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________________ ३१२ ] यही अन्दाज लगाया कि चित्र उसने इस भयसे शायद न रखें होंगे कि मैं कहीं उनकी प्रतिकृति उतरवा लूँ या ब्लॉक बनवा लूँ, अस्तु । चित्र चले गये पर मेरा मन उन्हींमें लगा रहा, सोच रहा था क्या ही अच्छा हो यदि रात छोटी होजाये और दिन निकलते ही मैं अभिलषित कार्यको कर डालूँ, पर अनहोनी बात थी । अनेकान्त तारीख २६-७-४८ को मैं बिहार प्रान्तके बहुत बड़े कलात्मक वस्तुसंरक्षकके यहाँपर सहयोगी बाबू पदमसिंह बललियाको लेकर पहुंचा ही । १२ बजनेका समय रहा होगा, मैं तो चाहता था कि वे श्रीमन्त मुझे चित्र अवलोकनार्थ देकर आरामकी नींद ले लें ताकि मैं शान्ति पूर्वक अपना काम निपटालूं, पर वे भी थे धुनके पक्के, बहुत धूप-छाँह देख चुके थे, मैं तो उनके सामने बच्चा था । चित्र मेरी टेबिलपर या गये और पाँच-सात मिनट के बाद वापिस लेनेकी भी तैयारी करने लगे । मैंने कहा, देखिये, ये काम उतना आसान नहीं कि पाँच-दस मिनटमें इनको समुचित रूपसे समझ लिया जाय । वे फिर अपने कामपर गये | मैं अपना और सारा काम छोड़कर प्रतिमा-चित्रोंका परिचय लिखने लगा, बीच-बीचमें वे आये और उनके मस्तिष्ककी रेखाओंमें मैं पढ़ रहा था कि जो कुछ काम मैं कर रहा हूँ वह आपको मान्य नहीं है । पर मैं भी मुँह नीचे दबाये लिखता ही गया, जो कुछ भी लिखा वही आपके सामने समुपस्थित करते हुए मैं आनन्दका अनुभव करता हूं। हो सकता है इनके परिचयसे और संस्कृतिप्रेमी भी मेरे आनन्दमें भाग बटावें । 1 १ – यह प्रतिमा भगवान् पार्श्वनाथजीकी है जैसा कि मस्तकोपरि सप्त फनोंसे सूचित होता है । निम्न भागमें सर्पाकृति नहीं है । यह प्रथा ही प्राचीन कालीन प्रतिमाओंमें नहीं थी या कम रही होगी । उपयुक्त ने इतने सुन्दर बने हैं कि मध्य भागकी रेखाएँ भी सुस्पष्ट हैं । सर्पाकृति पृष्ठ भागीय चरण से प्रारम्भ हुई है जैसा कि ढङ्कगिरिमें प्राप्त प्रतिमाओं में पाई जाती है। प्रतिमा सर्वथा नम है । इसका शारीरिक Jain Education International [ वर्ष ह 1 गठन और तदुपरि जो पालिशकी स्निग्धता है उससे सौंदर्य स्वाभाविकतया खिल उठता है । हाथ घुटने तक लगते हैं और इस प्रकारसे अङ्गुलियाँ रखी हुई हैं मानो यह सजीव है । प्रतिमाका मुखमण्डल बहुत ही आकर्षक और शान्तभावोंको लिये हुए है । होठोंसे स्मितहास्य फरक उठता । मस्तकपर घुंघरवाले. केशो कीर्णित हैं । उष्णीश भी है । आँखें कायोत्सर्ग मुद्राकी स्मृति दिलाती हैं। वाम और दक्षिण भाग में यक्षिणी - यक्ष चामर लिये अवस्थित हैं । चामर जटिल हैं। दोनोंकी प्रभावलि और मुखमुद्रा शान्त है परन्तु यक्षिणीकी जो मुद्रा कलाकारने अङ्कित की है उसमें स्त्री-सुलभ स्वाभाविक चाञ्चल्य विद्यमान । उभय प्रतिमाओं के उत्तरीय वस्त्र बहुत स्पष्ट हैं । गले में माला, कर्ण में केयूर और भुजदण्डमें बाजूबन्ध हैं । यक्षिणीकी जो प्रतिमा है उसके वाम चरण के पास एक स्त्री स्त्रियोचित समस्त आभूषणोंसे विभूषित होकर अंजली धारे भक्तिपूर्वक नमस्कार - वन्दना करती हुई बनाई गई है । मुखमण्डल पर सूक्ष्म दृष्टि डालने अवभासित होता है कि उनके हृदय में प्रभुके प्रति कितनी उच्च और आदर्शमय भावनाएँ अन्तर्निहित हैं । ऐसी प्राकृतिक मुद्राएँ कम ही देखने में आती हैं। प्रश्न यह उपस्थित होता है कि यह स्त्री कौन हो सकती है ? मेरे मतानुसार तो यह मूर्तिनिर्माण करवानेवाली श्राविका ही होनी चाहिए; क्योंकि प्राचीन और मध्यकालीन कुछ प्रतिमाएँ मैंने ऐसी भी देखी हैं जिनमें निर्मापकयुगल रहते हैं । उभय प्रतिमाओंके उपरि भागमें पद्मासनस्थ दोनों ओर दो जिन - प्रतिमाएँ हैं । तदुपरि दोनों ओर आकाशकी आकृतिपर देवियाँ हस्तमें पुष्पमाला लिये खड़ी हैं. उनका मुखमण्डल कहता है कि वे अभी ही भगवानको मालाओं से सुशोभित कर अपने भक्तिसिक्त हृदयका सुपरिचय देंगी। मालाओंके पुष्प भी बहुत स्पष्ट हैं । मस्तकपर छत्राकृति है । मूल प्रतिमाका निम्न भाग उतना आकर्षक और कलापूर्ण नहीं । मध्यमें धर्मचक्र और उभय तरफ विपरीतमुखवाले ग्रास हैं । परन्तु प्रतिमापर निर्माणकाल सूचक खास संवत् या वैसा For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527258
Book TitleAnekant 1948 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages44
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size13 MB
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