्रीनेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती अधिकार प० पू० चारित्रचक्रवर्ती श्री १०८ शांति- जीकी अनुपम कृति है, जो षट्खण्डागमग्रन्थराजका सागरजी महाराजको ही है। कारण कि वे वर्तमानके पूर्णमन्थन करके ही उसके साररूपमें तय्यार की गई समस्त साधुगण एवं आचार्य-पदधारियोंमें सर्वोपरि है । नेमिचन्द्राचार्यने भी इस बातको गोम्मटसारशिरोमणि हैं । इत्यादि। कर्मकाण्ड गाथा ३९७में बड़े गौरवसे कहा हैलेकिन सुना जाता है कि प० पू० आचार्यश्रीने “जह चक्केण य चक्की छक्खंडं साहियं अविग्घेण । फर्माया है कि इसका निर्णय हम नहीं कर सकते। तह मइचक्केण मया छक्खंडं साहियं सम्मं ॥" यह काम पंडित लोगोंका है। संस्कृत और प्राकृत ____ "जिस प्रकार चक्रवर्ती अपने चक्रके द्वारा षट्भाषाके जानकार पंडित लोग ही होते हैं। अतः वे खण्ड पृथ्वीको सिद्ध कर लेता है । उसी प्रकार मतिही लोग इसका निर्णय करलें। रूपी चक्रके द्वारा मैंने छह खण्ड अर्थात् षट्खंडागम मातृप्रतिसे मिलान करनेके बाद 'संजद' पदको को सम्यकरूपसे साध लिया है।" ताम्रपत्रसे निकलवा देनेका पू० आचार्यजीसे अनुरोध श्रीनेमिचन्द्राचार्यको “सिद्धान्तचक्रवर्ती" यह करना व्यर्थ ही नहीं किन्तु अनर्थकारक होगा। मातृ- उपाधि भी इसी हेतुसे प्राप्त हुई, जो उनके सिद्धान्तप्रतिके विरोधी ताम्रपत्रको कोई भी पसन्द नहीं करेगा। विषयक पारगामित्वकी द्योतक है । अतएव उनके मैं तो पं० मक्खनलालजीसे सविनय अनुरोध करता गोम्मटसारादि ग्रन्थोंके प्रति अविश्वास प्रकट करना है कि अब आप एक पत्रक निकालकर यह प्रकट कर उचित नहीं है। दीजिये कि "सिद्धान्तसूत्रसमन्वयमें हमने जो विचार प० पू० आचार्य श्री शान्तिसागर महाराजजीके 'प्रकट किये हैं वे 'षट्खण्डागम रहस्योद्घाटन' को चरणोंमें भी सविनय विनती है कि मातृप्रतिमें विचारपूर्वक पढ़नेके बाद अब कायम नहीं रहे हैं। 'संजद' पदका होना सिद्ध हो चुका है और उक्त ९३वाँ सूत्र वस्तुतः भावस्त्रीसे सम्बन्ध रखता है, सूत्रमें उसका स्थिर रहना टीकादिपरसे सङ्गत और द्रव्यस्त्रीसे नहीं।" आवश्यक है। तथा विद्वत्परिषद्ने भी अपना यही प्रो० हीरालालजीसे भी सविनय विनती है कि निर्णय दिया है तो अब उस ताम्रपत्रको बदल देने भगवान् श्रीकुन्दकुन्दाचार्य, श्रीसमन्तभद्राचार्य, श्री या उसपर कुछ टिप्पणी देनेका आग्रह अथवा प्रयत्न पूज्यपाद, भट्टाकलङ्कदेव, वीरसेनाचार्य, नेमिचन्द्र अनुचित ही होगा। सिद्धान्तचक्रवर्ती आदिकोंको क्या आप आधुनिक पं० मक्खनलालजीने जो यह लिखा है कि ६३वें आचार्य अतएव अप्रमाण समझते हैं। षट्खण्डागम सूत्रमें 'संजद' पदको कायम रखनेसे द्रव्यस्त्रीको मुक्ति की प्रस्तावनामें तो इन आचार्यप्रवरोंकी स्तुति करके सिद्ध होगी सो बिलकुल गलत है । पं० सोनीजीने आपने उनके ग्रन्थों और वचनोंको प्रमाण माना है। इस आक्षेपका शास्त्राधार पूर्वक अच्छी तरहसे खंडन और अब भाववेद और द्रव्यवेदकी व्यवस्थाके विषयमें किया है। अतएव यह भ्रम दूर होजाना चाहिये। • उनके वचनोंको प्रमाण माननेको आप तय्यार नहीं पं० मक्खनलालजी विद्वान् हैं और इस लिये उन्हें For Personal & Private Use Only Jain Education Interational www.jainelibrary.org
SR No.527258
Book TitleAnekant 1948 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages44
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size13 MB
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