SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 17
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ किरण ८ ] स्थेयादोडयदेवेन वादीभहरिणा कृतः । गद्यचिन्तामणिलोंके चिन्तामणिरिवापरः ॥ इनमें पहला पद्य गद्यचिन्तामणि की प्रारम्भिक पीठिकाका छठा पद्य है और जो स्वयं ग्रन्थकारका रचा हुआ है। इस पद्यमें कहा गया है कि वे प्रसिद्ध पुष्पसेन मुनीन्द्र दिव्य मनु— पूज्य गुरु — मेरे हृदय में सदा आसन जमायें रहें - वर्तमान रहें जिनके प्रभावसे जैसा निपटमूर्ख साधारण आदमी भी 'वादीभ सिंह - मुनिश्रेष्ठ' अथवा वादीभसिंहसूरि बन गया ।' अतः यह तो सर्वथा असंदिग्ध है कि वादीभसिंहसूरि - के गुरु पुष्पसेन मुनि थे - उन्होंने उन्हें मूर्खसे विद्वान् और साधारणजनसे मुनिश्र ेष्ठ बनाया था और इस लिये वे वादीभसिंहके दीक्षा और विद्या दोनोंके गुरु थे। aratसंहरिकी एक अधूरी अपूर्व कृति स्याद्वादसिद्धि अन्तिम दोनों पद्य, जिनमें प्रोडयदेवका उल्लेख है, मुझे वादीभसिंहके स्वयंके रचे नहीं मालूम होते; प्रथम तो जिस प्रशस्तिके रूपमें वे पाये जाते हैं वह प्रशस्ति गद्यचिन्तामणिकी सभी प्रतियोंमें उपलब्ध नहीं हैं— सिर्फ तञ्जोर की दो प्रतियोंमेंसे एक ही प्रतिमें वे मिलते हैं। इसी लिये मुद्रित गद्यचिन्ता - १ पं० के० भुजबलीजी शास्त्रीने जो यह लिखा है कि 'पसेन वादीभसिंह विद्यागुरु नहीं थे; किन्तु दीक्षागुरु । अन्यथा इनकी कोई कृति मिलती और साहित्य-संसार में इनकी भी ख्याति होती | मगर साहित्य-संसार में ही नहीं यो भी वादीभसिंहकी जितनी ख्याति हुई है, उतनी इनके गुरु पुष्पसेनकी नहीं हुई अनुमित होती है ।' (भा. भा. ६, किरण २, पृ. ८४) । वह ठीक नहीं जान पड़ता; क्योंकि वैसी व्याप्ति नहीं है। रविभद्र - शिष्य अनन्तवीर्य, वर्द्धमानमुनि-शिष्य अभिनव धर्म भूषण और मतिसागर - शिष्य वादिराजकी साहित्य-संसारमें कृतियाँ तथा ख्याति दोनों उपलब्ध हैं पर उनके इन गुरुत्रोंकी न कोई साहित्य-संसार कृतियाँ उपलब्ध हैं और न ख्याति । वर्तमान में भी ऐसा देखा जाता जिसके अनेक उदाहरण प्रस्तुत किये ना सकते हैं । Jain Education International [ ३०१ मणिके अन्त में वे अलगसे दिये गये हैं और श्रीकुप्पूस्वामी शास्त्रीने फुटनोटमें उक्त प्रकारकी सूचना की है। दूसरे, प्रथम लोकका पहला पाद और दूसरे श्लोकका दूसरा पाद पहले लोकका दूसरा पाद और दूसरे श्लोकका तीसरा पाद, तथा पहले लोकका तीसरा पाद और दूसरे श्लोकका पहला पाद परस्पर अभिन्न हैं— पुनरुक्त हैं— उनसे कोई विशेषता जाहिर नहीं होती और इस लिये ये दोनों शिथिल पद्य वादीभसिंह जैसे उत्कृष्ट कविकी रचना ज्ञात नहीं होते। तीसरे, वादीभसिंहसू रिकी प्रशस्ति देनेकी प्रकृति और परिणति भी प्रतीत नहीं होती। उनकी क्षत्रचूडामणिमें भी वह नहीं है और स्याद्वादसिद्धि अपूर्ण है, जिससे उसके बारेमें कुछ कहा नहीं जा सकता । अतः उपर्युक्त दोनों पद्य हमें अन्यद्वारा रचित प्रक्षिप्त जान पड़ते हैं और इस लिये प्रोडयदेव वादीभसिंहका जन्म - नाम अथवा वास्तव नाम था, यह बिना निर्बाध प्रमाणोंके नहीं कहा जा सकता । हाँ, वादीभसिंहका जन्मनाम व असली नाम कोई रहा जरूर होगा। पर वह क्या होगा, इसके साधनका कोई दूसरा पुष्ट प्रमाण ढूँढना चाहिए | उपसंहार संक्षेपतः 'स्याद्वादसिद्धि' जैनदर्शनकी एक प्रौढ और अपूर्व अभिनव रचना है । जिन कुछ कृतियोंसे जैनदर्शनका वाङ्मयाकाश देदीप्यमान है और मस्तक उन्नत हैं उन्हींमें यह कृति भी परिगणनीय है । यह अभीतक अप्रकाशित है और इसी लिये अनेक विद्वान् इससे अपरिचित हैं । हम उस दिनकी प्रतीक्षा में हैं जब वादीभसिंहकी यह अमर कृति प्रकाशित होकर विद्वानोंमें अद्वितीय आदरको प्राप्त करेगी और जैनदर्शनकी गौरवमय प्रतिष्ठाको बढ़ावेगी । क्या कोई महान साहित्य - प्रेमी इसे प्रकाशित कर महत् श्रयका भागी बनेगा और ग्रन्थ- ग्रन्थकारकी तरह अपनी उज्ज्वल कीर्तिको अमर बना जायेगा ? For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527258
Book TitleAnekant 1948 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages44
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy