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________________ ३२०] अनेकान्त [ वर्ष ६ ६० का शेषांश) से छुटकारा होगा। जैसे जेलका बन्दी जेलमें समस्त की कुछ न्यूनता होनेपर दृष्टि नोनपर ही जाती है उसी कार्य करता है, अपनी कोठरीको साफ भी करता है तरहसे सब कुछ करते हुए भी अपने निज आत्मतेज और भी अन्य कार्य करता है परन्तु उनमें रचता पुञ्जपर ही उपयुक्त रहता है। जैसे कि मिह होती नहीं । हर समय छूटना ही चाहता है। उसी तरह है उसे कूटने-छेतनेपर भी वह अपनी हरियाईको नहीं वह सम्यग्दृष्टि जीव भी संसारमें रहते हुये भी समस्त तजती, परन्तु रचनेपर हरियाईको तजकर लाल हो कार्योंके करते हुए भी अपनी दृष्टि अपनी निज . जाती है उसी तरहसे यह आत्मविभोर प्राणी अपनी सम्पत्तिकी ओर लगाये हुए रहता है। वह प्रतिसमय निजघटरूपी लालीमें ही तल्लीन रहता है। यद्यपि जैसे समस्त मसालों सहित भोजन करते हुए भी नोन- बाहरकी हरियाईमें भी वह रहता है परन्तु निजकी (पृष्ठ २६० का शेषांश) लाली इसके घटमें प्रकट होचुकी है इसलिये इसका होना उसी प्रकार विरुद्ध पड़ता है जिस प्रकार कि उपयोग किसी समय भी स्वरूपसे भिन्न नहीं होता। एक परमाणुका युगपत् सर्वगत होना विरुद्ध है, और प्रातःस्मरणीय परमपूज्य आचार्य श्रीकुन्दकुन्द इससे उक्त हेतु (साधन) असिद्ध है तथा असिद्ध भगवानने श्रीसमयसारमें कहा है कि सम्यग्दृष्टि हेतके कारण कत्लविकल्परूप (निरंश) सामान्यका निरबन्ध होता है सोई ठीक है। सर्वगत होना प्रमाणसिद्ध नहीं ठहरता। अरे भैय्या! जिसका अनन्त संसारका बन्ध कट यह कहा जाय कि सत्तारूप महासामान्य गया क्या वह बन्धवाला कहलायेगा ? जिसके सिर तो पूरा सर्वगत सिद्ध ही है, क्योंकि वह सर्वत्र परसे अनन्त भार उतर गया-सिर्फ तिल बराबर भार सत्प्रत्ययका हेतु है. तो यह ठीक नहीं है; कारण ?) रह गया वह क्या भारवाला कहलायेगा ? अरे ! जो अनन्त व्यक्तियोंके समाश्रयरूप है उस एक (सत्ता- जिसके मोहके जहरकी लहर उतर गई वह कहाँका महासामान्य)के ग्राहक प्रमाणका अभाव है क्योंकि मोही? जिसने भव-वासना और पाप-वासनाओंका अनन्त सद्व्यक्तियोंके ग्रहण विना उसके विषयमें अन्त कर दिया उससे ज्यादा सुखिया कौन ? इससे युगपत् सत् इस ज्ञानकी उत्पत्ति असर्वज्ञों(छद्मस्थों)- जाना जाता है कि वही सम्यग्दृष्टि है, वही समस्त के नहीं बन सकती, जिससे सर्वत्र सत्प्रत्ययहेतुत्वकी जीवोंको समान देखनेवाला है, वही परमक्षमावान् सिद्धि हो सके। सर्वत्र सत्प्रत्ययहेतुत्वकी सिद्धि नहोनेपर है, अत्यन्त दयालु है, कृपावान् है, ज्ञानी है, खुद अनन्त समाश्रयी सामान्यका उक्त अनुमान प्रमाण नहीं जीता है और दूसरोंको जीने देता है, जिसने मोह-मदहो सकता। और इसलिये यह सिद्ध हुआ कि कृत्स्न- मानादिको चकना-चूर कर दिया है। जो सदैव अलिप्ती विकल्पी सामान्यकी द्रव्यादिकोंमें वृत्ति सामान्यबहुत्व- रहता है वही जीव धर्मी है, सदा संतोषी है, जीतलोभ। का प्रसङ्ग उपस्थित होनेके कारण नहीं बन सकती। है। जो समस्त बन्धुओंको बन्धनरहित देखना चाहता है यदि सामान्यकी अनन्त स्वाश्रयों में देशतः युगपत् वृत्ति और सदा जागरूप है। निज आत्माका ह मानी जाय तो वह भी इसीसे दूषित होजाता है; क्यों- है, शान्तचित्त है, मौनी है । जो वृथाकी कलहमें नहीं कि उसका ग्राहक भी कोई प्रमाण नहीं है । साथ ही पड़ता वही सच्चा सुखिया आत्मार्थी श्रात्म-हितैषी, सामान्यके सप्रदेशत्वका प्रसङ्ग आता है, जिसे अपने प्रात्मयोगी, परमसंयमी, जितेन्द्री और जिनेश्वरका उस सिद्धान्तका विरोध होनेसे जिसमें सामान्यको लघु नन्दन है; क्योंकि उसके ज्ञान-ज्योतिका उदय निरंश माना गया है, स्वीकार नहीं किया जासकता। होगया है । वह दुतियाका चन्द्रमा है। और इसलिये अमेयरूप एक सामान्य किसी भी हे आत्मन् अगर तुम संसारके आवागमनसे छूटना प्रमाणसे सिद्ध न होनेके कारण अप्रमेय ही है- चाहते हो तो सच्चे सम्यग्दृष्टि बननेकी कोशिश करो अप्रामाणिक है।' Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527258
Book TitleAnekant 1948 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages44
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size13 MB
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