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________________ २९२] - अनेकान्त [वर्ष चरण और दूसरी कारिकाद्वारा ग्रन्थका उद्देश्य निम्न द्वादसिद्धौ क्षणिकवादिनं प्रति युगपदनेकान्तसिद्धिः।' प्रकार प्रदर्शित किया है -पद्य ६६-१४२ । ... " द्वनाय स्वामिने विश्ववेदिने । (४) 'इति श्रीमद्वादीभसिंहसूरिविरचितायां स्यानित्यानन्द-स्वभावायः भक्त-सारूप्यदायिने ॥१॥ द्वादसिद्धौ क्षणिकवादिनं प्रति क्रमानेकान्तसिद्धिः।' सर्व सौख्यार्थितायां च तदुपाय-पराङ्मुखाः । -कारिका १४३-२३१ । तदुपायं ततो वक्ष्ये न हि कार्यमहेतुकम् ॥२॥". (५) 'इति नित्यवादिनं प्रति धर्मकर्तुर्भोक्तृत्वा__ यहाँ पहली मङ्गल-कारिकामें प्रथम पाद त्रुटित है भावसिद्धिः।' -का० २३२-२६३ । और जो इस प्रकार होना चाहिए–'नमः श्रीवर्द्ध ___(६) इति नित्यैकान्तप्रमाणे सर्वज्ञाभावसिद्धिः ।' मानाय' । अक्षर और मात्राओंकी दृष्टिसे यह पाठ -का० २६४-२८५। ठीक बठ जाता है। यदि यही शुद्ध पाठ हो तो इस ___(७) 'इति जगत्कर्तुरभावसिद्धिः ।' कारिकाका अर्थ इस प्रकार होता है -का०२८६-३०७। ____ श्री अन्तिम तीर्थङ्कर वर्द्धमानस्वामीके लिये ____(E) इति भगवदहंन्नेव सर्वज्ञ इति सिद्धिः।' नमस्कार है जो विश्ववेदी (सर्वज्ञ) हैं. नित्यानन्द स्वभाव -का०३०८-३२६ । (अनन्तसुखात्मक) हैं और अपने भक्तोंको समानता (6) 'इत्यर्थापत्तेर प्रामाण्यसिद्धिः । . (बराबरी) देनेवाले हैं जो उनकी उपासना करते हैं -का०३३०-३५२ । वे उन जैसे बन जाते हैं।' (१०) 'इति वेदपौरुषेयत्वसिद्धिः।' का० ३५३-३६२ दूसरी कारिकामें कहा गया है कि 'समस्त प्राणी (११) 'इति परतः प्रामाण्यसिद्धिः।' का. ३६३-४१६ सुख चाहते हैं, परन्तु वे सुखका सच्चा उपाय नहीं (१२) 'इत्यभावप्रमाणदूषणसिद्धिः।' का.४२०-४२४ . जानते । अतः इस ग्रन्थद्वारा सुखके उपायका कथन (१३) 'इति तर्कप्रामाण्यसिद्धिः।' का. ४२५-४४५ (१४) यह प्रकरण का० ४४६ से का० ५०१ तक करूँगा; क्योंकि बिना कारणके कार्य उत्पन्न नहीं होता।' उपलब्ध है और अधूरा है । जैसा कि उसकी निम्न विषय-परिचय अन्तिम कारिकासे स्पष्ट हैजान पड़ता है कि ग्रन्थकार इस ग्रन्थकी रचना न संबध्नात्यसंबद्धः परत्रैवमदर्शनात् । बौद्धविद्वान् शान्तरंक्षितके तत्त्वसंग्रहकी तरह विशाल समवेतो हि संयोगो द्रव्यसंबन्धकृन्मतः ॥१०॥ रूपमें करना चाहते थे और उन्हींकी तरह इसके इन प्रकरणोंमें पहले 'जीवसिद्धि' प्रकरणमें अनेक प्रकरण बनाना चाहते थे। यही कारण है कि चार्वाकको लक्ष्य करके सहेतुक जीव-आत्माकी जो उपलब्ध रचना है और जो समग्र ग्रन्थका संभवतः सिद्धि की गई है और आत्माको भूतसंघातका कार्य भाग है उसमें प्रायः १४ प्रकरण ही उपलब्ध है। माननेका निरसन किया गया है। जैसाकि इन प्रकरणोंके समाप्तिसूचक पुष्पिकावाक्योंसे प्रकट है और जो निम्न प्रकार हैं: दूसरे ‘फलभोक्तत्वाभासिद्धि' प्रकरणमें क्षणिक वादी बौद्धोंके मतमें दूषण दिया गया है कि क्षणिक (१) इति श्रीवादीभसिंहसूरिविरचितायां स्या चित्तसन्तानरूप आत्मा धर्मादिजन्य स्वर्गादि फलका द्वादसिद्धौ चार्वाकं प्रति जीवसिद्धिः ।'-पद्य १से २४। (२) 'इति- श्रीमद्वादीभसिंहसूरिविरचितायां स्या भोक्ता नहीं बन सकता; क्योंकि धर्मादि करनेवाला चिंत्त क्षणध्वंसी है-वह उसी समय नष्ट हो जाता है द्वादसिद्धौ बौद्धवादिन प्रति स्याद्वादानभ्युपगमे धर्मकर्तुः फलभोक्तृत्वाभावसिद्धिः। -पद्य २५से ६८। १ 'सत्येवाऽऽत्मनि धर्म च सौख्योपाये सुखार्थिभिः । . (३) 'इति श्रीमद्वादीभसिंहसूरिविरचितायां स्या- धर्म एव सदा कार्यो न हि कार्यमकारणे ॥२४॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527258
Book TitleAnekant 1948 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages44
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size13 MB
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